Tuesday, December 26, 2023

अपनी जमीं, एक लघुकथा

 एयरफोर्स कैंटीन से महीने का राशन ले कर लौट रहा था महेंद्र । देव की थड़ी पर अनुज मिल गया। उसके लैंब्रेटा के बगल ही में अपनी येज़्दी खड़ी कर वह भी एक उल्टे पड़े कनस्तर को खींच कर बैठ गया। अनुज कुछ उखड़ा उखड़ा लग रहा था। 

" वही ! मां की चिट्ठी आई है। पिताजी बीमार चल रहे हैं ।"

"ओह्ह !" थोड़ी चुप्पी बाद महेंद्र ने तसल्ली देने की कोशिश की, "तू निश्चिंत हो कर जा, हम यहां देख लेंगे बच्चों को।"

"चले तो जाएं, मगर इन दिनों बंद है मुनाबाव की ट्रेन !"

"में तो भूल ही गया था ।" चाय के गिलास से सुड़की मार वह बोला, "वे लोग आ क्यों नहीं जाते यहां ? तेरे भारत आने के बाद तो दूसरा युद्ध भी हो गया हमारा पाकिस्तान से ! क्या धरा है उस दुश्मन देश में ।" महेंद्र रौ में कह तो गया । लेकिन वह जानता है यह सब इतना सरल नहीं है। एक बड़े भूखंड को किन्हीं राजनेताओं ने दो देशों में बांट दिया तो इसमें दो दिलजान पड़ोसी कैसे दुश्मन हो गए ?

"यार पीढ़ियों से रहते आए हैं हम लोग वहां । अपनी जन्मभूमि को छोड़ यहां मैं कैसे रह रहा हूं वह मैं ही जानता हूं ।" अनुज ने खाली गिलास सामने रखे टायर पर लकड़ी का फट्टा रख बनी मेज़ पर रख दी। 

"अब उन्हें वह मोह त्यागना ही होगा दोस्त !"

"हम्म्म …"

"कल को शिखा का ब्याह करेगा तो नहीं आवेंगी, बता ?"

"वह तो बहुत दूर की बात है।" उसने एक उसांस छोड़ी। बात बदलते हुए उसने कहा, "तू बता, सब बढ़िया ?"

"कहां यार ! उदयपुर वाले घर के पड़ोस में चोरी क्या हुई एकदम डर बैठ गया।"

"आंटी अंकल कहां हैं? "

"वहीं हैं और क्या ! न नरेंद्र भैया के पास अहमदाबाद जाने को तैयार और न यहां जयपुर ही आते हैं।"

"अब सारे रिश्तेदार, जान पहचान वालों के बीच उनका मन लगा रहता है। जिस घर में दशकों रहे उससे मोह भी तो नहीं छूटता ना !"

महेंद्र बोले जा रहा था और अनुज भौंचक उसे देखे जा रहा था। 


#लघुकथा 

#Mukhar 

10/9/23