Tuesday, July 5, 2016

* किस्सागोई :-




आज जो हम संगीत सुनते हैं वह वहां तक किन संकरी गलियों से होकर गुजरा, कभी किन ऊंचाइयों को छुआ किया और कभी किन मैदानों पर पहुंच मद्धम पड़ गया कभी सोचा है ? इन्ही में से एक राह की पड़ताल है "कोठागोई"
गूगल प्लस पर सर्फ करते, पढ़ते एक प्रोफाईल पर पहुंची – प्रभात रंजन। नाम तो बहुत जाना पहचाना लगा। शक्ल भी। टाईमलाईन पर पहुंचते पहुंचते याद आ गया, अरे ! कोठागोई ! इन दिनों यही तो किताब पढ़ रही हूं । कि देखा उन्होंने कवर भी वही लगा रखा है। फटदेनी अपने सर्कल में जोड़ लिया उन्हें ।
JLF के मंच से उस पन्नाबाई, जो एक गुमनाम जिंदगी जीने के वास्ते लंडन जाकर बस गई, के लिए अपनी मुहब्बत का ऐलान करना । कुछ समझ नहीं आया लेखक जी । मार्केट स्ट्रेटेजी ?
मगर आपको बता दें आपकी किताब एकदम फर्स्ट क्लास ! बड़की पन्नाबाई के बैठी परंपरा से लेकर चुम्मन मियां के बम्बई के बीयर बार में नाचने का प्रस्ताव पाने वाली चंदारानी तक का लेखाजोखा ! वही चंदा रानी जिसके एक प्रसिद्ध गीत ‘मुन्नी बदनाम हुई’ में थोड़ा फेरबदल कर मलाइका अरोड़ा पर फिल्माया गया और रातोंरात हर एक की जुबां पर चढ़ भी गया। गजब का कैची सॉंग ¡
किताब की एक खासियत इसकी लेखन शैली है। खासकर मुझ जैसों के लिए जो कभी चौपाल, चाय की थड़ी पर नहीं बैठी और ना ही दादी नानी के संग किस्से कहानियों का लुत्फ उठा सकी। पढ़ते पढ़ते बस ऐसा फ्रेश महसूस होता है कि किसी से गप्पें हांक रहे हैं । एकदम टंच
पता है, पिछले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उनका सेशन अटेंड किया था तो लगा इनकी किताब खरीदनी ही पड़ेगी, कुछ अलग हटकर पढ़ना है । ये क्या कि हमेशा फिक्शन या फिलोसोफी। मैं हर साल इस साहित्य मेले से कुछ किताबें खरीद लाती हूं। साल भर का दाना पानी ।
हां तो बात शुरू हुई थी गीत संगीत के जियादा दूर नहीं तो नजदीक के इतिहास में अपने नजरिए से झांकने से। एक वो समय था जब राजा महराजा शिल्प कला, भवन निर्माण,गीत संगीत, किस्से कहानियां, कसीदे, बुनकर और न जाने क्या और क्या नहीं, सब ही प्रकार की संस्कृति को संजोते, प्रोत्साहित करते। काल का क्या, कभी ठहरा तो नहीं। राज्य भी छोटे छोटे टुकड़ों में बंटते गए । उधर कला भी कई हाथ, कई कंठ बदलती चली। अब उस जमाने में हर बात का तो लेखा जोखा समेटना संभव तो था नहीं।बाकी सब कलाएँ तो भौतिकी प्रमाण बनती जाती हैं मगर गीत संगीत , किस्से कहानियाँ , नाटक नौटंकी ? तो बहुतेरे गीत संगीत, किस्सा कहानियां मुंहामुहीं पीढ़ी लांघते रहे। जमींदार सामंत भी अपने अपने स्तर पर मनोरंजन व शान-ओ-शौकत ख़ातिर कला के पारखी रहे । अठ्ठारहवीं शताब्दी तक आते आते सामाजिक परिदृश्य कुल बदल गए थे। किन्हीं गांव कस्बे में कोई मंदिर में गीत-भजन मंडली का प्रचलन भी जोर मारने लगा था। कनरसिया व गुणवंति जनों का मान था कि अपने अपने प्रासादों, हवेलियों में नामकरण, जड़ूले, शादी ब्याह के मौके पर संगीत के कार्यक्रम रखा जाने लगा। उस जमाने में गीत संगीत की बहुत महिमा थी। हां बहुसंख्यक आम जनता , निम्न व मध्य श्रेणी जनों के कानों तक बस उड़ती उड़ती खबर ही पहुंचा करती थी जो हर जबां का नमक समेटे हुए कुछ और वैभव, कुछ ज्यादा ही चटख-दमक लिए होती थी। अंग्रेजों द्वारा जब ज्यादातर तो क्या लगभग सारे ही राज हड़प लिए गए तो जागीरदारों व सामंतों के शान में भारी कमी आ गई। वे और छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गए। जिन गायकों ने इनाम इकराम में मिली जमीन जायदाद को संजो लिया उन्होंने अपनी हवेली , कोठे तैयार कर लिए थे। गीत संगीत विभिन्न घरानों से चलकर नखलऊ, सीतामढ़ी, मुजफ्फरनगर का चतुरभुज...