Wednesday, November 30, 2016

"Hesokuri" ...(A japanese term)


एक बार की बात है। मेरी एक सहेली की शादी पक्की हो गई थी। एक दिन जब मैं उनके घर गई ,उसकी फूफी आईं हुई थी और एक बड़े से बक्से के आस पास बहुत सी चीजें बिखेरे घर की सब महिलाएं बैठी थीं। वह बक्सा 6 x 3 का बेडनुमा था जिसपर हमेशा गद्दा चादर बिछा सोफे का लुक दे रखा था। उस दिन पता चला कि जब से मेरी सहेली पैदा हुई थी तब ही से उस बक्से में चीजें , कपड़े , ज़ेवर , और नकदी बस डाली ही जाती थी , निकाली नहीं। ऑन्टी ने उसके लिए तभी से एक दुप्पट्टे पर फुलकारी भी काढ़नी शुरू कर दी थी। पुराने ज़माने के चाँदी के बर्तन , काँसे के गिलास , थालियां , सोने के तारों की बारीक काम वाली एक ओढनी , कितनी सुंदर साड़ियां, हाथ की कढ़ाई वाले चद्दरें , गिलाफ़ , मेजपोश और भी ना जाने क्या क्या और बहुत बहुत सारा नकद। यह लेख पढ़ने वाली लगभग सभी महिलाओं व् कुछ पुरुषों को भी अपना बहुत कुछ याद आ गया होगा। जहाँ तक मुझे ध्यान है करीना कपूर ने शादी में अपनी सास शर्मीला टैगोर का शादी- का- जोड़ा पहना था। तो जोड़ना तो हम भारतीय महिलाओं के जीन्स में है।
1978 में जब हजार और दस हज़ार के नोट बंद किये गए थे , धन्ना सेठों व् नेताओं के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी। उस समय केंद्रीय सरकार के क्लर्क की सैलरी अमूमन 250/- रुपये होती थी। गाँवों कस्बों में तो बहुत से काम जुबान की कीमत पर और/या वास्तु विनिमय पर हो जाया। ' गुरु जी ' के यहाँ विद्यार्थियों के अभिभावक नाज , घी , गुड़ के पीपे, बोरे डलवाते। गाय, भैंस, भूमि का टुकड़ा तक दान देते थे।
सत्तर अस्सी के दशक में कई जगह देखने में आता जब घर पर कोई बड़ी विपत्ति आई या घर , जमीन , मवेशी खरीदने की बात अटकती तो घरवाली परिस्थिति को भांपते हुए कोई पुरानी सी गठरी खोल एक मोटी रक़म जमा पूंजी के रूप में पकड़ाती।
आज भी हम महिलाओं के पास ऐसी कहानियाँ मिल जाएँगी जिसमें शराबी पति से छुपाकर कामवाली अपनी पूँजी 'मालकिन ' के पास रखवाती है कि कभी बुरे वक़्त में काम आएगा। सौ सौ के चार पाँच नोट होते ही पापा से पाँच सौ के नोट से बदलवा अपने गुल्लक में डालना आज भी बेटियों की आदत में है। और आड़े वक़्त में वही गुल्लक फोड़कर जब पापा को देती हैं तो पापा मम्मी को आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होती है बड़ी रकम और बिटिया की समझदारी पर। 1985 में गैस कनेक्शन के लिए फॉर्म भरना था तब मैंने भी अपना गुल्लक फोड़ा था।
परसों किटी में वो भी आई जिसे किटी फालतू की दिखावे की होड़ और वक़्त की बर्बादी लगती थी। पूछा तो बोली , "सतरंगी सपनों की इंद्रधनुषी बचत अचानक से कोयला हो गई। अल्पव्यता , दांत से पैसे पकड़ना , देखकर चलना , भविष्य पर नज़र रखना आदि नाम से जो मेरे पति ,मेरी सास गुण गाते थे , अचानक ही से वो मेरे सब गुण सबसे बड़े अवगुण हो गए।"
पिछले साल भर में हमने करीब दो -तीन खबरें ऐसी भी पढ़े जब किसी भिखारी ने जिंदगी भर की कमाई दान में दे 'डिस्पेंसरी ' , तो कभी 'शौचालय ' तो कभी 'विद्द्यालय भवन ' तक बनवाया। अजमेर के रेलवे स्टेशन पर जब एक लावारिस लाश के बिछावन से कितने लाख रुपये निकले थे तो जाने कहाँ कहाँ से उससे रिश्ते के दावेदार पैदा हो गए थे।
तो क्या आपको नहीं लगता कि ये सारी जमा पूँजी वर्षों की बचत है ना की काली कमाई ? काली कमाई वालों की बात और है। उनके घर की महिलाएं बचत नहीं करतीं। वे सपरिवार उड़ाती हैं। महिलाएं ही नहीं , पुरुष भी , बच्चे भी।
खा खा कर, पी पी कर तोंदल के जब सारे ऑर्गन फेलियर हो रहे हैं तो पेट दर्द की शिकायत करती आवाम को बड़ी बिमारी का डर दिखा आपरेशन कर दिया ? चुपके से उसकी किडनी उड़ा ली ? महंगी इलाज के बहाने मोटी फीस भी ऐंठ लिए ? अहसान और कि गंभीर बीमारी से बचाया है ! तीन महीने का बेड रेस्ट भी ?
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मेरे पोस्ट आपको कैसे लगते हैं (#App#Survey) :-
१. शानदार
२. सर्वोत्तम
३. उत्कृष्ट
४. उत्तम
५. प्रभावशाली
___________ मुख़र

