Thursday, December 10, 2015

** कोई है ? **


वृहद् हिंदुस्तान
भारत पाकिस्तान हो गया।
भारतीय भी सिख ईसाई,
हिंदू मुसलमान हो गया।
हिंदू भी बटे हैं -
जाट, राजपूत, दलित,ब्राह्मण...
शहर, कस्बा, गांव, गली, मुहल्ला...
कुर्मी, चमार, गौड़, शारश्वत...
गोत्र, जात, ठिकाना हो गया।
चारदीवारी भीतर भी,
घर परिवार के अंदर ही,
कोई छोटा कोई बड़ा हो गया।
संतान भी बेटी बहू पराई,
बेटा कुल दीप हो गया!
बेटों में भी लड़ाई
दुकान मेरी, मकान तेरा,
माँ तेरी, बाप मेरा हो गया!

हे ईश्वर! या अल्लाह!!
देख तेरा इंसान क्या हो गया!
जुबां और बुद्धि के साथ भी
बिना सींग पूंछ का जानवर हो गया।
शाख शाख, पात पात...
जगद्गुरु बोधी वृक्ष बिखर गया!
तिलक तावीज सिरहाने दबा,
बाहर आओ!
आज हम सब एक हों जाएं!
अरे कोई है sss!
कोई है क्या sss!!
जी करता है...
किसी इंसान से आज गले मिल आएं!
------------------------- मुखर! (19 नवंबर 2015)

Tuesday, December 1, 2015

टीस

पेरिस? सीरिया? नेपाल? दादरी? गोधरा? '84?...उफ्फ!!

Thursday, October 29, 2015

* तू मेरा चाँद , मैं … *


वह एकदम स्लिम ट्रिम हो या गोलू मोलू , मुझे हमेशा ही सुन्दर लगता है। एकदम हंसमुख !  बचपन में ताँका झांकी थी.… तो कभी उंगलियाँ उलझाए भी हम घूमा फिरते । और अकसर वह मेरे पीछे पीछे !
फिर उम्र का वो दौर भी आया कि अहसास हुआ यह बचपन ही का नहीं जीवन भर का साथी है.… मन ज़रा भी उदास हो , उसका इंतजार रहता है।
उस तक पहुंचे लोग बताते हैं वह बेहद ठंडा और एकदम पत्थर ही है, जी चाहा चीख कर कहूँ कि इतने करीब जाओगे तो कोई भी पत्थर हो जायेगा !
 मैंने तो उसे जब भी देखा वह मुस्कुरा देता है....वह जब जब अपने पूरे शबाब पे आया हर ओर जैसे उत्सव ही छा गया।  उसके नए नए रूप को हर बार माँ भी निहारती , खीर बनाती , मुँह मीठा कराती … और कई बार तो जब तक वो आ नहीं जाता न कुछ खाती न पानी ही पीती ! कुछ तो बात है उसमें की सबका कान्हां बना फिरता है !
जीवन में दूधिया रौशनी और सौम्य सी ठंडक उसी से है...हाँ , हाँ वह और कोई नहीं नील गगन का राही चाँद ही है।  अब मैं भी जान गई  ही मन का नहीं वो, वो तो प्राणी मात्र में प्रेम तत्व का कारक है ! और इस बात को महिलाएँ आदि काल से विभिन्न व्याज से मनाती आई हैं।  चाँद से प्रेम अपने मन में भर भर के अपने परिवार व् प्रिय जनों पर लुटाने को !
 …........ मुखर
 

