Tuesday, July 31, 2012

'अबकी  सावन '
न  मेघ, न मल्हार,
न फुहारों की ताल,
अबकी  सावन
खाली हाथ आया !
क्यों नहीं गौरैया
मिटटी में नहाती है ?
कौन सा टोटका करूँ,
जिससे बारिश आती है !
वह जाते जाते
ड्योढ़ी पर ठिठक गया
और मेघों का काफिला
क्षितिज  पर अटक गया.
मूंह  पर छींटे  मार
मुझे  चिढाया , सताया !
निर्दयी वहीँ  खड़ा खड़ा
मुझ पर हंस रहा !
मैं धरती की संतान,
मन में आस का गुबार,
और आँखों में पानी लिए,
उसका हाथ थाम लेती हूँ !
मेरे पहुना,
मेरे मन भवन
मेरे सावन
न जाओ
दिखाने के लिए ही
अगर जाना है, तो जाओ
मगर कसम  है  तुम्हे
नाम  बदल  कर ही
भादो  बन कर ही
वापस आ  जाओ !
मैं उसे मना  रही हूँ
भादो बन कर आना  !
देखो , खाली हाथ न आना
खूब खूब अमृत लाना
रिमझिम  प्यार  बरसना !
सुनो - धरती दरक  रही,
फसल  सूख  रही,
दिलों  से  उमीदों की
सांस  उखड  रही,
क्योंकि  अबकी   सावन
खाली हाथ आया.
                    - मुखर

Friday, July 27, 2012

"मेरा तोहफा? - 'स्त्री-मान'"
सावन का महिना है. भले ही इस बार सावन सूखा सूखा है. मगर लहरिया पहिने हर महिला रिम झिम फुहार सी चंचल हो चली है. सबका एक ही नाम हुआ जाता है - 'बहन' ! दौड़ लगी है बाज़ार में झम झम. दुकाने भी सज धज गयी है चमाचम्. खुशदिल माहौल है . आने वाली पूनम को राखी जो है भई ! मैं भी आँखें मूँद कर उस पावन दिन की रौनक में खो जाना चाहती हूँ... बागों में, बाज़ारों में, घरों में गलियों सडकों पे सिनेमा हॉल में जहाँ देखो वहां कोई मरदाना कलाई सूनी नहीं है आज. सभी किसी न किसी के गर्विले भाई हैं. सबके पेशानी पर बहन के हाथ का सजा तिलक लहक रहा है. चेहरे का तेज बता रहा है की वे अपनी बहन के मान सम्मान के ताउम्र रक्षक हैं. तभी ख़याल कौंध जाता है पिछले वर्ष में अखबार में छपी इतनी ख़बरों में अपने देश कि स्त्रियों पर होते अत्याचार करने वाले कौन मर्द थे ? कि किसी गैर स्त्री को देख कर इन्ही मर्दों के अंदर का वो तेज, वो गर्व, वो रक्षक वो भाई क्या मर जाता है ? या डरावना हो जाता है या डरपोक हो जाता है ? - एक बहन ( मगर एक स्त्री पहले)

Sunday, July 15, 2012

काला – सफ़ेद

काला – सफ़ेद
चले  जाओ  यहाँ  से ,
 वरना  मुंह   काला  कर देंगे !
 (TO WOMEN JOURNALISTS, AT A SEMINAR)
हमारा  काला  करोगे  तो ,
 तुम्हारा  क्या  सफ़ेद  रह  जायेगा ?

क्यों  उनका  काला  भी 
समाज  को  काला  नज़र  नहीं  आता ?
और  इनका  झक्क  सफ़ेद  भी 
दागदार  दीखता  है !
शूली  पर  चढ़ता  है ?
क्यों  रेल  इंजिन से ,
 कट  के  मरने  वाली  लड़की ,
आगे  आगे  भाग  रही  थी ,
और  पीछे  चार  लड़के ?
 (5th February ’12-jaipur)
क्या , कैसा , किसका  डर  था 
 उसके  मन  में ?
और  उनके  दिल  दरिन्दे ?
भाग  के  उसने  क्या  बचा  लिया ,
क्या  गवां   दिया ?
जिंदगी  क्यों  इतनी  बेमानी  हो  गयी ?