Monday, October 24, 2016

* एक मुलाक़ात *


कल जब शिवानी शर्मा  ने फ़ोन पर शाम का कार्यक्रम बताया ,दिवाली के काम दबाव के बावज़ूद मैं ऑफिस को गच्चा दे चल दी। ३०-३२ साल पीछे से 'चार लाइनें' सुनाई पड़ीं। पापा ने कोई कैसिट लगा रखी थी। पापा-मम्मी और बचपन की याद चाशनी सा। ...
शहर से कोई २५ km दूर जब हम गंतव्य पर पहुंचे पता चला रात वहाँ 'कवी सम्मलेन ' भी होगा। पिक्चर से तो आपने पहचान ही लिया होगा ! कमरा नम्बर १०६ के बैठक ही में हमें सीधे जाने का मौका मिला। फिर तो हमारी जिज्ञासा और हास्य कवी सुरेंद्र शर्मा जी के सरलता से जो बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पूरे दो घंटे निकल गए।
उन्होंने कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवियों के गीत , कविताओं के माध्यम से समाज की विसंगतिया व् जीवन जीने के सलीके के बारे में बताया। हम तीनों एक दुसरे के परिवार व् जिंदगी के बारे में भी बात की। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम ख्यातनामी हस्ती से मुलाकात करने आये हैं। लग रहा था हम तीनों बतियाने बैठे हैं।
बहुत भुलक्कड़ हूँ। कुछ याद नहीं रहेगा - चार लाइनें , कितने ही नाम , कितने ही प्रसंग। ... हाथ बरबस ही फ़ोन की ओर बढ़ गया कि कुछ नोट कर लूँ। मगर फिर रंग में भंग पड़ जाता। मैं उन पलों जी लेना चाहती थी। तभी चाय आ गयी।
" कितनी शक्कर लेंगे सर ?"
"एक "
एक सेलिब्रिटी के लिए चाय बनाना मुझे हमेशा याद रहेगा।
"जी , आज कल 'राग-दरबारी' पढ़ रही हूँ।" फिर तो बात शरत चंद्र चटोपाध्याय से लेकर शिवानी के उपन्यासों की महिला पात्रों के चित्रण तो शरद जोशी और फिर राजेश्वर वशिष्ठ जी की 'जानकी के लिए', 'उर्मिला' और 'याज्ञसेनी' तक पहुँची। तो बात रस्किन बॉन्ड , खुशवंत सिंह और शोभा डे तक गई।
एक महसूसा हुआ दर्द और एक भोगा हुआ दर्द समझाते कवि सुरेंद्र शर्मा जी ने कई ख्यातनाम कवियों को और उनकी कृतियों को याद किया। राजस्थान के भी कई हास्य कवि व व्यंगकारों का जिक्र हुआ।
इस बीच रिसोर्ट 'आपनो राजस्थान' के मालिक चौधरी जी भी आ गए ।
" सर, एक दिन और रुक जाते तो रणथम्बोर अभ्यारण भी देखना हो जाता। "
" बंगलौर डर्बी रेस में इसलिए नहीं गया कि आज तक कोई घोडा किसी कवी सम्मलेन में मेरी कविता सुनने नहीं आया। अब अपने पेशे का इतना सम्मान तो रखना ही होता है !"
पूछने पर ही सुरेंद्र शर्मा जी ने पद्मश्री से सम्मानित होने की बात बताई।
"और किताबें ?"
" चार वर्षों दैनिक भास्कर में जो कॉलम लिखता था उन्हीं के तीन संकलन आये। वैसे इकठ्ठा करते तो ३५-४० किताबें तो आ ही जाएँगी। " उनके कहने के तरीका तो हमें हंसाता हैं मग़र चेहरा हमेशा धीर गंभीर।
" ऐसा है कविता , जिस बात के तोड़ने से हास्य रस बनता है उसी के तोड़ने पर करुणा रस भी बनता है। "
मैं समझ रही थी क्यों हँसी के फव्वारों के बीच कभी कभी कोई चीज भीतर तक चुभती है।
माहौल इतना सहज था कि एक प्रश्न कुलबुलाने लगा।
"सर , जब हम जैसा आम इंसान किसी सेलेब्रिटी से मिलता है तो हमें कैसा लगता है दिगर बात। " थोड़ा संकोच के साथ मैंने पुछा ," अब जब हम इतने देर से बात कर रहे हैं, आपको हमसे मिलकर कैसा लगा ?"
"पद , प्रतिष्ठा , पैसा पैरों में रख कर आदमी हूँ आदमी से मिलता हूँ। "
और मेरे अंदर बहुत कुछ बदल गया। जो काम शिक्षा और किताबें नहीं कर पातीं , कोई कोई मुलाकात कर जाती है।
चूँकि मुझे और शिवानी को धीरज नहीं था हमने दो चार तस्वीरें अब तक क्लिक कर ली थीं। तभी घंटी बजी।
"सर मंच तैयार है , आप पधारें। "
कवी जब भीतर कमरे में जाकर लौटे , शिवानी ने कहा ,' सर आप तैयार हो गए हैं तो एक और तस्वीर ?"
"हाँ ! अब आप हैंडसम लग रहे हैं। " मेरे कहते ही बैठक ठहाकों से गूँज गया।
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Wednesday, October 19, 2016

