उनके पिता पेंट ब्रश से झाँकी, साइनेजेस बनाते थे। वे कंप्यूटर पर ग्राफिक्स डिजाइन कर इंकजेट मशीनों पर फ्लेक्स प्रिंट्स निकाल होर्डिंगस बनाते हैं। तरक्की!!
"ग्रामीण लोहारों की आखिरी पीढ़ी ने मुँह मोड़ा "
विकास का पहिया ज्यों ज्यों आगे घूम रहा है पुराने काम धंधे दम तोड़ते जा रहे हैं। यह आधुनिकता की विडंबना समझी जाएगी कि समाज के जिस कमजोर तबके का जीवन स्तर सुधारने और उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं वही उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं। खास कर पुश्तैनी हुनर से नई पीढ़ी अलग थलग पड़ गई है। भारतीय उपमहाद्वीप के सभी विकासशील छोटे देशों में हालात कमोबेश एक जैसे हैं। बांग्लादेश में ग्रामीण लोहारों की आखिरी पीढ़ी इस धंधे को भारी मन से अलविदा कहने को विवश है।तकनीकी तरक्की और औद्योगिकरण की तेज रफ्तार ने उन्हें अपना कामकाज समेटने को मजबूर किया। कस्बाई और शहरी पृष्ठभूमि के लोहार तो जैसे तैसे अपनी गुजर बसर लायक काम ढूंढ ही लेते हैं लेकिन उनकी संतानें इसे जीविकोपार्जन का साधन मानने को राजी नहीं।
यह बानगी तो चावल की हांडी में से एक दाने की है। अब हमें समझना होगा कि प्रकार विकास की आड़ में जमीन जायदाद धन समृद्धि का रूख मुट्ठी भर लोगों की तरफ कर दिया जाता है।
- अखबार में पढ़े एक आलेख से प्रेरित।
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