Friday, October 2, 2015

- बेदी -


हूं ना मैं बोरिंग!
एकदम आदर्शवादी!
.
आदर्श?
हाहाहाsss!
सुनो आज तुम एक कहानी,
एक सुंदर, चंचल अल्हड़ मन में जीवन में
आदर्श, कर्तव्य, जिम्मेदारी कैसे भर दी गई।
जब धन,संसाधन की समझ बढ़ी
और उनके दम पर सत्ता का जोर!
मालिकों को गुलामों की तलब
आबादी आधी आधी कर दी गई।
वैसे गुलामों की कमी नहीं थी।
मगर कोई ऐसा जो
मालिक की खुशी में खुश,
मालिक के सम्मान में मान
मालिक की मर्जी में मर्जी।
कमजोर से कमजोर,
मुर्ख से मुर्ख,
गरीब से गरीब आदमी को भी
एक अदद गुलाम तो मिले!
इसलिए आधी आधी आबादी।
आधी आबादी को
शरीर बनाया गया।
रिश्तों में बांधा गया।
(क्या औरत ही माँ, बहन, बेटी होती है?
पुरूष बाप,भाई, बेटा नहीं?)
सुंदरता अलंकारों, विशेषणों का
लबादा पहनाया गया।
लबादों के तहों में
मान आबरू बताया गया।
लबादों की जब वह आदी हो गई,
अपने ही आप से अनजान हो गई।
चीरहरण आसान हो गया।
तथाकथित मान को बचाने को,
उसे तिजोरी में, पिंजरे में,
चारदीवारी में रखा गया।
इस घर में हक ना मांगे,
सो पराया कर दिया गया।
उस घर में सब पति का,
उसके जाए बच्चों का भी!
मगर उसका नहीं!
हाँ! वह इतराती है।
अपनी सुंदरता पर,
महंगे कपड़ों पर, गहनों पर।
पिता पति के ओहदों पर
बच्चों की काबिलियत पर!
खुद का क्या?
अरे यही सब तो!!
कहते हैं -
जितना घूमोगे, उतना अनुभव।
जितना अनुभव, उतना ज्ञान।
युगों-युगों से युगों-युगों तक
उसके अनुभव -
घर बच्चे, चौका बर्तन।
और आंचल ढका मान।
न इच्छा, सपने, लोभ,लाभ
बस लाज,शर्म, कर्म, आब!
तुम आदर्शवादी नहीं,
आदर्शों के बेदी पर चढ़ी
भावनाओं की गठरी की बली हो!
***************** मुखर!

Wednesday, September 16, 2015

-विकास के मायने -


उनके पिता पेंट ब्रश से झाँकी, साइनेजेस बनाते थे। वे कंप्यूटर पर ग्राफिक्स डिजाइन कर इंकजेट मशीनों पर फ्लेक्स प्रिंट्स निकाल होर्डिंगस बनाते हैं। तरक्की!!
"ग्रामीण लोहारों की आखिरी पीढ़ी ने मुँह मोड़ा "
विकास का पहिया ज्यों ज्यों आगे घूम रहा है पुराने काम धंधे दम तोड़ते जा रहे हैं। यह आधुनिकता की विडंबना समझी जाएगी कि समाज के जिस कमजोर तबके का जीवन स्तर सुधारने और उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं वही उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं। खास कर पुश्तैनी हुनर से नई पीढ़ी अलग थलग पड़ गई है। भारतीय उपमहाद्वीप के सभी विकासशील छोटे देशों में हालात कमोबेश एक जैसे हैं। बांग्लादेश में ग्रामीण लोहारों की आखिरी पीढ़ी इस धंधे को भारी मन से अलविदा कहने को विवश है।तकनीकी तरक्की और औद्योगिकरण की तेज रफ्तार ने उन्हें अपना कामकाज समेटने को मजबूर किया। कस्बाई और शहरी पृष्ठभूमि के लोहार तो जैसे तैसे अपनी गुजर बसर लायक काम ढूंढ ही लेते हैं लेकिन उनकी संतानें इसे जीविकोपार्जन का साधन मानने को राजी नहीं।
यह बानगी तो चावल की हांडी में से एक दाने की है। अब हमें समझना होगा कि प्रकार विकास की आड़ में जमीन जायदाद धन समृद्धि का रूख मुट्ठी भर लोगों की तरफ कर दिया जाता है।
- अखबार में पढ़े एक आलेख से प्रेरित।