*मनोदशा *

कभी कभी आवाजें कान पर तो पड़ती हैं मागर मन में कहीं कोई हलचल नहीं पैदा करती। मन , शांत , मृत सागर सा गंभीर। ऐसा सन्नाटा जैसे सावन के महीने में जेठ अतिक्रमण कर गया हो। जैसे जेठ की ठहरी सी दुपहरी में दूर किसी कठफोड़वे की ठक ठक , किसी कमठे की ठक ठक सी ही उदासीन सांसों की आवाजाही और दिल की धड़कन। जिनके होने न होने में कोई अंतर ही ना रह गया हो। सारे सारे दिन के तड़प के बाद भी बिना कुछ कहे... वहाँ दूर जहाँ धरती आकाश मिलते हैं न , आज़ भी सूरज बिना कुछ कहे , बिन कुछ सुने... वहीँ क्षितिज़ मन की सागर सतह पर धंस गया। घिर आए तिमिर में भीतर ही भीतर कोई लावा बहता है। सब रेत करता है। चेहरे की झांई और आँखों के लाल डोरे.. तप्त ह्रदय के चुप से अल्फ़ाज़ !
इस बीच तुमने कुछ कहा हो तो , माफ़ करना !
- " मुख़र "

Friday, October 7, 2016

*कल रात की तौबा... *

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, बाहर और प्रकृति
"अरे! आपने फिर पॉलीथिन में डाल दी सब्जियां? मैं लाई तो हूँ थैला! सरकार ने बैन लगा दिया फिर भी? "
"पॉलीथिन पर ना। मगर पॉलीथिन बनाने वाली कम्पनी पर थोड़े ना!"
एमरजेंसी में कालोनी के बाहर मेन रोड़ के नुक्कड़ पर इस सब्जी की थड़ी पर आ जाती हूँ। मीठी तकरार के बाद अपना थैला उठा चल दी। अभी मुड़ी ही थी कि आसमान के उस राही पर नज़र जा पड़ी। कि झट से चेहरा उतर गया। बहुत गुस्सा आया अपने आप पर। मम्मी कितना कहती थी नजर नीची रखा कर। आसमान पर देखेगी तो ठोकर ही लगेगी। मगर ऐसी ठोकर! यह तो नहीं सोचा था मैंने! मैं तेज तेज चलने लगी।....
....
पता है चौदहवीं का चांद इतना खूबसूरत क्यों लगता है?चलो मैं ही बता देता हूँ। क्योंकि उसकी गर्दन भी बिल्कुल तुम्हारी जैसे हल्की-सी झुकी होती है।
और हवाओं में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी। उसका खिलखिलाने...
चाँद की गर्दन कहां होती है? हाहाहा...
...
किन सोचों में गुम रहते हो 🎶 किसी की मोबाइल पर रिंग टोन बज उठी थी। मेरे कदम और तेज़ होना चाहते थे। इस पाँच मिनट का रास्ता क्या युगों लेगा खत्म होने के लिए?...
...
पता है?
क्या?
ये चाँद है ना?
हाँ देख रहा हूँ!
ओहो! वहाँ ऊपर!
अच्छा वो?
पता है वो इतना खूबसूरत क्यों लगता है?
हम्म्?
कोई सूरज है। जिसकी रौशनी इसको चमक देती है!
हम्मम...
...
स्टूपिड! तुम कोई अमिताभ नहीं हो जो इस कदर अपनी तन्हाइयों से बात करती रहती हो!
मैं? मैं कहां? यह तो तन्हाइयां ही हैं जो कभी चुप नहीं बैठती।
बस बस! जब देखो लड़ती रहती हो मुझसे। मुझसे ही? अपने आप से ही?
मैं तो खुशी-खुशी जा रही ... ये चाँद जब भी दिखता है ना! मेरी मुझसे ही लड़ाई करा देता है! कसम है मुझे जो मैंने अब कभी देखा इस चाँद को । अरे! इत्ती जोर से? ये तन्हाई भी ना! जब देखो बस मुझपे ही हँसती है! बंद भी कर दाँत निकालना! लो जी, तय हुआ सफर, आ गया घर...
हाय मुखर! इतनी रात को सब्जी?
हाँ, कल सुबह कोई.....
अच्छा सुन, परसों नया चाँद है। अपन...
मेरा मन पड़ोसन की बात अनसुना कर चुका था। इस चाँद को नहीं देखने की कसम खाई थी ना। अब तो नया चाँद...
अब? अब कौन हँसा? ओह्ह, यह तो पड़ोसन है...
- मुखर! 16-9-16

