Tuesday, August 13, 2019

* खुशफहमी * - कहानी

“देखो ! उगता सूरज ! कितने दिनों बाद देख रहे हैं !”
“दिनों बाद ? महीनोंss बाद !”
“हम्म्म !...मैंने इस पर एक कविता लिखी है. -
"हमारे शहर में सूरज नहीं उगता है ,
भरी दुपहरी या ,
धुप्प अँधेरा रहता है .
हमारे शहर में सूरज नहीं उगता है !” 
पंक्तियाँ सुना कर हंसिनी उसके चेहरे की तरफ देखती है . एक संतोष और मान देती मुस्कराहट देखकर ख़ुशी महसूस करती है . अब वो मुस्कुराहट इसलिए थी कि हंसिनी ने दो ही पंक्तियाँ सुनाई थी या इसलिए कि पंक्तियाँ वाकई प्रभावी थी या फिर उसका ही मूड इस सुनहरी सुबह में अच्छा था ...हंसिनी इन सब पेचीदगियों में नहीं पड़ना चाहती. वह अपनी इन छोटी-छोटी खुशियों को कभी भी दाँव पर नहीं लगाती.
“देखो ! वो बस ! ठीक है ना ?”
“वो ? फड़फड़ ? रस्ते भर उसकी खिड़कियाँ फड़फड़ बजती रहेंगी...सीट सख्त होगी...तेज हवा के थपेड़े चेहरे पर चोट करते रहेंगे ...कोई आरामदायक बस हो कि बैठते ही, सर टिकते ही आँखें लग जाएँ. एक तो आज अन्य दिनों की बनिस्पत जल्दी उठ गई , ऊपर से ठन्डे-ठन्डे पानी से नहा ली हूँ...दिमाग एकदम ठंडा हो रहा है ...मीठी-मीठी नींद के घेर आ रहे हैं.” 
शहर के पश्चिमी छोर पर यह दो-सौ-फीट बाई-पास चौराहा है . हाँ, यही नाम है इस चौराहे का जहाँ दिल्ली की ओर से आती एलेवेटेड रोड बिना जमीं पर टिके चौराहे के ऊपर से ही एक सौ साठ डिग्री पर अजमेर को मुड़ जाती है। सुबह के कोई सात बजे यहाँ शहर के अन्य भाग से अधिक गहमा-गहमी रहती है. मानसरोवर, मालवीयनगर व शहर के आधे हिस्से को जोडती इस राष्ट्रीय मार्ग का ही प्रयोग करते हैं शहरी. जाने ऐसा क्यों होता है कि हर सुबह पूरे शहर को नौकरी या अन्य काम पर या फिर स्कूल कॉलेज के लिए शहर के दूसरे ही हिस्से में जाना होता है और फिर शाम को एक बार फिर पूरा शहर उलट-पुलट होता है अपने-अपने घर लौटते हुए. वो तो आज शिक्षण संस्थानों व् दफ्तरों में नवरात्रों के अष्टमी की छुट्टी है. तो आज लोग अपने-अपने दबड़ों में लम्बी नींद निकाल रहे हैं, सड़कें उबासियाँ ले रहीं हैं और यह चौराहा अलसाया सा आँखें झपका रहा है. 
अगली बस के इंतजार में दोनों रेलिंग का सहारा लिए खड़े हैं. हंसिनी की नजर उसके चेहरे पर एक बार फिर जा अटकती है... उसकी निगाह कहीं दूर पूर्व की दिशा में सिन्धी बस कैंप से आती किसी बस को ढूँढ़ रही है ...चेहरे पर ताजगी है..दमक रहा है ...उसकी आँखें बड़ी नहीं हैं मगर उगते सूरज के प्रतिबिम्ब लिए सुनहरी संभानाओं सी चमक रहीं हैं. 
“लो आ गई बस !” उसने कहा तो हंसिनी की तन्द्रा टूटी . वह सोचती है कि वह वर्तमान का अतिक्रमण कर कहाँ से कहाँ खो जाती है और वह दूरदृष्टि लिए हुए भी कितना प्रेजेंट में रहता है !...उसे बाय कर हंसिनी बस में चढ़ जाती है. संस्कारों के किसी सिग्नल के सहारे वह बस की सभी खाली सीटों को नज़रंदाज करते हुए पिछले हिस्से में किसी महिला ही के बगल में खाली सीट पा बैठ जाती है . वह महिला खिड़की से बाहर किसी से बात कर रही है. हंसिनी यह नहीं मानना चाहती कि वह महिला अपने पति ही से बातें कर रही है.
