यह सालाना घटना है. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते पलटते जब जब इस आषाढ़
सावन के मोड़ पर पहुँचने को हुई, उठकर पहले सभी खिड़की दरवाज़े की चिटखनियां
चढ़ा दिया करती हूँ. किसी भी प्रकार के उत्सवी कोलाहल से दूर। हो सके घर के
वृत्त के भीतर के बाशिंदों से भी विलग कुछ अकेलेपन में कुछ गहरे में या
शायद कुछ दार्शनिक अंदाज में यह सोलह जुलाई का पन्ना कुछ यों पलटना चाहती
हूँ कि बस पंद्रह के बाद सीधे सत्रह ही की सुबह हो।
मगर इस बार तो अपने ने और अपनों ने जैसे कसम ही खाई हो चारदीवारी सब गिराएंगे आसमां कितना बड़ा है दिखाएंगे। थकान मिटाकर जब इस आभासीय दुनिया में झाँका तो पता लगा :-
इस आसमां का किनारा
दिखता तो है, होता तो नहीं।
किसको अपना कहुँ किसे पराया ,
ये दिल जानता नहीं, मानता भी नहीं !
- मुखर
मगर इस बार तो अपने ने और अपनों ने जैसे कसम ही खाई हो चारदीवारी सब गिराएंगे आसमां कितना बड़ा है दिखाएंगे। थकान मिटाकर जब इस आभासीय दुनिया में झाँका तो पता लगा :-
इस आसमां का किनारा
दिखता तो है, होता तो नहीं।
किसको अपना कहुँ किसे पराया ,
ये दिल जानता नहीं, मानता भी नहीं !
- मुखर
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