Tuesday, September 6, 2016

वो मिठास कहाँ गई ...

वही मौसम है.... वही सड़कें हैं। ..और ऍफ़ एम पर बजते वही गानें। ... मग़र। .. न बारिश में वो रिमझिम है ना राहों में वो कशिश। ऍफ़ एम पर बजते उन्हीं गीतों में से मेलॉडी इस बार ग़ायब है। पिछली बरस ... याद है ? शहर का आसमान घटाघुप्प हो रहा था कि सौंधी सी एक याद दिल में छम से उतर आई थीं । ... मैंने झट से गाड़ी की चाबी उठाई और चल दी थीं उस ओर जिधर आसमान का एक कोना काला और काला हुआ जाता था । ... आधुनिक शहर की सीधी सपाट सड़कें भी आढ़ी टेढ़ी सी कल्पनाओं की ओर ले जातीं थीं मुझे। ... रिम झिम गिरे सावन ... मैंने रेडियो का वॉल्यूम कुछ और बढ़ा दिया था। ... तस्वीरें बदल रहीं थीं।
बॉम्बे का मरीन ड्राइव ? मग़र वहाँ तो मैं कभी गई नहीं न ? ओ यू जस्ट शट अप ! रीता भादुड़ी की जग़ह मैं भीग रही थी ? और मैंने देखा मैंने अमिताभ को ऐसा धक्का दिया कि... कि.....उफ़्फ़ ये फोन. .. 

"हलो ! हाँ ? तुम पहुँच गए घर ? अच्छा। करीब आधा घंटा। ठीक है। समोसे ? ले आउंगी। ... अब के सजन सावन में ...
वही मौसम है.... वही सड़कें हैं। ..और ऍफ़ एम् पर बजते उन्हीं गीतों में इस बार अज़ीब सा शोर है... सब ओर । ये कैसी बूंदे हैं कि सब सूखा सूखा ... गीत , मैं , मेरा मन ... अपने ही में खोई खोई मैं कार की खिड़की ज़रा खोल दी कि बग़ल से जाती सिटी बस से सड़क का बरसाती पानी उछल कर मुझे भिगो गया। छीsss ! मैं भी ना। इन्हीं को बोल देती सब्ज़ी लाने को । फ़ोन ! इनका फोन ? हम्म ! याद करो और ...
"हलो ! बारिश तेज़ है , गाड़ी धीरे और ध्यान से चलाना। अवॉयड खातीपुरा चौराहा। ट्रैफिक जाम है जबरदस्त। इंस्टीड टेक सर्विस लेन। अरे ! तुम आ गई ? तुम तो बारिश में लॉन्ग ड्राइव पे निकलती हो ना !..... अच्छा , गेट खोलता हूँ ...
- " मुखर "

Monday, August 8, 2016

* The Magical Fall *


Do not move,
Not even try!
Just witness
Be witness!
Do not acknowledge.
Do nothing about it.
The moment you think,
To acknowledge it.
To christen it.
To happily share.
And lo!
It ceases to be.
What one is left with
Is just after-taste!
What you share
Or go through
Is mere aftermath!
One is shere spectator,
In deep state of misery!
N in ecstatic moments!
The thought shall
Break the spell!
So don't even try!
It's all mysterious!
It's so magical!
Total trance!
Out of the moments
In the fall of love,
One derives the bliss
For a life time!
.................... Mukhar! 21/11/15

