छत पर से गुजरती उदास शाम को विदा करते हुए मैं दिनभर की गतिविधियों व अरमानों की, जिनको अभी अंकुरित होना बाकी था, पोटली बना वहीं क्षितिज की डोली पर रख लौटने लगी थी... ये सांसें खारी सी क्यों महक रही थी? शायद अश्रु आँखों से नहीं हलक से नीचे उतर रहे थे...
मैंने देखा अंधेरे की ओट से कोई चेहरा उभर कर बिना आहट मेरी पोटली उठा ले गया। असमंजस सी मैं अभी अपने शब्दों को व्यवस्थित कर ही रही थी कोई प्रश्न रूप देने के लिए कि देखा मेरे अजन्मे अरमान एक एक कर कोई श्याम सी ओढ़नी पर यहां वहां टांक दिया था। इस काली सी रात में उन तारों की रौशनी देखते ही बनती थी।
मैं रह न सकी। सोने से पहले खिड़की के पर्दे हटा उसे आवाज दी - ' ऐ, तेरा नाम क्या है ?'
'चंदा! '
यथा नाम, तथा गुण! एक दम चमा चम! नींद में उतरते उतरते उसकी आकृति मेरे चेहरे पर महसूस की। और सुबह होते होते उसकी चमक मेरे आँखों में उतर आई थी।...
ये पूरे चांद और उसकी चांदनी भी ना...गोया सूरज भी क्या राह दिखाए!
...........मुखर!
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