“थे चिंता मत करजो !... नाश्तो कर लीजो !... अच्छा चालूँ ! ध्यान राखजो थे !”
कितने गुलाबी अहसास हैं न इस वाक्य में , "ध्यान रखना अपना !” जैसे कि जिसको कहा जा रहा है वह इसीलिए अपना ध्यान रखेगा क्योंकि किसी ने कहा था उसे ऐसा करने को ! और होता भी ठीक ऐसा ही है। हंसिनी कल्पना कर रही है कि वह बाइक वाला पुरुष किक मारते ही अपने खुद के ‘किक’ के लिए एक बीड़ी सुलगा लेता है . और कश मारने से पहले ही कुछ याद करके मुस्कुराते हुए बीड़ी नीचे गिरा कर जूतियों से कुचल कर गाड़ी आगे बढा देता है. हंसिनी भलीभांति जानती है कि वक़्त और उम्र के साथ ह्रदय से जुबां तक की धमनियां और रक्त वाहिनियों के आसपास की दीवारें और मज्जा लचीलापन खो देती हैं ...उनमें बहता प्रेमरस कनपटियों तक नहीं पहुँचता है ...लालिमा अब नहीं छाती कपोलों पर...बोलते लब कांपते नहीं हैं ...आँखें पनीली नहीं होती...”ध्यान रखना अपना” मात्र एक औपचारिक हो जाता है ...मशीनी सा कानों पर पड़ता है...सुनने वाले के कान भी अब सवेंदनशील नहीं रह गए. बेहद मतलबी हो गए हैं . वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं...”ध्यान रखना अपना” वहीँ कान के परदे के बाहर ही बिखर जाता है ...अपना असर खो देता है. 
 मगर किसी और द्वारा किसी और के लिए कहे शब्दों की मिठास में हंसिनी डूब जाना चाहती है. वह अपनी सीट पर सेटल होने की कवायद में पाती है कि वह सीट तो पीछे हो ही नहीं रही . दूसरी तरफ की खिड़की पर बैठे आदमी से पूछती है – “वो सीट बेक हो रही है क्या?”
वह आदमी आँखें उठाकर खुबसूरत प्रश्नकर्ता की ओर देखता है और पल भर में ही बिना कुछ कहे हाथ का काम छोड़ चेयर के पुश बटन दबा कर चेयर पीछे करता है. सही पा कर हंसिनी उधर शिफ्ट होने के लिए खड़ी होती है कि वह आदमी चेयर को अपने हाथों से झाड़ता है. उसका ऐसा करना हंसिनी को अच्छा लगता है. वह सीट पर एडजस्ट होती है , अपना बैग ठीक करती है. उसकी कोहनी उस आदमी के कोहनी से एक दो बार हलके से छू जाते हैं. “ये शहर की लड़कियां भी !” वह सोचता होगा , ऐसा हंसिनी कल्पना करती है . बस चल पड़ी है. हवा के झोंके भले लगते हैं . वह आँखें बंद कर लेती है. फिर तो पूरा दिन हेक्टिक रहने वाला है. वह अपने पर्स में हाथ डाल माइग्रेन की टेबलेट चेक करती है. बस गति पकड़ चुकी है. हवा के झोंके अब थप्पड़ जैसे पड़ रहे हैं. 