Friday, July 22, 2016

+ मन समरस्थल +

जीतना तो होता है उसे,
मगर लड़ना नहीं आता।, सो
उसकी उसी से जो लडाई होती है,
मुझे ही लड़नी होती है।
फिर मेरी उसकी लड़ाई भी
मैं ही लड़ती हूँ।
और मेरी खुद मुझसे लड़ाई
मैं ही तो लड़ूंगी ना।
हे कृष्ण!
ये कैसा कुरूक्षेत्र है?
कि हर और खड़ा
मेरा ही कोई अंश।
मेरा ही एक अक्श।
वो भी मैं, मेरा मैं, मैं भी मैं!
यह कैसा धर्म युद्ध!
कि हर ओर मैं ही मैं!
तीस पर राज की बात तो ये,
कि उसे खबर तक नहीं!
आखिरकार
मौसम तो बन रहे हैं
अभी मगर
शंखनाद नहीं हुआ!
- मुखर।

Tuesday, July 5, 2016

* किस्सागोई :-




आज जो हम संगीत सुनते हैं वह वहां तक किन संकरी गलियों से होकर गुजरा, कभी किन ऊंचाइयों को छुआ किया और कभी किन मैदानों पर पहुंच मद्धम पड़ गया कभी सोचा है ? इन्ही में से एक राह की पड़ताल है "कोठागोई"
गूगल प्लस पर सर्फ करते, पढ़ते एक प्रोफाईल पर पहुंची – प्रभात रंजन। नाम तो बहुत जाना पहचाना लगा। शक्ल भी। टाईमलाईन पर पहुंचते पहुंचते याद आ गया, अरे ! कोठागोई ! इन दिनों यही तो किताब पढ़ रही हूं । कि देखा उन्होंने कवर भी वही लगा रखा है। फटदेनी अपने सर्कल में जोड़ लिया उन्हें ।
JLF के मंच से उस पन्नाबाई, जो एक गुमनाम जिंदगी जीने के वास्ते लंडन जाकर बस गई, के लिए अपनी मुहब्बत का ऐलान करना । कुछ समझ नहीं आया लेखक जी । मार्केट स्ट्रेटेजी ?
मगर आपको बता दें आपकी किताब एकदम फर्स्ट क्लास ! बड़की पन्नाबाई के बैठी परंपरा से लेकर चुम्मन मियां के बम्बई के बीयर बार में नाचने का प्रस्ताव पाने वाली चंदारानी तक का लेखाजोखा ! वही चंदा रानी जिसके एक प्रसिद्ध गीत ‘मुन्नी बदनाम हुई’ में थोड़ा फेरबदल कर मलाइका अरोड़ा पर फिल्माया गया और रातोंरात हर एक की जुबां पर चढ़ भी गया। गजब का कैची सॉंग ¡
किताब की एक खासियत इसकी लेखन शैली है। खासकर मुझ जैसों के लिए जो कभी चौपाल, चाय की थड़ी पर नहीं बैठी और ना ही दादी नानी के संग किस्से कहानियों का लुत्फ उठा सकी। पढ़ते पढ़ते बस ऐसा फ्रेश महसूस होता है कि किसी से गप्पें हांक रहे हैं । एकदम टंच
पता है, पिछले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उनका सेशन अटेंड किया था तो लगा इनकी किताब खरीदनी ही पड़ेगी, कुछ अलग हटकर पढ़ना है । ये क्या कि हमेशा फिक्शन या फिलोसोफी। मैं हर साल इस साहित्य मेले से कुछ किताबें खरीद लाती हूं। साल भर का दाना पानी ।
हां तो बात शुरू हुई थी गीत संगीत के जियादा दूर नहीं तो नजदीक के इतिहास में अपने नजरिए से झांकने से। एक वो समय था जब राजा महराजा शिल्प कला, भवन निर्माण,गीत संगीत, किस्से कहानियां, कसीदे, बुनकर और न जाने क्या और क्या नहीं, सब ही प्रकार की संस्कृति को संजोते, प्रोत्साहित करते। काल का क्या, कभी ठहरा तो नहीं। राज्य भी छोटे छोटे टुकड़ों में बंटते गए । उधर कला भी कई हाथ, कई कंठ बदलती चली। अब उस जमाने में हर बात का तो लेखा जोखा समेटना संभव तो था नहीं।बाकी सब कलाएँ तो भौतिकी प्रमाण बनती जाती हैं मगर गीत संगीत , किस्से कहानियाँ , नाटक नौटंकी ? तो बहुतेरे गीत संगीत, किस्सा कहानियां मुंहामुहीं पीढ़ी लांघते रहे। जमींदार सामंत भी अपने अपने स्तर पर मनोरंजन व शान-ओ-शौकत ख़ातिर कला के पारखी रहे । अठ्ठारहवीं शताब्दी तक आते आते सामाजिक परिदृश्य कुल बदल गए थे। किन्हीं गांव कस्बे में कोई मंदिर में गीत-भजन मंडली का प्रचलन भी जोर मारने लगा था। कनरसिया व गुणवंति जनों का मान था कि अपने अपने प्रासादों, हवेलियों में नामकरण, जड़ूले, शादी ब्याह के मौके पर संगीत के कार्यक्रम रखा