Wednesday, September 3, 2014

*अंजुरी *


कभी कोई एक दुख पर ही 
नहीं लिखी जाती है कोई कविता ।
बूंद बूंद रिस्ते दर्द एकत्रित करती है ,
हृदय की मेरी अंजुरी !
किसी सखाभाव की गर्माहट से
वास्पित होती कुछ बूंदे तो 
कभी अपने लगा देते हैं मरहम
उभर आये जख्मों पर !

मगर जाने कहाँ से, कैसे,
क्यों तो  कितने ही दर्द 
रिस्ते रिस्ते, रचते, बनते
बिखर जाती है पन्नों पर 
 दर्द भरी कोई कविता
या मीठी सी ही कोई रचना 
सुना है प्रेम के आंसू खारे नहीं होते।

फिर !
तूफान के बाद की शांती !
जिंदगी फिर मचलने लगती है
हौले हौले ,
और फैला देती हूँ मैं एक बार फिर 
हरीतिम हृदय की उर्वर
धुलि धुलि अंजुरी !  
                - मुखर !


Thursday, August 28, 2014

आज फिर...
सावन के वक़्त ने भादो से एसा मुँह फेरा कि पूरा ही घूम गया . घूमा ही नहीं एक जोर की छलांग भी लगाई और आषाढ़ को फाँदता हुआ सीधे जेठ पर जा ठिठका ...
ये क्या ? गर्म पानी ? मगर गीजर तो ऑफ है। ये सूरज भी ना ! एक भी काम कभी ढंग से किया है ? सर्दियों में जब गर्म पानी चाहिये होता है तो काम से जी चुराता दूर जा बैठता विथ कूलेस्ट स्माइल !
पहले ही देर हो रही थी। तैयार होने आईने के सामने बैठी ही थी कि -
' सुनो वक़्त ! देखो जरा ! इधर, क्या है ये ? खुद तो बड़े मजे से पीछे मूड गये और मुझे आगे धकेल दिया ? हाँ ?...देखो, पिछले ४-५ महीनो ही में कितनी सुफेदी पुत गयी है मेरे केशों पर ! तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता ना, इसीलिये ! By the way , तुम्हारी उम्र क्या है ? ' अपना अंदाज बदलते हुए मैने आखिर पूछ ही डाला। 
एक अरसे बाद उसने आज मुँह खोला। और मुँह क्या खोला एक जोरदार ठहाका गूंज गया !
'अरे बताओ भी ! यों हंसी में मत टालो ! या तुम भी अपनी उम्र छुपाते हो
मैने देखा वो वक़्त थोड़ा संजीदा हो चला था। लगा कहीं वा बुरा ना मान जाये।मगर थोड़ा रुक कर वो बोला - ये वक़्त, ये उम्र, ये सावन...ये जेठ ...सsssब इंसान के दिमाग की उपज है... वक़्त कि नब्ज पर हाथ रखने कि नाकाम सी कोशिश।..अपनी सुविधा अनुसार बनाते बिगाड़ते धारणाएं ...
'धारणाएं ?
'कॉन्सेप्ट्स '
'ओह्ह ! मगर, क्या तुम अपने अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहे हो ?'
'अपने अस्तित्व पर नहीं, इंसानी समझ पर !'
'हैं ? कुछ भी ? खेर ...फटाफट सेंडल पहन दोनो चाबियाँ व पर्स उठाते हुए घड़ी पर नजर डाली - वक़्त तेजी से भाग रहा था...
ओह्ह! आज फिर देर हो गयी ! ये वक़्त आज फिर मुझसे आगे निकल जायेगा. 

                                        - मुखर !

Wednesday, August 6, 2014

' फिसलन '

मैने पत्तों के माफिक,
फैला दी थी अपनी हथेलियाँ,
बरसते बादलों को,
अपनी मुठ्ठी में ,
कैद करने की कोशिश करती !
हथेली पर सरसों जमाना सा एक खेल !
मगर,
मगर मेरे हाथ ही नहीं,
मैं भी धुलि धुलि सी लगने लगी.

गिरती थी बूंदे, और उठते थे प्रश्न् 
जाने कहाँ से तो, आती हैं ये बदरियाँ,
जाने क्यों तो बरसता है सावन ?

मौसम सुहाना सा हो रहा था।..
मैं कब टिकने वाली थी अपनी अटरिया पे ?
निकल पड़ी थी जानी अनजानी सी राहों पर...

