Monday, October 24, 2016

* एक मुलाक़ात *


कल जब शिवानी शर्मा  ने फ़ोन पर शाम का कार्यक्रम बताया ,दिवाली के काम दबाव के बावज़ूद मैं ऑफिस को गच्चा दे चल दी। ३०-३२ साल पीछे से 'चार लाइनें' सुनाई पड़ीं। पापा ने कोई कैसिट लगा रखी थी। पापा-मम्मी और बचपन की याद चाशनी सा। ...
शहर से कोई २५ km दूर जब हम गंतव्य पर पहुंचे पता चला रात वहाँ 'कवी सम्मलेन ' भी होगा। पिक्चर से तो आपने पहचान ही लिया होगा ! कमरा नम्बर १०६ के बैठक ही में हमें सीधे जाने का मौका मिला। फिर तो हमारी जिज्ञासा और हास्य कवी सुरेंद्र शर्मा जी के सरलता से जो बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पूरे दो घंटे निकल गए।
उन्होंने कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवियों के गीत , कविताओं के माध्यम से समाज की विसंगतिया व् जीवन जीने के सलीके के बारे में बताया। हम तीनों एक दुसरे के परिवार व् जिंदगी के बारे में भी बात की। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम ख्यातनामी हस्ती से मुलाकात करने आये हैं। लग रहा था हम तीनों बतियाने बैठे हैं।
बहुत भुलक्कड़ हूँ। कुछ याद नहीं रहेगा - चार लाइनें , कितने ही नाम , कितने ही प्रसंग। ... हाथ बरबस ही फ़ोन की ओर बढ़ गया कि कुछ नोट कर लूँ। मगर फिर रंग में भंग पड़ जाता। मैं उन पलों जी लेना चाहती थी। तभी चाय आ गयी।
" कितनी शक्कर लेंगे सर ?"
"एक "
एक सेलिब्रिटी के लिए चाय बनाना मुझे हमेशा याद रहेगा।
"जी , आज कल 'राग-दरबारी' पढ़ रही हूँ।" फिर तो बात शरत चंद्र चटोपाध्याय से लेकर शिवानी के उपन्यासों की महिला पात्रों के चित्रण तो शरद जोशी और फिर राजेश्वर वशिष्ठ जी की 'जानकी के लिए', 'उर्मिला' और 'याज्ञसेनी' तक पहुँची। तो बात रस्किन बॉन्ड , खुशवंत सिंह और शोभा डे तक गई।
एक महसूसा हुआ दर्द और एक भोगा हुआ दर्द समझाते कवि सुरेंद्र शर्मा जी ने कई ख्यातनाम कवियों को और उनकी कृतियों को याद किया। राजस्थान के भी कई हास्य कवि व व्यंगकारों का जिक्र हुआ।
इस बीच रिसोर्ट 'आपनो राजस्थान' के मालिक चौधरी जी भी आ गए ।
" सर, एक दिन और रुक जाते तो रणथम्बोर अभ्यारण भी देखना हो जाता। "
" बंगलौर डर्बी रेस में इसलिए नहीं गया कि आज तक कोई घोडा किसी कवी सम्मलेन में मेरी कविता सुनने नहीं आया। अब अपने पेशे का इतना सम्मान तो रखना ही होता है !"
पूछने पर ही सुरेंद्र शर्मा जी ने पद्मश्री से सम्मानित होने की बात बताई।
"और किताबें ?"
" चार वर्षों दैनिक भास्कर में जो कॉलम लिखता था उन्हीं के तीन संकलन आये। वैसे इकठ्ठा करते तो ३५-४० किताबें तो आ ही जाएँगी। " उनके कहने के तरीका तो हमें हंसाता हैं मग़र चेहरा हमेशा धीर गंभीर।
" ऐसा है कविता , जिस बात के तोड़ने से हास्य रस बनता है उसी के तोड़ने पर करुणा रस भी बनता है। "
मैं समझ रही थी क्यों हँसी के फव्वारों के बीच कभी कभी कोई चीज भीतर तक चुभती है।
माहौल इतना सहज था कि एक प्रश्न कुलबुलाने लगा।
"सर , जब हम जैसा आम इंसान किसी सेलेब्रिटी से मिलता है तो हमें कैसा लगता है दिगर बात। " थोड़ा संकोच के साथ मैंने पुछा ," अब जब हम इतने देर से बात कर रहे हैं, आपको हमसे मिलकर कैसा लगा ?"
"पद , प्रतिष्ठा , पैसा पैरों में रख कर आदमी हूँ आदमी से मिलता हूँ। "
और मेरे अंदर बहुत कुछ बदल गया। जो काम शिक्षा और किताबें नहीं कर पातीं , कोई कोई मुलाकात कर जाती है।
चूँकि मुझे और शिवानी को धीरज नहीं था हमने दो चार तस्वीरें अब तक क्लिक कर ली थीं। तभी घंटी बजी।
"सर मंच तैयार है , आप पधारें। "
कवी जब भीतर कमरे में जाकर लौटे , शिवानी ने कहा ,' सर आप तैयार हो गए हैं तो एक और तस्वीर ?"
"हाँ ! अब आप हैंडसम लग रहे हैं। " मेरे कहते ही बैठक ठहाकों से गूँज गया।
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Wednesday, October 19, 2016