जाने लगा। उस जमाने में गीत संगीत की बहुत महिमा थी। हां बहुसंख्यक आम जनता , निम्न व मध्य श्रेणी जनों के कानों तक बस उड़ती उड़ती खबर ही पहुंचा करती थी जो हर जबां का नमक समेटे हुए कुछ और वैभव, कुछ ज्यादा ही चटख-दमक लिए होती थी। अंग्रेजों द्वारा जब ज्यादातर तो क्या लगभग सारे ही राज हड़प लिए गए तो जागीरदारों व सामंतों के शान में भारी कमी आ गई। वे और छोटे छोटे टुकड़ों में बंट गए। जिन गायकों ने इनाम इकराम में मिली जमीन जायदाद को संजो लिया उन्होंने अपनी हवेली , कोठे तैयार कर लिए थे। गीत संगीत विभिन्न घरानों से चलकर नखलऊ, सीतामढ़ी, मुजफ्फरनगर का चतुरभुज...कहां कहां नहीं बसने लगा। कहते हैं उस जमाने में ऊँचे घरों की लड़कियों को गीत संगीत में पारंगत होना फैशन था। सितार, वीणा, पेटी (हारमोनियम), तानपुरा बजाना, और वोकल लगभग जरूरी गुणों में से थे। शादी के लिए जब लड़की देखने जाते तो उसके मीठे कंठ या वीणा पर चपल उंगलियों की तारीफ गूंजती थी।
जाने कैसे और कब यह जहीन, नफासत भरी रवायत बदनाम हो गई। अचानक तो कुछ नहीं हुआ। गायिकाओं के चमक दमक ने गायकों की मांग को दरकिनार किया। कुछ गायक गाय़िकाओं की पैठ ने अन्य को बहुत कुछ बदलने पर मजबूर किया। हर कोई अपना सिक्का जमाना चाहता था। और समाज भी समय के साथ कुछ बाजार हुआ जाता था । गायकी कला व मान सम्मान से जियादा धन दौलत की हो गई । धीरे धीरे घर परिवार के बीच खुशी आदि के मौकों पर इन गायिकाओं का बुलाना कम हुआ तो फिर बंद ही हो गया।
राजा-महाराजा , फिर जमींदार सामंत, फिर अंग्रेजों के राज के समय के अमीर , फिर 40-50 के दशक के सरकारी बाबू और सिविल इंजीनियर ...सुनने वाले तरफदारी वाले जैसे जैसे बदलते गए गायकी ने वैसे वैसे रूप बदला। एक वह समय भी आया कि कोठे वालियां बदनाम हो गईं। वे मोहल्ले, वो गलियां बदनाम हो गईं। समाज में भले घर की लड़कियों का अब गीत नृत्य से दूर दूर तक कोई नाता नहीं रह गया था। गांवों कस्बों में तमाशा लेकर घूमने वाले नाचने वालियों को लेकर भी आते थे। देख रहे हैं ना आप – नृत्यांगनां नहीं, नाचने वालियां। गायिका नहीं , अब वो गाने-वाली कहलाती थीं... जिनकी कीमत ... । नहीं, बात जिस्मफरोशी की नहीं। हां, वह भी तो होता ही होगा, होता ही था। मगर बात कंठ के मिठास की है, बात गीत के उठते हूक की है, बात इंसान के हुनर की है। और बात इन सबके बीच पिसते मजबूरियों की भी है। बात समाज के गलन सड़न की भी है।
खैर ! प्रभात रंजन जी की लिखी कोठागोई ने मेरे मन में कोठे शब्द की धुमील छवी को बहुत कुछ साफ किया । वैसे पाकीजा, उमराव जान , उत्सव आदि फिल्में देखकर कोठा परंपरा में से दलालों व ग्राहकों ही के प्रति वितृष्णा होती है। कोठेवालियों के प्रति तो कभी घिन्न महसूस नहीं हुआ। मगर अब कहीं लखनऊ, मुजफ्फरपुर ही नहीं, अपने ही शहरों में रेड लाईट एरिया ही नहीं जहां तहां खुल गए पार्लरों पर जब तब पड़ती रेड़ बताती है कि सड़न कोठे शब्द में नहीं थी और कोठेवालियों में तो कत्तई नहीं थी। सड़न कहीं और है और ज्यादा 'बोल्ड'
अरे ! क्या कह रिए हैं आप ! ये प्रभात रंजन जी की किताब ‘कोठागोई’ की आलोचना (रिव्यू) नहीं। हां थोड़ा थोड़ा । मगर किसी भी किताब को पढ़ने के बाद दिल और दिमाग में बुलबुले बुदबुदाते जरूर हैं । बस वही लिख दिया इसबार। एक बात और । किताब के अंत में, वहां ऊपर दाईं तरफ लेखक की जो तस्वीर है उसका पिक्चर क्रेडिट जाता है भरत तिवारी जी को ।
हमारा नाम ? कविता "मुखर" है। ये 'मुखर' वो मुखर्जी वाला नहीं ना है। का समझे ? हैं ? हैंsss! सही समझे !
चलते हैं !