“ये विंडो बंद कर दीजिये न प्लीज !” उस लड़के ने झट से खिड़की बंद कर दी . हवा अब भी परेशान कर रही है. हंसिनी आँखें मूंदे-मूंदे ही बार-बार अपने हाथों से चेहरे पर उड़ते बाल कानों के पीछे खोंस रही है. कोई हलचल हुई। कनखियों से देखा, वह लड़का उठ कर सामने वाले सीट की भी खिड़की बंद कर रहा है . हंसिनी को अब आराम आया. सीट पूरी पीछे कर के आँखों पर अँधेरा करने के लिए गोगल्स लगा कर नींद के घेरों में उतर जाने की प्रक्रिया में है वह। कल शाम जो एक उदासी से भरा गीत उसके मन में चल रहा था ‘सारे सपने कहीं खो गए...’ कहीं खो गया है . मन के रेडिओ पर फ़िलहाल ‘शाम गुलाबी, सहर गुलाबी, पहर गुलाबी, गुलाबी यह शहर है...धिन-चक धीन-चक धीन-चक...” वह बंद आँखों से अपने चेहरे पर एक मुस्कान महसूस कर रही है.
कंडक्टर पीछे की सीट की ओर गया है. 
 “अजमेर , एक” – एक आवाज .
“एक सौ दस रुपये,” – कंडक्टर का जवाब .
“अजमेर तक के कितने, भैया ?” रेट सुन कन्फर्म करती किसी और की आवाज.“ये वरिष्ठ नागरिक हैं न ! आपका प्रश्न सुनते ही समझ गया था.” कंडक्टर अनुभव के दंभ में बोला. 
... वरिष्ठ नागरिक ? – हंसिनी ने झट आँखें खोल दीं . “आपने मुझसे भी तो एक सौ दस ही लिए !” वह कंडक्टर से कह तो बैठी मगर उत्तर आने से पहले ही कुछ सोच कर , “अच्छा-अच्छा , ठीक है ठीक है !” कह कर वह फिर से सीट पर टिक कर गोगल्स चढ़ा आँखें मूंद लेती है. 
वह यह सोच कर खुश रहना चाहती है कि महिलाओं की टिकट रियायती दरों पर है !
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 मुखर , 24/10/2018

Friday, August 9, 2019

“दरकते मूल्य” (कहानी )


“हर बात पर संदेह करती हो ! हर एक पर शक करती हो ! इतना अविश्वास क्यों ? आखिर फिर जियोगी कैसे ?”
दिलीप सही कह रहा है . यह बात मीनू मन ही मन भलीभांति जानती थी . आखिर चार पांच बरस हो गए थे दोनों की दोस्ती के . दोनों एक-दुसरे के रग-रग से वाकिफ़ थे. मगर मीनू करे भी तो क्या . बचपन ही से हर पड़ोसी , हर अंकल , हर भैया , हर पुरुष पर शक़ करने का जैसे पाठ ही सिखाया गया है . 
“तुम भोली हो ! तुम्हें नहीं पता दुनिया कितनी धूर्त है , बेवकूफ़ बना लेते हैं तुम जैसों को . तुमने देखा ही क्या है अब तक ?” ऐसी ही बातें सुन-सुन कर उसने कभी किसी अंकल , टीचर को गुरु नहीं बनाया . कभी खुद पर भी पूरा भरोसा नहीं कर पाई . हमेशा बस एक ही बात जहन में उठती , “नहीं , मैं बेवकूफ़ नहीं बनूँगी !” इसीलिए कभी कोई बॉय फ्रेंड भी नहीं बना उसका. आज सत्ताईस की उम्र में भी ‘बेवकूफ़ न बन रही हो’ का डर उसे दिलीप पर भी जब-तब संदेह करने पर मजबूर कर देता . 
यह तो किस्मत की ही बात थी और दिलीप की समझदारी भी कि उसने दोनों घरवालों को विश्वास में लिया था और आख़िरकार मीनू –दिलीप सात फेरों के बंधन में बंध सके. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर दिलीप ने उसे लोगों पर ट्रस्ट करना सिखाया . जीवन अब अधिक सरल और खुशनुमा हो गया था . दुकानदार पर, दूधवाले पर, बाई पर , पड़ोसी पर , कुली पर , दोस्तों , जान पहचान वालों पर एक हद तक विश्वास करने लगी थी मीनू . और कभी दिक्कत भी नहीं आई . कभी कोई छोटी-मोटी परेशानी आई भी तो अपने पर बन आए आत्मविश्वास के कारण परिस्थितियों को संभल लेती थी . नतीजतन कई खूबसूरत रिश्तों से ज़िन्दगी संवर गई थी , महकने लगी थी . और समय ने पंख पसार लिए . 
