Friday, February 17, 2012

Love In The Air..

"लव इन द एयर "
सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार ले बैठी थी की पढ़ा 'लव इन द एयर' . मन ही मन बुदबुदाई की अब क्या हो गया?  प्यार हवा हो गया ? वो तो कब का हो गया जी !  करियर oriented  माँ बाप को बच्चों  के लिए वक़्त नहीं.  बूढ़े हो गए माँ बाप के लिए बच्चों के पास 'टाइम' नहीं.  प्यार क्या ख़ाक खा कर सीखेंगे? बस हवा में ही हाथ चलते हैं...
फिर सोचा मैं नींद में तो नहीं...ध्यान से फिर पढ़ा . उसमे लिखा था - 'लव इन द एयर'.  हाँ, सही ही कहा - लव इज एज  थिन एज  एयर. बेचारा malnutritious  हो गया. आज कल कि हवा ही कुछ ऐसी है कि कच्ची उम्र ही में लग जाता है नमक इश्क का ...और इस उम्र में ज्यादा नमक हड्डियों को गला देती है...और फिर बिना अनुभव की आंच दिए कच्चा पक्का ही परोस दिया जाता है ये इश्क...बच्चों में सब्र भी तो नहीं...फिर इश्क ही को कहाँ मालूम सब्र? ...लेने वाला भी contaminate हो जाता है, इम्मुनिटी कहाँ इतनी स्ट्रोंग है इन बच्चों कि? फिर मुझे लगा, मैं चालीसी के पहले ही में सठिया रही हूँ , बिना ठीक से पढ़े ही मिमिया रही हूँ...और काहे को भला इस विदेशी भाषा कि टांग तोड़ रही हूँ ..आयातीत  त्यौहार है ...इम्पोर्टेड है...एलोपेथी ही कि तरह चुटकी ही में असर करती होगी...चश्मे के बगैर कुछ सूझता भी तो नहीं. हो सकता है  एयर में वाकई लव हो...ये कहानी तो अब हमसे आधी उम्र वालों को belong करती है. अब हमे इस प्रोढ़ अवस्था में  प्यार -व्यार तो क्या ही सूझेगा...सुहानी बसंती हवा तक तो हड्डियों को कंपा जाती है...और भरोसा नहीं इम्पोर्टेड चीज के कुछ साइड इफेक्ट्स  हुए तो? सोचते सोचते अभी  पन्ना पलटा ही था पढ़ कर एकदम सन्न ही रह गए ..हाथों से चाय पेपर ही पे छलक गयी...किसी ने अपने 'लव' को लटका दिया था...हवा में...
मेरी ये हालत देख कर मेरे लव ने कहा क्यों सुबह सुबह इस नामुराद अख़बार में सर खपाती हो, लो मैं तुम्हारे लिए एक और चाय बना लता हूँ.  साहब तो गए किचन में , और मैं बगीचे में फूलों और चिड़ियों की चहचहाहट के बीच वाकई  'लव इज इन द एयर' महसूस करती हूँ ...
पड़ोस की मिसेज वर्मा से कहा,-कितना सुहाना मौसम है न बसंत का, आपका valentine कहाँ है ? उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया - मैंने तो बीरबल की खिचड़ी की तरह अपने लव को दूर हवा में लटका रखा है, और दूर से आती भीनी भीनी महक से ही खुश हूँ...is love still in the air? or gone with the wind?

Saturday, February 11, 2012

"अबला"



 - ५ फरवरी २०१२- जयपुर, एक लड़की रेल से कट कर मर गयी. वह आगे आगे भाग रही थी और चार लड़के पीछे थे....
  "अबला"
अच्छा हुआ वह मर गयी,
क्योंकि अगर,
वो आज नहीं मरती,
तो रोज रोज ही मरती,
पल पल मरती,
तिल तिल मरती,
अपनों के 'हाथो' मरती,
रिश्तो के 'हाथो' मरती,
अपने खुद के मूल्यों,
संस्कारों के हाथो मरती.

किसने बनाये ये मूल्य?

किसने दिए ये संस्कार?
ये कौन 'अपने' हैं?
ये कैसे 'रिश्ते' हैं?
किस जुर्म की सजा मिली?

और आखिर क्यों?

क्योंकि वो स्त्री है?

सच कहते है वो-

की स्त्री अबला है!
की स्त्री मूर्खा है!!
गर अबला न होती,
गर मूर्खा न होती,
क्यों ढोती झूठे मूल्य,
क्यों ओढती 'कू' संस्कार  ?

क्यों वो अपनी बेटी को,

सिखा पढ़ा कर,
'चरित्र' का पाठ,
गढ़ देती है एक
कांच की गुडिया ,
जो उठी एक ऊँगली भी
तोडना तो दिगर,
सह भी नहीं पाती,
और समाज की बेदी पर
हो जाती है होम...


वो तो चली गयी,

रोज ही जाती है,
कितनी ही जाती हैं,
पर स्त्री के आँचल में अब भी,
झूठे मूल्य, झूठे संस्कार,
 कौन कितने 'अपने' हैं
ये  कैसे  'रिश्तेदार',
और बेदर्द समाज,
एक बोझ बने पड़े हैं
एक प्रश्न बने खड़े हैं !

हाँ स्त्री मूर्खा है !

हाँ, स्त्री अबला है!!

                  - मुखर