Friday, April 29, 2016

* फ़ितूर * - कहानी



उसे 'कभी जिंदगी ... ' सीरियल का रामकपूर बहुत पसंद है।  वो अक्सर सोचती है , ' इतने अच्छे इंसान की जिंदगी इतनी कष्टकर क्यों होती है ?  जाने अगली कड़ी में उसके साथ क्या होने वाला है ?  असल जीवन में भी तो यही होता है।  मेरी खुद की जिंदगी कौन सी खुशगवार है ?' 
राधिका का रोज का यही नियम हो गया है।  रात आठ बजे तक बच्चों को डिनर करा कर पढ़ने बैठा देती है।  और खुद टी वी ऑन करके बैठ जाती है।  अरुण जल्दी आये या देर से ,वो अपने सारे सीरियल देख कर ही साढ़े नौ बजे तक उठती है।  तब तक बच्चे या तो शैतानी कर रहे होते हैं या फिर सो चुके होते हैं।  अरुण कई बार उसे टोक चुका है , प्यार से समझा चुका है।  मगर वो जानती है कि यह सब तो रोज का टंटा है।  आखिर कोई कब तक खटे !
कई बार अरुण ऑफिस से लौटने के बाद सोते हुए बच्चों को पहले चादर ओढ़ाता है।  रोटी सिकी हुई होती तो खुद ही खाना परोस लेता और रोटी सिकी हुई नहीं होती तो पति पत्नी में जोरदार तू तू मैं मैं हो जाती। 
'अरे जब सुबह का खाना खा कर गए हुए हो तो दो और मिनट में क्या तुम्हारी जान निकल जाती है ? इतना ही है तो नीचे अपनी माँ को क्यों नहीं कह देते ? क्या जिंदगी है मेरी भी ! दो घडी टी वी  जो देखने बैठ जाती हूँ बुरा भला सुना देते हो ! दिनभर घर के काम और बच्चों ही से नहीं उभर पाती हूँ ऊपर से तुम्हारी माँ की भी सुनती हूँ ! प्यार है ना इज़्ज़त है इस घर में !... और उसका बड़बड़ाना जारी रहता है। 
 राधिका के जीवन में अगर कुछ थोडा सा बहलावा है तो ये कोई तीन चार धारावाहिक।  कहीं राम कपूर, कहीं स्मृति ईरानी तो कहीं बा की कहानी है।  हर केरेक्टर अपने अपने हिस्से के ग़म और दुःख को झेलता हुआ भविष्य के सुख के सपने संजोय हुए है।  ठीक उसी की तरह जैसे किसी तरह अपने वजूद को कायम किये हुए कि कभी तो सवेरा होगा !
राम कपूर सोचता है कि जिंदगी की सभी परेशानियों का हल ले कर कोई उसके सपनो की रानी ही आएगी जो चाहे बेहद खूबसूरत न होगी मगर उसका घर और जीवन संभल जायेगा। 
ऐसा ही स्मृति ईरानी के साथ है।  बचपन से हर प्रकार की कमी में पली बढ़ी।  पियक्कड़ बाप , अनपढ़ माँ  और चार बच्चों के लड़ते झगड़ते परिवार से मिले संस्कार।  गाँव के रूढ़ि - रीतियों से बेजार।  टी वी  में देखे पिक्चरों सा  सजा भविष्य का सपना ! बस शादी हो जाये तो जहन्नुम से छुटकारा मिले !
बा जो की बचपन ही में ब्याहे जाने की वजह से कभी मुस्कुराने तक का वक़्त नहीं मिला।  हमेशा कोल्हू के बैल की तरह चक्की में पिसती हुई अक्खड़ बुद्धि, अधेड़ उम्र और कसैली जुबान लिए बस एक बहु का इंतज़ार कर रही है कि अब मैं राज करूंगी !
तीनो सिरिअलों को देखते हुए राधिका तीनों चरित्रों से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करती है और उनकी जिंदगी में बुरा करने वाले चरित्रों को टी वी  ऑफ करने के बाद तक कोसती रहती है।  अपनी खुद कि जिंदगी को मशीन की तरह जीती, कडवे घूँट की  तरह पीती वह इन पात्रों ही को जीती है।  यहीं से उसे थोड़ी बहुत उर्जा मिलती है। 