Friday, August 28, 2015

* राखी की चमक *


अरे तू गुस्सा ही हुए जाएगी या सुनेगी भी ?
'खा लिया ना खाना ! राखी भी बांध दी मैंने ! अब बोल ! एकदम तसल्ली से !
मैं करीब पौने बारह बजे निकल गया था तेरी भाभी को घर ड्राप करके यहाँ आने को। ज्यों ही बाइक जे.एल.एन. पर टर्न की थोड़ी दूर पर एक पिक-अप किसी को टक्कर मार कर चली गई। एक बारगी तो सोचा कि मैं तो चलता हूँ ! पीछे मुड़ कर देखा वो अभी तक पड़ा था जमीन पर। सभी जने बचकर निकले जा रहे थे। हालत नाजुक थी। फ़टाफ़ट पी.सी.आर और एम्बुलेंस को फोन करके तुझे किया कि देर हो जाएगी। इंतजार करते हुए मैंने देखा सड़क पर बिखरे सामान में चिथड़ा हो चुका एक गिफ्ट पैकेट था। फोन पे लास्ट कॉल 'छुटकी ' नाम से था। मुझे माज़रा समझते देर नहीं लगी ! पुलिस की तफ़्तीश और एम्बुलेंस के जाने के बाद मैं स्टेचू सर्कल पे ट्रेफिक जाम में फंस गया। कोई रैली निकल रही थी। गली में मुड़ा कि मुझे एम्बुलेंस की सायरन सुनाई दिया। इतनी भीड़ भाड़ में हर किसी को देर हो रही थी। आज़ अन्य दिनों से कुछ ज्यादा ही जल्दी थी लोगों को।
' कुछ कर सकता हूँ ? ' - एम्बुलेंस के करीब जा कर मैंने ड्राइवर से पुछा !
' आप प्लीज़ यहाँ से निकलवा कर कोई शॉर्टकट बता देते ' - ड्राइवर की बेचारगी साफ़ झलक रही थी।
मैं आगे आगे चलते हुए प्रार्थना कर रहा था ' हे भगवन ! रक्षा करना इसकी। '
अस्पताल पहुँच कर पता लगा खतरे की कोई बात नहीं। हाँ, खून जरूर चढ़ाना पड़ा !
' तो तूने आज फिर ब्लड डोनेट कर दिया ?'
' तो फिर ? ' घर से उसका भाई आ गया था जिसे मैंने तेरे लिए लिया गिफ्ट यह कह कर दे आया कि यह उसकी बाइक के पास मिला था। मैंने सही किया ना ?
' हाँ ! बिलकुल सही ! मानव धर्म निभाया तूने ! इससे बेहतर और क्या हो सकता था !' वह आंसू पोछते हुए बोली।
' चल चल, अब अपना धर्म निभा ! कहाँ है मेरे रसगुल्ले का डब्बा ! '....
आज राखी की और दोनों के चेहरे की चमक कुछ और ही थी ! आज उन्होंने सबसे ऊंचे धर्म, मानव धर्म को पहचाना था !
************************ *** **************************** मुखर

Saturday, August 22, 2015

सुना क्या आपने -


मोदी : 60 हज़ार दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
मोदी : 70 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
मोदी : 80 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
90 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
ये जनता है की मूर्खों की भीड़ ? इन्हें नहीं पता की ये
उन्ही के खून पैसों की कमाई है ? इन्हें नहीं पता की ये
पैसा उन्हें 1 साल पहले मिल जाता तो शायद एक चूल, एक
पूल या एक सड़क अब तक बन गई होती ? इन्ही का पैसा
इन्हें ऐसे देने की बात हो रही थी जैसे भिखारी को राजा
चिढ़ा रहा हो, एक रूपये दूँ की 2 रूपये दूँ ??
( फेसबुक पर किसी का लिखा हुआ कमेंट)
***************************************
हम सोचे -
मतलब मामला सौदे का है! वह भी देश के प्रधानमंत्री द्वारा? भई वाह!
वैसे एक बात कह दें हम भी। आप मोदी जी को सही से समझे नहीं। वे देश के प्रधानमंत्री हैं, एकदम सच्चे सेवक। बिहार भी उसी देश का हिस्सा है, इतना भूगोल तो याद है उनको। अब वो किसी पार्टी वार्टी के नेता जैसा संकीर्ण सोच नहीं रखते! बिहार की जनता उनकी पार्टी को वोट दे या नितीश को, जो पैकेज का वादा किया है वो निभा कर रहेंगे। चाहे तो शाह लिख कर दे देंगे कि इस बार वाला कोई जुमला नहीं है।
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किसी का जवाब जोरदार था -
चाहें लाख लिख कर दे दें ... ससुरे करेंगे सब काम फाईलों में भी (गर जुमला न हुआ तो) ये गुजराती बनिए हैं... बिहारियों में दाल नहीं गलनी इनकी ...
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चल बुड़बक ! कौनो हम ही बुद्धु हैं का ! जब कुछ होने जाने का हैइऐ नहीं त काहे न अपनी मर्जी से वोट दें , मतबल घर का आदमी ।
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जय हो नागनाथ , i mean नागपञ्चमी की !