वह समय भी आया जब बड़ी बेटी को पूना के इंस्टिट्यूट में पढ़ने जाना था . चार लड़कियों ने मिल कर एक फ्लैट किराये पर ले लिया था . खुद दिलीप और मीनू सारी व्यवस्था ठीक कर आए थे .पहले-पहल तो करीब रोजाना ही बातचीत हो जाती थी . फिर वह पढ़ाई , प्रोजेक्ट्स में ऐसी व्यस्त हुई कि दो-चार दिन हो जाते थे फोन किये . वैसे भी चिंता-फिकर की तो कोई बात थी ही नहीं . 
परसों शाम की बात है . ‘बार- बी – क्यु – नेशन’ में सुनील और दिव्या के शादी के सालगिरह की पार्टी चल रही थी. मीनू बुफे से सलाद लेने उठी ही थी कि सोहना का फोन आया . इधर उधर की दो चार बात कर उसने कहा , “मम्मा ! एक बात बतानी है आपको !” टोन में गंभीरता भांपते हुए मीनू प्लेट रख कर बालकनी में आ गई फोन सुनने . “हाँ ! अब बोल , अंदर लाऊड म्यूजिक है .”
“मम्मी !...”
“हाँ बेटा ss ?”
“चलो , घर पहुँच कर फोन कर लेना .”
“अरी बोल तो ! तुझे मालूम है, अब मेरा मन नहीं लगेगा .”
“ आज न ...आज जब मैं दिन को क्लास से लौटी ..”
“?”
“अपार्टमेंट के मेन गेट ही पर मेहरा अंकल मिल गए .”
“वही न जो थर्ड फ्लोर पर रहते हैं ? जब हम आए थे वे बंगलौर गए हुए थे अपने बेटे के पास ?”
“हाँ वही ! बातों बातों में उन्होंने मुझसे पूछा कि फ्लैट में मेरे साथ कौन-कौन है . मैंने बता दिया कि अभी तो मैं अकेली हूँ, शाम को पूनम आ जाएगी . बातें करते-करते हम लिफ्ट में गए . लिफ्ट में उन्होंने मेरे फेस पर टच किया और पूछा कि इतने एक्ने क्यों हो रहे हैं. मुझे तो कुछ समझ ही में नहीं आया कि क्या करूँ . मैंने नोटिस किया कि उन्होंने अपना फ्लोर भी मिस कर दिया और मेरे कंधे पर स्ट्रैप को छू कर पूछे कि यह क्या है . मैं तो जैसे ही मेरे फ्लोर पर लिफ्ट खुली फटाक से भाग कर फ्लैट में घुस गई और अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया . मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था . मम्मी , पता नहीं क्यों मेरा दिमाग एकदम से सुन्न हो गया था . रिएक्ट ही नहीं कर पाई . मुझे तो लग रहा था कि हमारे अपार्टमेंट के अंकल हैं . सोचा भी नहीं था ...”
सोहना बोली जा रही थी और मीनू का चेहरा अवाक खुला रह गया था .
“मम्मा ! बोलो न आप कुछ !..”
“बेटा तू घबरा मत ! हम कल ही पहुँच रहे हैं वहां . उस बुढ्ढे को तो हम बताएँगे. तू दरवाजा अच्छे से बंद रखना. और सुबह रोजाना के जैसे कॉलेज जाना. किसी से कुछ कहने या डरने की कोई जरुरत नहीं है .मगर आज के बाद किसी पर भी विश्वास नहीं करना . यह दुनिया विश्वास करने लायक ही नहीं है दरअसल . उस साले बुढ्ढे के बच्चे भी तुझसे बड़े हैं . फिर भी लाज शर्म नहीं !...”
फोन रखने के बाद, पार्टी से लौटते हुए रास्ते भर , अगले दिन कैब से पूना के लिए रवाना हो रस्ते भर मीनू के जबान पर बार-बार एक ही वाक्य लौट-लौट कर आ रहा था , “कोई भी तो भरोसे के लायक नहीं इस दुनिया में !”
दिलीप क्या कहता ? समझ रहा था कि विश्वास ज़माने में ज़िन्दगी लगी और टूटने में पल भर !
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(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की स्मारिका 'हमारा दृष्टिकोण' में प्रकाशित)