कि एकबार उसने देखा वो खुद टी वी के अन्दर है।  सीरियल में दिखाते घर की  दीवारें बहुत कुछ अपनी सी है।  कि देखा वह स्मृति ईरानी है और जिससे उसका ब्याह हुआ है वो और कोई नहीं राम कपूर ही है। और देखो, बा उसकी सास है।  मगर तीनों चरित्रों की  बढ़ी हुई अपेक्षाएं और खाली खाली मन किसी को कुछ देने की स्थिति में नहीं है। बस लेना ही जानते हैं और नहीं मिलने पर मांग लेना फिर छीन लेना जानते हैं।  राम कपूर अब अच्छा नहीं लगता है बिलकुल भी।  उसकी शक्ल तक अरुण जैसी लगने लगी है।  उसकी डिमांड्स बहुत ज्यादा है और दिल का एकदम रूखा।  अपनी जिंदगी से जुड़े हर शख्स के प्रति राधिका की अनगिनत जिम्मेदरियों के खेप ही राम के दिल से पूरी नहीं होती।  और बदले में प्यार के दो बोल नहीं ... प्रवचन ही बस। 
बा अपनी अक्खड़ बुद्धि और कसैली जुबान 'स्मृति ईरानी ' पर खुली छोड़ दी है और राज करने के सारे पैंतरे आजमाए हुए है।  इधर 'स्मृति ईरानी ' यानि राधिका खुद अपने बड़े बड़े सपनों को घिसते, टूटते  बिखरते देख रही है।  पुरजोर हाथ पांव मार रही है उन्हें बटोरने के, फिर से जोड़ने के मगर हाथ में से रेत सा कुछ फिसलता जाता है.
अब उसे ये अपना सपनो का महल अपने पीहर के जहन्नुम से भी बदतर लगने लगा है। वो कभी उल्टियां कर रही है कभी बुखार में तड़प रही है और कभी लगता है कि ये तमाम बीमारियाँ उसे है ही नहीं बस वहम है।  उसका दिमाग चक्कर खाने लगता है, सारा बदन टूट रहा है। तभी दूर से अरुण की आवाज आती है - ' माँ, उठो तुम घर जाओ. नीचे रेसेप्श्म पर विपुल है तुम्हे घर छोड़ आएगा। मैं बैठ जाता हूँ राधिका के पास। आज मैंने छुट्टी ले ली है ऑफिस से। 
राधिका अधमुंदी आँखों से देखती है कि वह अस्पताल के वार्ड में बिस्तर पर है। मांजी साथ में रखी कुर्सी पर शायद सो रही थी बैठी बैठी। अरुण अब उसी के पास आ कर सिरहाने बैठ जाता है, उसका माथा सहला रहा है। पूछने पर बताता है कि परसों शाम ऑफिस से लौटने पर उसने राधिका को १०५ डिग्री बुखार में पाया। उसी समय विपुल को बुला हस्पताल दौड़े।  मम्मी रात बच्चों के पास थी। सुबह घर का सारा काम निपटा, बच्चों को स्कूल भेज यहाँ आई तो अब तक यहीं थी।  कल बच्चों  को मैं विपुल के घर छोड़ आया था भाभी के पास।  रात मम्मी रुकी हस्पताल में, मुझे अलाउड नहीं था ना !
अब कैसा लग रहा है ?
राधिका मुस्कुराना चाहती थी ! कमजोरी में शरीर ने साथ नहीं दिया। मगर अब उसे राम कपूर और बा मिल गए थे।  सच्ची में।  टी वि से बाहर उसकी अपनी जिंदगी में।  वो जानती थी कि इन्हें वो जी जान से चाहती है।  उसे भलीभांति पता है इन्हें जिंदगी से क्या चाहिए।  उसका बदला व्यवहार सभी की कडवी स्मृतियों को बदल कर मीठा कर देगा।  अब उसकी अपनी जिंदगी  मशीनी नहीं रहेगी। अपने सपनों  का महल किसी टी वी  सीरियल से बेहतर न बना दे वो स्मृति ईरानी ...  ओह्ह सॉरी ...  राधिका नहीं !
अरुण ने देखा उसकी राधिका के होठों पर हंसी खिलने को आतुर थी ...
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