कहां कहां नहीं बसने लगा। कहते हैं उस जमाने में ऊँचे घरों की लड़कियों को गीत संगीत में पारंगत होना फैशन था। सितार, वीणा, पेटी (हारमोनियम), तानपुरा बजाना, और वोकल लगभग जरूरी गुणों में से थे। शादी के लिए जब लड़की देखने जाते तो उसके मीठे कंठ या वीणा पर चपल उंगलियों की तारीफ गूंजती थी।
जाने कैसे और कब यह जहीन, नफासत भरी रवायत बदनाम हो गई। अचानक तो कुछ नहीं हुआ। गायिकाओं के चमक दमक ने गायकों की मांग को दरकिनार किया। कुछ गायक गाय़िकाओं की पैठ ने अन्य को बहुत कुछ बदलने पर मजबूर किया। हर कोई अपना सिक्का जमाना चाहता था। और समाज भी समय के साथ कुछ बाजार हुआ जाता था । गायकी कला व मान सम्मान से जियादा धन दौलत की हो गई । धीरे धीरे घर परिवार के बीच खुशी आदि के मौकों पर इन गायिकाओं का बुलाना कम हुआ तो फिर बंद ही हो गया।
राजा-महाराजा , फिर जमींदार सामंत, फिर अंग्रेजों के राज के समय के अमीर , फिर 40-50 के दशक के सरकारी बाबू और सिविल इंजीनियर ...सुनने वाले तरफदारी वाले जैसे जैसे बदलते गए गायकी ने वैसे वैसे रूप बदला। एक वह समय भी आया कि कोठे वालियां बदनाम हो गईं। वे मोहल्ले, वो गलियां बदनाम हो गईं। समाज में भले घर की लड़कियों का अब गीत नृत्य से दूर दूर तक कोई नाता नहीं रह गया था। गांवों कस्बों में तमाशा लेकर घूमने वाले नाचने वालियों को लेकर भी आते थे। देख रहे हैं ना आप – नृत्यांगनां नहीं, नाचने वालियां। गायिका नहीं , अब वो गाने-वाली कहलाती थीं... जिनकी कीमत ... । नहीं, बात जिस्मफरोशी की नहीं। हां, वह भी तो होता ही होगा, होता ही था। मगर बात कंठ के मिठास की है, बात गीत के उठते हूक की है, बात इंसान के हुनर की है। और बात इन सबके बीच पिसते मजबूरियों की भी है। बात समाज के गलन सड़न की भी है।
खैर ! प्रभात रंजन जी की लिखी कोठागोई ने मेरे मन में कोठे शब्द की धुमील छवी को बहुत कुछ साफ किया । वैसे पाकीजा, उमराव जान , उत्सव आदि फिल्में देखकर कोठा परंपरा में से दलालों व ग्राहकों ही के प्रति वितृष्णा होती है। कोठेवालियों के प्रति तो कभी घिन्न महसूस नहीं हुआ। मगर अब कहीं लखनऊ, मुजफ्फरपुर ही नहीं, अपने ही शहरों में रेड लाईट एरिया ही नहीं जहां तहां खुल गए पार्लरों पर जब तब पड़ती रेड़ बताती है कि सड़न कोठे शब्द में नहीं थी और कोठेवालियों में तो कत्तई नहीं थी। सड़न कहीं और है और ज्यादा 'बोल्ड'
अरे ! क्या कह रिए हैं आप ! ये प्रभात रंजन जी की किताब ‘कोठागोई’ की आलोचना (रिव्यू) नहीं। हां थोड़ा थोड़ा । मगर किसी भी किताब को पढ़ने के बाद दिल और दिमाग में बुलबुले बुदबुदाते जरूर हैं । बस वही लिख दिया इसबार। एक बात और । किताब के अंत में, वहां ऊपर दाईं तरफ लेखक की जो तस्वीर है उसका पिक्चर क्रेडिट जाता है भरत तिवारी जी को ।
हमारा नाम ? कविता "मुखर" है। ये 'मुखर' वो मुखर्जी वाला नहीं ना है। का समझे ? हैं ? हैंsss! सही समझे !
चलते हैं !

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