जाने मैं चल रही थी या
मेरा मन ही भाग रहा था या
मन में विचार दौड़ लगा रहे थे,
सब कुछ ठहरा ठहरा सा,
मगर जब तब कौंधती बिजली सा तेज...

जाने फिसलन भरी थी डगर,या 
विचार ही रेशमी हो चले थे या 
फिर मेरी हथेलियाँ ही भीगी भीगी सी...
कि कुछ तो हाथ ही नहीं लगा !

मन के खाली कटोरे और
पसरी हुई हथेलियाँ उठा कर 
मैं वहीं चली आई, अपनी अटरिया पर !

आईने में चमकती दो आँखे
मुझे बता रही थी,
बता रही थी या
समझा रही थी,या
साक्षात दिखाती सी ...
कि क्यों बरसते हैं सावन और भादो ! 
                                          - mukhar !

Tuesday, July 15, 2014

बेज़ुबान रिश्ते




आज एक मुद्दत बाद जा रही थी मैं उससे मिलने ! जब से यहाँ शिफ्ट हुई हूँ, फुर्सत भी तो नही मिली पल भर की ! क्या कुछ नही गुज़रा इस बीच मुझ पर ! एक एक कर सब बताऊंगी उसे. दिल की सब भडास निकालूंगी ! जब भी हम दोनों मिल बैठते हैं या तो खूब रोते हैं या फिर खूब हँसते हैं ...
और फिर जाने उस पर ही क्या बीती होगी ? वक्त भी तो बडा बेदर्द हुआ जाता है आज कल !
जाने किन उधेड़बुन में मैं कब पुरानी वाली कॉलोनी पहुँच गयीं थी...पता ही नही चला ! मगर उसे मैंने इधर उधर सब तरफ़ देखा...नही मिली मुझे !
 