वो  जब  बच्ची  थी
बड़ों  ने  कहा , परायों  पास  न  जाना 
हर किसी  से  बात  नहीं  करना .
वह  परायों  से  सहमने  लगी .
वक़्त  के  साथ  प्रश्न  उठने  लगे -
किसका  फ़ोन  था ?
क्यों  आया  था ?
 वो  कौन  था ?
सही  नहीं  है  जमाना ,
और  तुम  भोली !
धीरे  धीरे 
उसका  मिश्री  सा  मीठा  मन
करेला -नीम  हो  गया !!
हर  मुश्कुराहट को  अब ,
शक्की  नज़रों  से  देखती  है .
हर  मुलाकात  को ,
साजिस  समझती  है !
सब  अनजाने  उसे ,
दरिन्दे  लगते  हैं ,
हर  आँख  में  वह ,
वहशियत  पढ़ती  है  !!

वो  भी  जब  बच्चा  था
‘तू  तो  लड़का  है ’
का  दंभ  लेता  गया .
हर  घटना , कहानी , किस्सा 
‘तेरा  कुछ  नहीं  बिगड़ता ’
उसको  कहता  गया !
ले  जिंदगी  के  'मजे' .
तेरे  लिए  ‘सब ’ जायज  है !
धुआं , दारू  और  'दिल'  का ,
जो  ‘कारनामे ’ करते  हैं ,
वही  ‘मर्द ’ कहाते  हैं .
बाज़ार  में  बिकता  हुस्न ,
अब  बाएं  हाथ  का  खेल ,
 चाहे  देख  लो टीवी ,
ढूँढो   नेट  पे ,
या  टटोलो  अपने  सेल !

नतीजा  क्या  हुआ ?
सुनसान  राहों में ...
रात  के  अँधेरे  में ...
या  फिर  अकेले  में. ..
वो  भेड़िया  बन  जाता  है !
वो  बकरी  सी  मिमियाती  है  !
क्यों ? आखिर  क्यों ?
जुर्म  वो  करता  है ,
सजा  वो  पाती  है ?
एक  उसी  कर्म  से ,
वो  'मजे ' लेता  है !
मुस्कुराता है,
जिंदगी  की  ख़ुशी  कहता  है !
वो  लांछन  पाती  है !
और  जान  गंवाती  है  !!
क्या  दोनों  ने  नहीं  खोया ?
ये  इसके  उसके  दिमाग  में
समाज  ने  कैसा  बीज  बोया ?
 
ये  दो  आयाम ,
द्वि अर्थी  संस्कार ,
कब , किसने , कैसे  बनाये ?
और  कैसे  जन  जन  की  आत्मा  में ,
इन्हें  इस  कदर  है  बसाये ?
एक  अनकहा   कानून ,
वो  अँधा  कानून ,
समाज  को  रौंद  रहा !
धरे  हाथ  पे  हाथ ,
खड़ा  मौन  मानव  रहा  !!

क्या  जो  लड़की  ख़ुदकुशी  कर गयी ,
उसका  भाई  आज  खुश  है  ?
उसका  पिता  आनंदित  है  ??
क्या  उसके  परिवार  में  कोई  पुरुष 
इस  दर्द  को  बिसरा  सकेगा ?
चाहे  पुरुष  हो  या  महिला 
उस  घर  हर  एक  दिल  में 
एक  अँधा  कुआँ  खुद  गया …
और  हमेशा  के  लिए
 वक़्त  जैसे  रुक  गया …

वो  खूबसूरत  दुनिया ,
वो  नादान  बचपन ,
जाने  कहाँ  खो  गया !
युवा  का  जहां ,
दो  हिस्सों  में  हो  गया !!

वो  बचाए  छिपती  है ,
वो  ढूढता  फिरता  है .
जाने  क्या  बेचती  है ?,
जाने  क्या  खरीदता  है !!
क्या  दोनों  नहीं  पाते?
या  दोनों  नहीं  खोते ?

फेरों  से  पहले  जो  खेल ,
उसे  ले  डूबता  है .
पहली  रात  के  बाद ,
वो  लजाई  आँखों  से ,
गुलाबी  गालों  से ,
सबको  बयां  होता  है !
तब  आखिर  क्या  खोया  था ?
अब  आखिर  क्या  मिल  गया ?