( sorry for delayed post )

Monday, August 10, 2015

-*- होर्न प्लीज ( ह को प पढ़ा जाये ) -*-


जिस जोरदार तरीके से सरकार द्वारा बैन किये गए 857 साइट्स का विरोध किया गया हम समझ गए आज की पीढ़ी तकनीक की पुरोधा ही नहीं बल्कि पुरातन संस्कृति की सच्ची सरमायदार भी है।  हॉर्न को हॉर्न मानने से इंकार करते हुए वात्स्यायन, कामसूत्र, खजुराओ व  कोणार्क इत्यादि के इतने सटीक उदाहरणों को उद्धरित किया कि बस्स्स्स ! हम तो निहाल ही हो गए।  तब से न जाने क्यों अपने आपको लानत मलानत भेज रहे हैं कि हमारे ज्ञान चक्षु तो अभी तलाक मूंदे ही हुए हैं ? हैं !!
ऐसा हमेशा से नहीं था।  हमारी भी एक उम्र आई थी जब ये नीली नीली दुनिया हजारों रंगो से नहाई थी। हमारे ' ये' तो आज भी देखते हैं , मगर हमारा वो काल ५-७ वर्षों में निपट गया जब हम भी सारे खिड़की दरवाज़े बंद करके उस पर परदे भी लगा कर एक आध फिल्में खींसे निपोरते , खीखीखी करते, स्क्रीन की तरफ नहीं देख रहे हैं का नाटक करते अपने आनदुत्सव के अनुभव में इज़ाफ़े कर रहे थे।  इन अनुभवों से एक बात तो तय हुई कि हार्ड कोर अपने बूते की नहीं थी। धीरे धीरे पता लगा कि हमे देखने से ज्यादा पढ़ने में मन लगता है।  बस फिर क्या था, लगा दी इनकी ड्यूटी , कुछ 'अच्छी वाली ' मैगज़ीन लाकर दो ना। 
वो दिन जाने कब हवा हुए।  ख़ैर। … अपन आज की बात करते हैं। आज हमें लत लगी है हर बात के कारणों व् नतीज़ों को तलाशने की।  

H orn (promotes)--> Prostitution Industry --> Girls forced in Prostitution --> Child Trafficking

ये सूत्र मैंने फेसबुक से कॉपी की।  बात में कुछ तो दम है। आइये देखते हैं :-
अगर हमने इन साइट्स को बैन करने  ख़िलाफ़ हैं तो यह भी स्वीकारना होगा कि  फिल्मों को प्रोडूस करने में कितना पैसा, लोग , वक़्त और टर्न ओवर है की इसे इंडस्ट्री ही कहा जाता है।  इंडस्ट्री होने के नाते -
१. हॉर्न इंडस्ट्री लिंगभेदी ( जेंडर biased ) है। फ़िल्म के कलाकारों को स्क्रीन टाइम के अनुसार न तो पे किया जाता है और न ही 'शोहरत ' में भागीदारी में न्याय।   ( जिनसे मैंने पुछा वे नाम में सनी लीओन का नाम तो बता पाये मगर पुरुष वर्ग में नाम ध्यान नहीं।  ज्यादा जोर देने पर  'सनी लियॉन का हसबैंड' .
२. समाज को हॉर्न देखने से तो गुरेज़ नहीं है मगर ऐसी फिल्मों में काम 'आती ' / काम में धकेल दी गयी लड़कियों को बदनाम/ गंदी भी कहेंगे।  जिसका नतीजा ? किडनेपिंग/ ब्लेकमेलिंग ( याद आया दिल्ली के एक नामी स्कूल का MMS आप सबको ?)
३. जो लड़कियां जाने कितनी मजबूरियों में इस व्यवसाय में कदम रखती भी हैं तो समाज की जाने किन घिनौने व्यवस्था के अंतर्गत हर एक 'गर्ल ' को एक दलाल ही बाज़ार मुहैया कराता है।  अर्थात वो दलाल बिना हींग फिटकरी लगाये खाता है ! लड़की का शरीर, उसी की मेहनत, उसी की बदनामी तो काम से काम पूरा पैसा तो मिले उसे !!
४. गर ये साइट्स इतने ही जरूरी हैं तो क्यों न प्रोस्टीटूशन को लीगल कर दिया जाये ? कम से कम आये दिन इन्हें क़ानून के रखवाले हड़काएगे तो नहीं , ब्लैकमेल तो नहीं करेंगे !
सिर्फ हॉर्न देने से क्या मतलब , रास्ता भी तो दीजिये।
                                                                 --------------------- मुखर



http://www.covenanteyes.com/2011/09/07/the-connections-between-pornography-and-sex-trafficking/

http://www.covenanteyes.com/2011/09/07/the-connections-between-pornography-and-sex-trafficking/

http://medicalkidnap.com/2015/01/29/15000-cases-of-arizona-child-porn-most-uninvestigated/


Friday, August 7, 2015

" मेरे दर्द की उम्र "