यहीं , हाँ, ठीक यहीं तो थी ! आअह ! वही हुआ, जिसका मुझे डर था ! मुझे नही, उसे ! तभी तो उसने कहा था, 'शायद ये अपनी आखिरी मुलाकात है !
मैं जरा आगे जा कर पार्क के बाहर गाडी लगाई और अन्दर जा कर एक बेंच पर बैठ गयी !
पिछले बरस, कोई 12 अगस्त की बात है. लगभग सारा समान पैक कर चुकी थी. रात के खाने से निपट कर रोज़ की तरह मैं गली में टहलने निकली थी ! वह गली कच्ची ही थी...लहराती पगडांडी सी. जाने वो पूरे चाँद की रात का जादू था या क्या कि वह पगडन्डी मूर्त रुप ले मुझसे लिपट गयी . और किसी पक्की सहेली की तरह रोने लगी. उसे हाथ पकड़ मैंने वहीं पेड़ के नीचे दरख़त पर बैठाया और जगह बना कर मैं भी वहीं उससे सट कर बैठ गयी!
'क्या हुआ ?'
'कल मुवर्स एन पेकर्स वाले रहे हैं ना ? आज मेरी तुम्हारी आखिरी मुलाकात है ना ? तुम भूल जाओगि हमें ? मगर हमें तो बहुत याद आओगी तुम.'
'नही नही, मैं इस कोलोनी को, इसके बासिंदो को, तुम सबको कभी नही भूल सकती ! ' उससे बात करते करते मेरी निगाह गली के छोर पर चली गयी, वो आज भी वहाँ छत पर से मुझे झांक रहा था ! मेरी नज़रें झुक गयी !
पगडन्डी ने देखा वो चाँद था ! वो हंस पड़ी !
'अरे वो...वो तो तू जब भी आती है ना, यहाँ टहलने, वो भी जाता है कभी किसी छत पर, कभी किसी छज्जे पे, कभी उस ऊँचे पेड़ की फुनगी पे तो कभी गली के अन्तिम छोर पर...तुझे भी अच्छा लगता है ना वो, बोल तो ?'
 बात बदलते हुए मैंने कहा - 'मैं तो ननकु , किट्टी, चुनचुन का सोच रही थी. बहुत मिस करूँगी मैं उन सबको ! और रट्टू तोते ने तो आना ही छोड़ दिया है कितने दिनों से मेरे यहाँ !
अरे ! तुझे ख़बर नही. वो मोटा , सबसे लास्ट वाली गली के कार्नर वाले मकान के ओनर, उन्होंने उसे कैद करके पिंजरे में डाल दिया !
"ओह्ह ! तभी !...तभी मैं सोचूँ कि सब तो आते हैं ...सबको रोटी, दूध, चारा, दाने डालती हूँ ...मगर बिना रट्टू तोते के दिन कैसा तो अधूरा सा लगता है...
'तुम भी ना ! बेजुबानो ही से बतियाति हो ना ? ...'
'ह्म्म्म...'
मैं महसूस कर रही थी हमारे पीछे  कतार में खड़े छोटे, बूढे, जवान सभी पेड़, हमारी तरफ़ पीठ किए मगर पूरी तरह हमारी बातों पर कान धरे मौन खड़े थे ! हमारी बातों से सुलगती हवा उन्हें भी तपा रही थी ! यदा कदा जब दो भारी से मन से माहौल भारी हो जाता तो हवा ठहर जाती और वे वृक्ष भी दुखी से नत मस्तक हो जाते...मैंने कनखियों से देखा उस चाँद का भी चेहरा  लटक गया था !
' बहुत रात हो गयी है , अब मुझे चलना चाहिए !'
'सही कहती हो तुम, मगर जाते जाते एक बार गले लग लो, शायद ये हमारी आखिरी मुलाकात हो !'
'तुम भी ना, कुछ भी ? आती जाती रहूंगी ना मैं  ! '
'अरे जाओ, उस पॉश कोलोनी में जहाँ चौड़ी सड़कें, हर थोड़ी सी दूरी पर चमचमाती लाइट और अपार्टमेंट की बीजी लाइफ में एसे मगन हो जांओगि कि हम जैसों के लिए ना तो वहाँ जगह होगी ना ही तुम्हे हम याद आएंगे !'
'देखते हैं '
'देख् लेना ! ...अच्छा सुन तो ... '
' जाने भी दे, देर हो रही है. अच्छा ठीक है जल्दी बोल, क्या बोल रही थी !'
' सुना है वो भी वहीं जा रहा है ' - उसने आँखें मट्काते हुए कहा
' वो कौन ?'
' वही ' उसने आसमान कि तरफ़ इशारा करते हुए कहा !
'धत् ! ' और मैं घर की और दौड़ पड़ी !
पीछे से सभी ही की  देर तलक कहकहे लगाने की आवाज़ आती रही थी !
.......
और सचमुच ही, घर के जरूरी सामान देर तक जमाते, नहा धो कर खाना बना कर खाते इतनी देर हो गयीं थी कि मैं थकी सी बाल्कोनी में जा बैठी . कि देखा दूर् किसी अपार्ट्मेंट की छत पर से वह झांक रहा था !... एक सुकून सा आ बैठा दिल में...सारी की सारी थकान काफूर हो चली थी !....
....
...और आज क़रीब साल होने में बस महीना भर ही तो रह गया है ! इतने समय में यहाँ जैसे दुनिया ही बदल गयीं थी ! ना कोई खाली प्लोट, ना कोई हरियाली...मुझे याद आया कैसे उस बड़े से खाली प्लॉट पर अकसर मोर   जाया करते थे. कितने ही प्रकार के पक्षियों के तो हमने फोटो अपने कैमरे में कैद किए थे. इन पक्षियों को सिर्फ़ दाना पानी ही थोड़े ना चाहिए होता है ? हर एक वृक्ष ऎसे जीवन चक्र के लिए कितने कितने जतन करते हैं !
जीवन चक्र टूट गया था ! रत्ती भर भी कोरी जमीन ना दिखाई पड़ती थी कि बारिश का अमृत धरती का सीना सींच सके।...कि जीवन देने वाले वृक्ष की जड़ें सांस ले सके..... छोटे बड़े झाड़ियों पेड़ों को काट कर ऊँची ऊँची इमारतें और चौड़ी चौड़ी सड़कें बन गयीं थी.
और वो पगडन्डी भी ऐसी ही एक सड़क के नीचे दफन थी !...विकास की ललक ने वो पगडंडी निगल ली थी।... जीवन चक्र टूट रहा था ...
मैं चाँद का दामन थामे लौट रही हूँ अपने नए घर को... मेरा मन बहुत उमड़ घुमड़ रहा है...जाने सावन इस बार इतनी देर क्यों लगा रहा है ? नहीं तो सबको पता लग जायेगा...
पता लग जायेगा कि मैं रोती भी हूँ !
                                        मुखर !