*मनोदशा *

कभी कभी आवाजें कान पर तो पड़ती हैं मागर मन में कहीं कोई हलचल नहीं पैदा करती। मन , शांत , मृत सागर सा गंभीर। ऐसा सन्नाटा जैसे सावन के महीने में जेठ अतिक्रमण कर गया हो। जैसे जेठ की ठहरी सी दुपहरी में दूर किसी कठफोड़वे की ठक ठक , किसी कमठे की ठक ठक सी ही उदासीन सांसों की आवाजाही और दिल की धड़कन। जिनके होने न होने में कोई अंतर ही ना रह गया हो। सारे सारे दिन के तड़प के बाद भी बिना कुछ कहे... वहाँ दूर जहाँ धरती आकाश मिलते हैं न , आज़ भी सूरज बिना कुछ कहे , बिन कुछ सुने... वहीँ क्षितिज़ मन की सागर सतह पर धंस गया। घिर आए तिमिर में भीतर ही भीतर कोई लावा बहता है। सब रेत करता है। चेहरे की झांई और आँखों के लाल डोरे.. तप्त ह्रदय के चुप से अल्फ़ाज़ !
इस बीच तुमने कुछ कहा हो तो , माफ़ करना !
- " मुख़र "

Friday, October 7, 2016

*कल रात की तौबा... *

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, बाहर और प्रकृति
"अरे! आपने फिर पॉलीथिन में डाल दी सब्जियां? मैं लाई तो हूँ थैला! सरकार ने बैन लगा दिया फिर भी? "
"पॉलीथिन पर ना। मगर पॉलीथिन बनाने वाली कम्पनी पर थोड़े ना!"
एमरजेंसी में कालोनी के बाहर मेन रोड़ के नुक्कड़ पर इस सब्जी की थड़ी पर आ जाती हूँ। मीठी तकरार के बाद अपना थैला उठा चल दी। अभी मुड़ी ही थी कि आसमान के उस राही पर नज़र जा पड़ी। कि झट से चेहरा उतर गया। बहुत गुस्सा आया अपने आप पर। मम्मी कितना कहती थी नजर नीची रखा कर। आसमान पर देखेगी तो ठोकर ही लगेगी। मगर ऐसी ठोकर! यह तो नहीं सोचा था मैंने! मैं तेज तेज चलने लगी।....
....
पता है चौदहवीं का चांद इतना खूबसूरत क्यों लगता है?चलो मैं ही बता देता हूँ। क्योंकि उसकी गर्दन भी बिल्कुल तुम्हारी जैसे हल्की-सी झुकी होती है।
और हवाओं में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी। उसका खिलखिलाने...
चाँद की गर्दन कहां होती है? हाहाहा...
...
किन सोचों में गुम रहते हो 🎶 किसी की मोबाइल पर रिंग टोन बज उठी थी। मेरे कदम और तेज़ होना चाहते थे। इस पाँच मिनट का रास्ता क्या युगों लेगा खत्म होने के लिए?...
...
पता है?
क्या?
ये चाँद है ना?
हाँ देख रहा हूँ!
ओहो! वहाँ ऊपर!
अच्छा वो?
पता है वो इतना खूबसूरत क्यों लगता है?
हम्म्?
कोई सूरज है। जिसकी रौशनी इसको चमक देती है!
हम्मम...
...
स्टूपिड! तुम कोई अमिताभ नहीं हो जो इस कदर अपनी तन्हाइयों से बात करती रहती हो!
मैं? मैं कहां? यह तो तन्हाइयां ही हैं जो कभी चुप नहीं बैठती।
बस बस! जब देखो लड़ती रहती हो मुझसे। मुझसे ही? अपने आप से ही?
मैं तो खुशी-खुशी जा रही ... ये चाँद जब भी दिखता है ना! मेरी मुझसे ही लड़ाई करा देता है! कसम है मुझे जो मैंने अब कभी देखा इस चाँद को । अरे! इत्ती जोर से? ये तन्हाई भी ना! जब देखो बस मुझपे ही हँसती है! बंद भी कर दाँत निकालना! लो जी, तय हुआ सफर, आ गया घर...
हाय मुखर! इतनी रात को सब्जी?
हाँ, कल सुबह कोई.....
अच्छा सुन, परसों नया चाँद है। अपन...
मेरा मन पड़ोसन की बात अनसुना कर चुका था। इस चाँद को नहीं देखने की कसम खाई थी ना। अब तो नया चाँद...
अब? अब कौन हँसा? ओह्ह, यह तो पड़ोसन है...
- मुखर! 16-9-16