छत पर से गुजरती उदास शाम को विदा करते हुए मैं दिनभर की गतिविधियों व अरमानों की, जिनको अभी अंकुरित होना बाकी था, पोटली बना वहीं क्षितिज की डोली पर रख लौटने लगी थी... ये सांसें खारी सी क्यों महक रही थी? शायद अश्रु आँखों से नहीं हलक से नीचे उतर रहे थे...
मैंने देखा अंधेरे की ओट से कोई चेहरा उभर कर बिना आहट मेरी पोटली उठा ले गया। असमंजस सी मैं अभी अपने शब्दों को व्यवस्थित कर ही रही थी कोई प्रश्न रूप देने के लिए कि देखा मेरे अजन्मे अरमान एक एक कर कोई श्याम सी ओढ़नी पर यहां वहां टांक दिया था। इस काली सी रात में उन तारों की रौशनी देखते ही बनती थी।
मैं रह न सकी। सोने से पहले खिड़की के पर्दे हटा उसे आवाज दी - ' ऐ, तेरा नाम क्या है ?'
'चंदा! '
यथा नाम, तथा गुण! एक दम चमा चम! नींद में उतरते उतरते उसकी आकृति मेरे चेहरे पर महसूस की। और सुबह होते होते उसकी चमक मेरे आँखों में उतर आई थी।...
ये पूरे चांद और उसकी चांदनी भी ना...गोया सूरज भी क्या राह दिखाए!
...........मुखर!

