Saturday, June 21, 2014

सोलह बरस की बाली उमर को.. ...                                                                        

' देख तो, ऋतेश का होगा !'
' मम्मी ! आपको कैसे पता चल जाता है किसका फ़ोन है ?'
'अरे ! ये तो श्रीकांत है ! हेलो बेटा ! कैसा है तू ? '
आंटीआपको एक बात बतानी थी !'     


उसके लहजे में पह्ले बसंत की कच्ची फुलवारी में खिली  पहली कली की महक रही थी मुझे !... 
 जिसकी किस्मत में ना खिलना लिखा था ना ही फलना !
 मगर फिर भी !                                                                               
 मैं उस कली को यों ही तो नहीँ कुचल सकती ना !                      
 मुशक़ को कब कोई मुठ्ठी कैद कर सकी कभी ?
       पह्ला बसंत है तो कभी पुरजोर बहार भी आएगी !.....               
                         

                                                                                            

'आंटी ss!'
' अभी फर्स्ट टर्म में क्या स्कोर रहा ?'
'78 % '
'सेकंड में 80% होने चाहिये !'
' जी आंटी ! '
'और उसके भी ! '
'जी आंटी ! थैंक्यू आंटी ! आप बहुत अच्छी हो ...'
'बस बस, फोन रखती हूँ '
'जी आंटी !'  

             - मुखर !  http://kavita-mukhar.blogspot.in

Thursday, June 5, 2014

' सोचो जरा ... '


तीन बजने को थे. उसके आने का समय हो रहा था. मगर आज मुझे तसल्ली थी. बेचैनी नहीं. घर के बगल में साढ़े तीन फीट चौड़े गलियारे में मैंने पूरे सड़क तक कोई पूरे अठ्ठारह गमले लगाये थे. तरह तरह की पत्तियों वाले कई तरह के पौधे. जीवन की चंद खुशियों में से ये एक थे . मगर..
मगर पिछले १५-२० दिनों में एक एक कर लगभग सारे ही जल गए. मैं कोई आसानी से हार मानने वालों में से कब थी. हर शाम एक एक पत्ती को नहला कर तरो ताजा करती. मगर दिन चढ़ते चढ़ते सारे के सारे निढाल से हो जाते. दिन दिन दुबले होते एक एक कर दम तोड़ते गए.
खिड़की पर पड़े मोटे पर्दों से आती झुलसन उसके आने की खबर दे रही थी. अपने क्रूर किरणों से वो उस आखिरी पौधे को ढूँढ रहा था जिसकी सांस कल भी बाकी रह गयी थी.
करीब डेढ़ घंटे बाद मैंने बालकनी का दरवाजा खोला तो मुझे मुस्काता देख वो कुढ़ सा गया.
क्या बात है, पीले पड़ गए ?
हाँ, आज का काम बड़ा थकाने वाला था...
सॉरी ! मैंने वो पौधा बड़े गमले की आड़ में रख दिया, तुम्हारी किरने वहाँ नहीं पहुन्चेंगी .
ओह्ह !
अच्छा एक बात बताओ , तुम्हारा नाम दिनकर है या दिवाकर ?
हहहाहा ! क्या फर्क पड़ता है, तुम तो मेरा तेज देखो !
हाँ, सो तो है ! मगर पर्यावरण भी तो कुछ चीज है ! सब ही जला कर राख कर दोगे तो हम तो हरियाली ही को...
एक्सक्यूज मी ? बड़ी सेल्फिश हो ! तुमने तो पर्यावरण अपने घर तक सिमित कर लिया ? हाँ ?
घर तक नहीं, पृथ्वी...
हाँ हाँ, एक ही बात है ! मैं तुम्हारे अकेले की बात नहीं कर रहा. मगर फिर मेरा क्या? मैं इस जगत का हिस्सा नहीं ?
हो तो , किसने मना किया ?
तो फिर हरियाली के ख़ाक होने का तोहमत मुझपे क्यों ?
एक्चुअली ...मुझे मेरे पौधे बड़े अच्छे लगते हैं. सुंदर लगते हैं. बड़ी मेहनत से साल भर में उन्हें हरा भरा करती हूँ कि गर्मी आते ही तुम सब जला डालते हो !
तो यों कहो न ! चोट तुम्हारे दिल पर लगती है और चलाने लगती हो दिमाग ? ये लडकियां भी न, बस ! अब क्या हुआ?
कुछ नहीं !
तो ये चेहरा क्यों लटका हुआ है ? दिन को तरबूज खाया नहीं क्या ?
खाया न ! तरबूज खरबूज तो मुझे बहुत पसंद हैं.
मालूम है मुझे ! और हाँ डिनर में आमरस जरूर बनाना !
तुम्हे क्या ? बोल तो ऐसे रहे हो जैसे तुम्हे इनवाइट किआ है मैंने !
अरे नहीं रे ! मैं तो तुम्हे ग्रीष्म ऋतू की और मेरी महता समझा रहा था . सोचा समझदार को इशारा काफी है ! मगर तुम तो...
ठीक है ठीक है ! मुझे बुध्दू मत कहना, कहे देती हूँ !
तो सुन लो मेरी बात. सुन भी लो गाँठ भी मार लो. ये पर्यावरण के नुक्सान, ये उजडती हरियाली, ये चिलचिलाती धूप , ये पानी के लिए किल्लत...इन सबके लिए मैं नहीं तुम जिम्मेदार हो ! तुम मतलब अब सिर्फ तुम नहीं !
मैं तो जीवनदाता हूँ !
सही कहते हो !

                                      --मुखर !