Saturday, February 11, 2012

"अबला"



 - ५ फरवरी २०१२- जयपुर, एक लड़की रेल से कट कर मर गयी. वह आगे आगे भाग रही थी और चार लड़के पीछे थे....
  "अबला"
अच्छा हुआ वह मर गयी,
क्योंकि अगर,
वो आज नहीं मरती,
तो रोज रोज ही मरती,
पल पल मरती,
तिल तिल मरती,
अपनों के 'हाथो' मरती,
रिश्तो के 'हाथो' मरती,
अपने खुद के मूल्यों,
संस्कारों के हाथो मरती.

किसने बनाये ये मूल्य?

किसने दिए ये संस्कार?
ये कौन 'अपने' हैं?
ये कैसे 'रिश्ते' हैं?
किस जुर्म की सजा मिली?

और आखिर क्यों?

क्योंकि वो स्त्री है?

सच कहते है वो-

की स्त्री अबला है!
की स्त्री मूर्खा है!!
गर अबला न होती,
गर मूर्खा न होती,
क्यों ढोती झूठे मूल्य,
क्यों ओढती 'कू' संस्कार  ?

क्यों वो अपनी बेटी को,

सिखा पढ़ा कर,
'चरित्र' का पाठ,
गढ़ देती है एक
कांच की गुडिया ,
जो उठी एक ऊँगली भी
तोडना तो दिगर,
सह भी नहीं पाती,
और समाज की बेदी पर
हो जाती है होम...


वो तो चली गयी,

रोज ही जाती है,
कितनी ही जाती हैं,
पर स्त्री के आँचल में अब भी,
झूठे मूल्य, झूठे संस्कार,
 कौन कितने 'अपने' हैं
ये  कैसे  'रिश्तेदार',
और बेदर्द समाज,
एक बोझ बने पड़े हैं
एक प्रश्न बने खड़े हैं !

हाँ स्त्री मूर्खा है !

हाँ, स्त्री अबला है!!

                  - मुखर 

2 comments:

sanju said...

awesome.....bilkul sahi likha hai ke kab tak in dhakosalo ko kandha dete rehegi....stri

Mukhar said...
This comment has been removed by the author.