Tuesday, July 28, 2015

"फिक्स्ड डिपॉज़िट " - कहानी




मन तो किया चिल्ला कर कहूँ - ' आपका फिक्स डिपॉज़िट आज फिर पी कर आया है !' मगर नहीं। मैं पापा के जले पर नमक नहीं छिड़क सकती थी। उनको दुःख होगा। तो क्या जो इस चक्कर में मैं कितने दुखों तले दबी पड़ी थी। 
जीवन की गोद में अभी मेरी आँख भी न खुली थी कि पापा को अक्सर दोस्तों से बात करते हुए मजाक में यह कहते सुना था - मेरे तो दो फिक्स डिपाजिट हैं और एक डेबिट नोट।  उस समय की कच्ची बुद्धि इतना तो समझ गयी थी कि ये बातें बैंक से सम्बंधित नहीं हैं। फिर ? …
मनोज भैया दूकान का रेनोवेशन करना चाहते थे. 'परचूनी' की दूकान उनके रुतबे से मेल नहीं खाती थी . 'डिपार्टमेंटल स्टोर ' बनाना है इसे। '
पापा भी सोचते थे - जब राजू एम.बी.बी.एस कर डॉक्टर बन जायेगा तब मनोज को कैसा लगेगा 'परचूनी' की दुकान ' पर बैठना ? सही कह रहा है बेचारा। 
 ' बेटा , ठीक है. लोन के पेपर्स बनवा ले. मैं साइन कर दूंगा। '
' पर पापा, भैया अपनी मेहनत और बचत से प्लान कर लेंगे रेनोवेशन. आज नहीं तो कुछ सालों बाद ही सही !' - मैं बोली। 
' शीतल सही कह रही है. अभी तो आपने इसके बी. एड के लिए लोन का चुकता किये हो. फिर से बोझ क्यों ? थोड़ा तो चैन … '
'अभी नौकरी बाकी है।  हो जायेगा सब बेटी। …' माँ की बात बीच ही में काटते हुए पापा बोल पड़े .
' क्लीनिक भी तो खोलूंगा मैं। अगली साल जब मेरी एम.बी.बी.एस पूरी हो जाएगी तो। '- राजू से बोले बिना रहा न गया। 
' उसकी चिंता मत कर तू।  मेरा पी.एफ पड़ा है अभी। पढ़ाई में ध्यान दिया कर। बस हॉस्टल में जा कर दोस्तों के साथ आवारागर्दी, दारु एक एक सेमिस्टर में तो साल भर लगा देता है ' - शुक्ला जी भी भड़क गए थे। 
इस तरह पापा के दोनों फिक्स डिपॉज़िट उनकी लाइफ से भारी भरकम प्रीमियम लिए जाते थे.
शीतल बी.एड. करते ही एक प्राइवेट स्कूल में लग गयी। सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म निकलने में अभी टाइम था। पापा ने बहुत कहा एम.एड करने को. मगर वह पापा की माली हालत और ओढ़े गए जिम्मेदारियों को भली भांति जानती थी। फिर वह खुद का भी भार कैसे डाल सकती थी उन पर ?  कभी नहीं।  वैसे भी वो पहले ही से डेबिट नोट मानी जाती रही है।  अब और नहीं।  अब जिंदगी के फ़लसफ़े समझती थी वो। 
शीतल की कमाई को हाथ न लगाने की जैसे कसम थी माँ पापा को।  समाज के रिवाज ! उफ्फ़ ! खैर वह रकम शीतल के नाम बैंक अकाउंट में डाली जाती रही। 
मनोज अपनी दूकान का रेनोवेशन छेड़ चुका था। तो फिलहाल वहां से आमदनी रुक चुकी थी. राजू इस बार फिर रह गया था। कहता था इंटरनल के लिए पैसे खिलाने पड़ते हैं। 
क्या ये चिंता फ़िक्र ही थी कि पापा की हेल्थ दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी ? सभी टोकने लगे थे।  पापा कब तक नजरअंदाज करते ? शीतल ही की जिद पर आखिर मंजू उन्हें फोर्टिस में दिखा लाई। आज उसकी कमाई काम आ रही थी। साल भर की सर्दी खांसी बुखार आदि का ब्यौरा लेकर डॉक्टर ने बहुत सी जांच लिख दी। बाकी दूसरी सारी दवाइयाँ जो गली गली के डॉक्टरों से लिया करते थी , बंद करा दी।  जांच के तीन दिन में रिपोर्ट आ गयी. इसी बात का डर था पापा को। मन में सोचा , चलो टी बी ही है, कहीं कैंसर होता तो सुन ही कर मर जाता।
माँ पिता , दोनों को उनके इलाज से, ठीक होने से ज्यादा चिंता शीतल के ब्याह की लगी थी।
जुलाई में जो इंटरव्यू हुए थे उसका परिणाम आ गया था।  सेकंड ग्रेड की नौकरी लग गयी थी. शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर बिजोलाई में। 
' इतने दूर बिटिया को भेजना अच्छा नहीं।  वैसे भी आजकल दिनमान ठीक नहीं चल रहे. एक बार पारणा दें फिर ये जाने और इसके घर वाले। हमें कौन सी बेटी की कमाई खानी है ? ' - मंजू बोली जा रही थी।  और शुक्ला जी हैं कि मौन धारण किये बैठे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था.
उस दिन शुक्ला जी को जबरदस्त दौरा पड़ा था खांसी का।  अस्पताल ही में भर्ती होना पड़ा था. बिमारी या अस्पताल दवाई के खर्चे को लेकर किसी में कोई बात नहीं होती थी। शीतल पिछले एक ही साल में कितनी सयानी हो गयी थी।  नौकरी के साथ साथ अस्पताल के चक्कर लगाना, सब उसी की जिम्मेदारी थी।  उसने सरकारी नौकरी ज्वाइन कर ली थी।  अस्पताल से डिस्चार्ज होते वक़्त शुक्ला जी ने आखिर डॉक्टर साहब से पूछ ही लिया था फीस के बारे में।
डॉक्टर साहब जोर से हँसे ,' आपको पता नहीं ? शीतल बिटिया ने चेक काट दिए हैं। सब अकाउंट क्लियर है। भई शुक्ला साहब, बड़ी किस्मत वाले हैं आप कि ऐसी बिटिया पाई आपने ! आप सब चिंता छोड़िये भी।'
'भाभी जी , देखिये ! सभी बीमारियों की एक जड़ - चिंता ' .
मंजू बोल ही पड़ी, ' इस उम्र में अब चिंता हो ही जाती है।  दोनों बेटे अभी पाँव पर खड़े हो ही नहीं पाये हैं कि बिटिया ब्याह लायक
डॉक्टर साहब तपाक से बोल पड़े - 'तब तो मैं आपसे अभी अपनी फीस मांग साकता हूँ ' .
शुक्ला जी और मंजू एक दुसरे को देखने लगे,  कि अब कितना पैसा बाकी है !
'घबराइये मत ! कल मेरा बेटा शांतनु बंगलौर से आई.आई.एम. कम्प्लीट करके लौट रहा है. इज़ाज़त  हो तो अगले हफ्ते हम आ जाएँ शांतनु को शीतल से मिलवाने … ?'
शीतल का ब्याह राजी ख़ुशी हो गया।  शांतनु सिर्फ़ ऊंचे विचारों वाला ही नहीं बल्कि क्रांतिकारी विचारों वाला भी है। शुक्ला जी का दहेज़ के नाम पर एक धेला भी नहीं लगा था। डॉक्टर साहब की तमन्ना थी एक अपना अस्पताल खोलने की।  शांतनु अपने राज्य के लोगों, समाज के लिए कुछ करना चाहता था।  तय यह हुआ कि बिजोलाई में अस्पताल खोला जाये जो शांतनु मैनेज करेगा।  भविष्य में एक विद्यालय भी।  शीतल के सपनों में पहली बार रंग भरने लगे थे।  उसने पी.एच.डी में एनरोलमेंट भी करा लिया था। 
शीतल को और फिर शादी में आये दूर-पास के मेहमानों को विदा करके शुक्ला जी जिंदगी का हिसाब किताब करने बैठे  तो पता चला जिंदगी भर की जमा पूंजी दोनों बेटों के डेबिट ने चट कर लिया. और शीतल ? उसने तो जैसे उन्हें उनकी बिमारी से लौटा लाई ! वह तो दोनों ही परिवारों के लिए 'क्रेडिट नोट' साबित हुई !
" देखा मंजू , पूरी जिंदगी गुजर गई डेबिट - क्रेडिट समझने में ! "
****************************** मुखर ****************************************

