Thursday, August 28, 2014

आज फिर...
सावन के वक़्त ने भादो से एसा मुँह फेरा कि पूरा ही घूम गया . घूमा ही नहीं एक जोर की छलांग भी लगाई और आषाढ़ को फाँदता हुआ सीधे जेठ पर जा ठिठका ...
ये क्या ? गर्म पानी ? मगर गीजर तो ऑफ है। ये सूरज भी ना ! एक भी काम कभी ढंग से किया है ? सर्दियों में जब गर्म पानी चाहिये होता है तो काम से जी चुराता दूर जा बैठता विथ कूलेस्ट स्माइल !
पहले ही देर हो रही थी। तैयार होने आईने के सामने बैठी ही थी कि -
' सुनो वक़्त ! देखो जरा ! इधर, क्या है ये ? खुद तो बड़े मजे से पीछे मूड गये और मुझे आगे धकेल दिया ? हाँ ?...देखो, पिछले ४-५ महीनो ही में कितनी सुफेदी पुत गयी है मेरे केशों पर ! तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता ना, इसीलिये ! By the way , तुम्हारी उम्र क्या है ? ' अपना अंदाज बदलते हुए मैने आखिर पूछ ही डाला। 
एक अरसे बाद उसने आज मुँह खोला। और मुँह क्या खोला एक जोरदार ठहाका गूंज गया !
'अरे बताओ भी ! यों हंसी में मत टालो ! या तुम भी अपनी उम्र छुपाते हो
मैने देखा वो वक़्त थोड़ा संजीदा हो चला था। लगा कहीं वा बुरा ना मान जाये।मगर थोड़ा रुक कर वो बोला - ये वक़्त, ये उम्र, ये सावन...ये जेठ ...सsssब इंसान के दिमाग की उपज है... वक़्त कि नब्ज पर हाथ रखने कि नाकाम सी कोशिश।..अपनी सुविधा अनुसार बनाते बिगाड़ते धारणाएं ...
'धारणाएं ?
'कॉन्सेप्ट्स '
'ओह्ह ! मगर, क्या तुम अपने अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहे हो ?'
'अपने अस्तित्व पर नहीं, इंसानी समझ पर !'
'हैं ? कुछ भी ? खेर ...फटाफट सेंडल पहन दोनो चाबियाँ व पर्स उठाते हुए घड़ी पर नजर डाली - वक़्त तेजी से भाग रहा था...
ओह्ह! आज फिर देर हो गयी ! ये वक़्त आज फिर मुझसे आगे निकल जायेगा. 

                                        - मुखर !

Wednesday, August 6, 2014

' फिसलन '

मैने पत्तों के माफिक,
फैला दी थी अपनी हथेलियाँ,
बरसते बादलों को,
अपनी मुठ्ठी में ,
कैद करने की कोशिश करती !
हथेली पर सरसों जमाना सा एक खेल !
मगर,
मगर मेरे हाथ ही नहीं,
मैं भी धुलि धुलि सी लगने लगी.

गिरती थी बूंदे, और उठते थे प्रश्न् 
जाने कहाँ से तो, आती हैं ये बदरियाँ,
जाने क्यों तो बरसता है सावन ?

मौसम सुहाना सा हो रहा था।..
मैं कब टिकने वाली थी अपनी अटरिया पे ?
निकल पड़ी थी जानी अनजानी सी राहों पर...

जाने मैं चल रही थी या
मेरा मन ही भाग रहा था या
मन में विचार दौड़ लगा रहे थे,
सब कुछ ठहरा ठहरा सा,
मगर जब तब कौंधती बिजली सा तेज...

जाने फिसलन भरी थी डगर,या 
विचार ही रेशमी हो चले थे या 
फिर मेरी हथेलियाँ ही भीगी भीगी सी...
कि कुछ तो हाथ ही नहीं लगा !

मन के खाली कटोरे और
पसरी हुई हथेलियाँ उठा कर 
मैं वहीं चली आई, अपनी अटरिया पर !

आईने में चमकती दो आँखे
मुझे बता रही थी,
बता रही थी या
समझा रही थी,या
साक्षात दिखाती सी ...
कि क्यों बरसते हैं सावन और भादो ! 
                                          - mukhar !