वो  जब  बड़े  हो  रहे  थे ,
काश  ऐसा  होता ,
न  उन्हें  गुमान  होता ,
कि   वह  ‘लड़की ’ है ,
कि  वह  ‘लड़का ’,
इस  जहां  में ,
बस  इंसान  बसता .
शायद  फिर ,
वो  हर  लड़के  में ,
सच्चे  प्यार  को  पाती ,
वो  हर  लड़की  को ,
मान , बहन , बेटी  या  दोस्त ,
कह  कर  आदर  देता .

न  कोई  लूटता , न  लुटता 
 हर  सफ़ेद , हर  काले  में .
बराबर  के  भागी  होते .
काश  के  हम 
थोड़े  ‘सामाजिक  ’ होते  !!
                           - मुखर

Monday, July 2, 2012


    " खिड़की"

बंद  कमरे और मोटे मोटे परदे  पड़े खिड़की से मन घबरा गया था . मैं उकता गयी  थी . कूलर भी तो न बस! राहत देने का तो नाम नहीं और शोर इतना की पूछो मत...सर दर्द हो जाये...ये गर्मियों की दोपहरी भी तो जाने कितनी लम्बी होती है ! कोई आखिर कितना टी.वि देखे, मैगजीन पढ़े ? किट्टू भी तो बस चाची के यहाँ क्या गया आने का नाम ही नहीं. मैं भी तो इनकी बातों में आ कर कुछ प्लान नहीं कर पाती. अगली बार तो कसम है मुझे जो इनकी झूठी वादों में आई ! पता नहीं ये गर्मी, पसीना, शोर है या अकेलापन...आखिर क्या अखर रहा है मुझे ?
कूलर ऑफ कर पार्क की और खुलने वाली खिड़की खोल ली | देखा, पेड़ो पर से नीचे उतर आई हरियाली पीली पड़ पृथ्वी पर पसरी पड़ी थी | दोपहरी की आषाढ़ी धूप से धूज कर जीवन हलचल कहीं दुबकी हुई थी...सांय सांय साँस लेता था सन्नाटा | बस किसी टिटहरी की उन्हुहूँ उन्हुहूँ  या तो दूर चलते कमठे की ठक ठक |
जिस चिलचिलाती धुप में चिड़िया भी पर न मरती हो...कुल्फी वाले को सड़क नापते देख उसके टन- टन के साथ एक गीत जहन में उभरा - तुझको चलना होगा...

देखते ही देखते या यूँ कहें सुनते ही सुनते  धुन बदल गयी | कमठे पर पत्थर तोड़ते और रेत की ढेरी पर खेलते उनके कुछ अधनंगे से बच्चे कुल्फी वाले को घेर कोलाहल करने लगे...
तभी कहीं कोई कोयल कूक उठी | जीवन के कानों में अमरस घोल गयी | आसमान में होड़ लेते थे सूरज से दो चटकीले चोकोर | पसीने से तर किशोरों के बदन को कभी गर्मी लू लगी है ?
ध्यान से देखा दूर नीम के दरख़्त के पीछे बेंच पर दो जोड़ी हाथ एक दुसरे को थामे कॉलेज की क्लास बंक कर रहे थे !
कौन है देखने की जिज्ञासा में मैं पार्क में खुलती अपनी खिड़की पर कुछ ज्यादा ही झुक गयी थी की एक मोटी सी बूँद मेरे नाक पर पड़ी | झरोखे पर बैठे किसी कबूतर की आशंका कर अभी इधर उधर
नजर दौडाई ही थी कि कुछ और बूंदे आस पास गिरी और सौंधी सी महक उठी. मेरा मन मयूर भी नाच उठा. कलेंडर देख ही रही थी कि फोन कि घंटी बज उठी - 'मम्मी, शाम कि बस से घर पहुँच रहा हूँ, बस स्टैंड - पुराणी चुंगी पर लेने आ जाना. '
'हेलो, कहाँ बीजी रहता है तुम्हारा फ़ोन? '

"तुम भी कमाल करते हो, किट्टू से बात कर रही थी और कहाँ बीजी हो सकती हूँ . तुम बोलो क्या बोल रहे थे ? '
' हाँ, मैं भी वही कह रहा था | किट्टू के स्कूल से फोन आया था. छुट्टियाँ बढ़ गयी हैं | सामान पैक कर लेना, ३-4 दिन रणथम्बोर  चल के आते हैं. बुकिंग करा ली है मैंने. "
केलेंडर में देखा - तीन दिन बाद सावन लग रहा है...टप .. टप ..टिप.. टिप ....