Thursday, July 23, 2015

"यो यो" 🎼 (तंज )

न ये चांद होगा, न तारे रहेंगे...
कहीं दूर जब दिन ढल जाए...
ये धरती, ये नदिया,ये रैना और तुम...
अरे! आप भी ना बस! मैं कोई बेढब सी अंताक्षरी नहीं खेल रही। बात तो सुनो पहले।
मैंने जैसे ही एफ एम चलाया, उसने एक लेटेस्ट गाना सुनाया :-
डी.जे. वाले 🎶
अभी गाना का अंतरा खत्म हुआ ही था कि जो आवाज हमें सुनाई दी हम जान गए, गई भैंस पानी में! इन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों -सुनो सुनो, और सुनो!
पहला स्टेंजा खत्म होते होते उनकी सारी बातें सच हो गई। मैंने कहा -
जाने भी दो, आज की पीढ़ी है। जब से आँखें खोली होगी बच्चे ने देखा ही यही होगा।हर शाम पापा, काका और पडोस के ताऊ बैठ कर जो महफिल जमाते होंगे कि...आए दिन पार्टी शार्टी, दारू शारू, बोटी शोटी...
घर में जब भी गैदरिंग हुई, एक उम्र पार सब मुंडया नू एक एक कर थोड़ी देर के लिए गायब होते देखा है इसने। और लौटते ही उसी महक से भभकते भी।
बच्चे - गीली मिट्टी। जल्दी सीख गया।
हनी ने कभी मून तो देख्या सी नहीं। शाम होते ही Axe में नहा कर लो राईज पहने बेब को 350 cc बाइक पर बैठा कर मिडटाउन के हाई राइजेस के बीच उड़ते हुए सीधे डांस फ्लोर पर लैंड करते हैं। किसी आंटी की दखलअंदाजी इनके घर क्या कुणबे ही में पसंद नहीं की जाती।
पुलिस को हैंडल करना इनके काका के बांए हाथ की चिटकी उंगली का खेल रहा है। सी एम पावर और शैम्पेन शावर तो घर आंगन की बात है। अब इसमें मा दे लाडले का क्या कसूर अगर उसकी स्लेट पर से ही बेबी,बोतल, पार्टी, पुलिस,पावर सीखा है तो! माँ के हाथ चाहे कितने ही बर्तन झाडू दिखता हो, मंदिर की घंटी भी मगर प्ओ के हाथ जो गिलास दिखता है, यह बस उसी को सीखता है, याद रखता है। बदलते समय के समाज की देन है, बरदाश्त तो करना ही पड़ेगा। और आए दिन घर बाहर बड्डे पाट्टी हो या शादी व्याह, अब शोर शराबा तो इंही कानफोडू गानों का होगा। क्या करें, अब नाचने के लिए पांव भी तो इंही धुनो पर उठते हैं।
आपको क्या बताऊँ, पिछले रविवार दोपहर को जब मैं कार धो रही थी कि हमारे पड़ोसी हनी सिंह की औलाद अंगड़ाई जम्हाई लेता आया और बोला - ओए होए आंटी, की गल है! आज तो तुसी भी महक रहे हो, सेटरडे नाइट लेट नाइट पार्टी शार्टी में पेग शेग लगाए हो! हैं, एं!
ओए खोत्ए चुप्प कर! ए तो पसीने दी बू है।
------------------------------------- मुखर!

Wednesday, July 22, 2015

' दस रूपये में ख़ुशी '

उसे देखा है मैंने खुशियाँ पकाते ! जैसे कोई पुकारता हो - ले लो , ले लो , दस रुपये में खालिश ख़ुशी ! एक के एक के साथ एक एकदम मुफ्त !
बात यों  है कि उस दिन वो जो कार रुकी थी ना रेड लाइट पर. वो मचल उठी -
ज़रा विंडो रोल डाउन  करो तो।
अरे अभी नहीं, कितना पॉल्यूशन है यहाँ !
मगर मुझे बलून लेना है. जल्दी  ग्रीन लाइ ....
बलून का तुम क्या करोगी ? किट्टू तो अब गुब्बारों से खेलता नहीं , तुम्हे चाहिए क्या ?
जिद्द करके उसने दो बलून खरीद ही लिए थे।  बलून बेचने वाली बच्ची की दो बलून बेच पाने की खुशी को वह तब तक  आँखों से पीती रही जब तक ट्रेफिक फिर से चालू हो कर उस ठहरी हुई दुनिया से कार वालों की तेज़ रफ़्तार की दुनिया शीशा चढ़ा कर आगे न बढ़ गयी !
मगर कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती।
नारायण चौराहे पर पहुँचते हुए उसने उन्हें कार साइड में रोकने को कहा।
अब क्या हुआ ?
अरे रोको तो ! ( उसने दूर से ही मोड़ पर फुटपाथ पर खेलते दो बच्चों को देख  लिया था। )
कार के रुकते रुकते उसने शीशा नीचे कर लिया और हाथ बढ़ा कर वो दो बलून उन बच्चों को पकड़ा दिया था !
गियर  चेंज करते हुए वे देख रहे थे दस रुपये में डबल ख़ुशी कैसे मिलती है !
                                                      ---------------- मुखर !


Monday, July 20, 2015

जन्मदिवस

यह सालाना घटना है. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते पलटते जब जब इस आषाढ़ सावन के मोड़ पर पहुँचने को हुई, उठकर पहले सभी खिड़की दरवाज़े की चिटखनियां चढ़ा दिया करती हूँ. किसी भी प्रकार के उत्सवी कोलाहल से दूर। हो सके घर के वृत्त के भीतर के बाशिंदों से भी विलग कुछ अकेलेपन में कुछ गहरे में या शायद कुछ दार्शनिक अंदाज में यह सोलह जुलाई का पन्ना कुछ यों पलटना चाहती हूँ कि बस पंद्रह के बाद सीधे सत्रह ही की सुबह हो।
मगर इस बार तो अपने ने और अपनों ने जैसे कसम ही खाई हो चारदीवारी सब गिराएंगे आसमां कितना बड़ा है दिखाएंगे। थकान मिटाकर जब इस आभासीय दुनिया में झाँका तो पता लगा :-
इस आसमां का किनारा
दिखता तो है, होता तो नहीं।
किसको अपना कहुँ किसे पराया ,
ये दिल जानता नहीं, मानता भी नहीं !

             -  मुखर

Wednesday, July 8, 2015

"अवसाद "




मेरे  हाथ आ  लगा है
फिर वही चाक़ू !
कल ही की बात है-
जाने किस पर तो ,
पूरे चार बार घोंपने के बाद ,
पसीने से तर बतर
मैं नींद से उठ बैठी थी। 

याद है ना तुम्हें !
पिछली बार तो
पर्स में से निकाल ली थी बन्दूक !
फ़िर तो गोली की आवाज ही से
खुली थी नींद मेरी !
कई दिनों तक फ़िर
मेरे बालों में उंगली फ़िरा
तुमने उगाए थे फ़ूल
मेरे अन्तरमन में ।
और वो बन्दूक, वो चाकू
तुम्हारी फ़ूंक से
हवा हो गये थे !
आ बैठी थी, मेरे जहन में
किसी बंसी की मीठी सी धुन।
फ़ैल गया था उजास।
दूर दूर, आस पास।
जहाँ तक जाती थी नज़र ,
नजर आते थे कितने ही इन्द्रधनुष !
और तभी !
फ़िर तभी सूरज डूब गया !
इस बार अँधेरा
बहुत बहुत गहरा।
दिखते हैं गीत न हवा !
न महकते हैं चाँद तारे !
सजते नहीं हैं ख़्वाब भी अब।
सूनी सूनी  हैं महफिलें ,
चुप चुप हैं तन्हाईयाँ सब।
समय के भी ज्यों ,
कांटे निकल आये हैं। 
आंसुओं की  नदी के
पेटे निकल आये हैं।
मुस्कुराहटें भी
अजनबी अजनबी !
              -------------- मुखर !