Tuesday, March 31, 2015

" जो करना था, सो करना था "


NH10 में जब सरपंच अपनी बहु को मारती हुई धकियाती है तो पोता जिस प्रकार से हँसता है , मुझे हाहाकार मचाती अगली पीढ़ी की पूरी एक खेप नज़र आ गयी. मगर आखिरी में पिक्चर बहुत ही सशक्त तरीके से पूरे परिदृश्य का, सारी की सारी कहानी का निचोड़ सामने रख कर बहुत बड़ी सीख दे गयी आज की पीढ़ी को. विशिशकर नारी को - ' जो करना है, सो करना है ' .
" अब साहब, शहर बड़ा हो रहा है तो कूदेगा ही "
So, if boys will be boys , Girls ! तुम क्यों देवी बनी हुई हो ? उतरो ज़रा चार सीढ़ी नीचे !
क्योंकि जो समाज तुम्हें देवी बनाकर पूजता है वह हर कदम पर पाबंदी की बेड़ियाँ दाल कर भी तुम्हें तुम्हारा सम्मान नहीं दे पाता। गवाह है हर सुबह की अखबारी खबर में 2nd class की वह बच्ची जो फीस जमा नहीं होने की वज़ह से दुष्कर्म का शिकार होती है या ७२ वर्ष की वह नन आदि की !
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शिल्पा ने बलकॉनी से नीचे झाँक कर देखा - भाभी, कोई भी फैमिली नहीं है. "
' हम तो इसीलिए कभी भी ९-१२ का शो देखने नहीं आते '
पिक्चर ख़त्म हुई तो सीढीयों पर ताला लग चुका थ. लिफ़्ट खुली तो देखा आलरेडी ओवर लोडेड ! मन में ख़याल आया - सारे लड़के हैं ! अब ?
मुझे इंटरवल में दिखाया गया रेलवे स्टेशन वाला इश्तिहार याद आया -' ज्यादा औरतें होंगी तो ज्यादा सुरक्षा होगी ' .
दूसरी बार लिफ्ट में दो ladies भी थिं।
रात बेरात इन्हें स्टेशन ड्राप करने मैं क्यों नही जाती ? 'it's not safe' की फील की वजह से ही तो ?
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तुम्हे हमेशा अन्धेरा पडे ही ध्यान आता है बहार जाना ?
हमेशा कहां मम्मी ?
स्टेशनरी लेने साढ़े आठ बजे ?
अरे तो मैं कोई लड़की थोड़े न हूं ?
ओह्ह ! चौंकना ही मुझे ! एक्सीडेंट और बच्चा उठाने वाले करके अलावा ये सब तो मैंने कभी कहा ही नहीं इसे। फिर ?
' बेटा, अगर रात पड़े लड़कियां बाहर जाएंगी लड़के नहीं तो समाज ज्यादा ही नहीं पूरी तरह सुरक्षित होगा। लड़के भी कई बुरी आदतों से बचेंगे !
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कन्या पूजन, देवी पूजन आदि किसी मकसद की ओर इंगित करता है. हमें ढूँढना होगा, सोचना होग. पूजा से आडम्बरों को हटा कर अपने हर दिन हर पल के व्यवहार में समानता लानी होगी.
'जो करना है, सो करना है '
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जिस समाज में अठारह दिन नवरात्रे, गणगौर, शीतला माँ , सरस्वती पूजी जाती है। विडम्बना है कि पिछले सप्ताह ' डायन के प्रथा को रोकने के लिए कानून ' की भी अखबार में खबर थी।
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अरे देखो, तुम्हारे जन्मस्थल की खबर आई है। '
'कहां ? उड़ीसा की?'
' ९२ वर्षीय देवदासी के देहावसान के साथ ही ८०० साल पुरानी देवदासी प्रथा का अंत '
' मम्मी, जब इतनी पुरानी प्रथा भी ख़त्म की जा सकती है तो समाज में इतने गहरे बेस कुरीतियों को क्यों नही ?'
' और हाँ ! ८०० वर्ष पहले जब यह प्रथा शुरू की गई होगी तो लीक से हट कर नए रिवाज़ बनाने जैसा होगा। तो हम उन लोगों से भी कम समझदार हैं जो नई शुरूआात नही कर सकते ?
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हाँ मैं जानती हूँ। इंसानियत से नीचे सिर्फ बॉय/ गर्ल बने रहने के लिए, इविल्स का वध करने के लिये… अपनी कोमल भावनाओ , इन्नोसेंसी को खोते खोते… सिगरेट के काश की कितनी आवश्यकता होती होगी ! धुंए में लिपटे हर मौत की कसम NH10 में अनुष्का का सिगरेट पीना बुरा नहीं लगा !
' जो करना है, सो करना है '
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नोट - आर्टिकल में उद्धृत सभी खबरें इसी महिला दिवस से नवरात्रि के दौरान की हैं , प्राचीनकालीन नहीं !!
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जय माता दी ( जो थीं , हैं , और भविष्य में बनाने वाली सभी माताओं की जय )

Tuesday, March 3, 2015

- रंग ऊमंग संग -
रसोई से उठती महक परिवार के हर छोटे बडे सदस्य में उत्साह भर रहा है। सूरज को सर उठाए एक प्रहर भी नहीं हुआ और गली मुहल्ले में कर्णप्रिय हुल्लड सभी को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच रहा है। अभी हाल ही में दिवाली पर पुताई गई घर की दिवारों की भी चिंता किसी गृहलक्ष्मी को नहीं है। आखिर होली का त्यॊहार है ही ऐसा। साल में एक ही बार तो आता है। ( ये ऒरतें भी न ! जाने कैसी कैसी दलील देतीं हैं ! त्यॊहार तो सारे ही सालाना होते हैं ना ? :)
 मैं भी खुश होने की पूरी कोशिश में हूं। आबीर गुलाल की तरह घुल जाना चाहती हूं इस फ़ागुनी फ़िजाओं में । मगर कुछ ...कुछ कमी सी है क्या ?
" अरे भई रसोई हि में घुसी रहोगी ? बाहर तुमहारे लियॆ पुकार हो रही है। डर गई क्या ? हाहाहा..."
" जो पुकार रहीं हैं ना , उन्हीं की डिमांड थी मेरे हाथ के कांजी बडे की । तुम चलो, मैं बस आती हूं । "


बाहर बाल्कनी में मिठाई की ट्रे और बडे की हांण्डी रख गुलाल का पैकेट उठाने मेज पर आई तो देखा इतने साssरे रंग ! इतने प्यारे प्यारे रंग ! हर रंग पर दिल मचल मचल जाये ऎसे रंग !

 मगर मेरी आंखें ऎसे ढूंढ रही थी जैसे अभी कोई रंग बाकी रह गया । मगर कौन सा रंग ? अलसुबह से कुछ बैचॆनी सी है ...जैसे कुछ ...कोई सा रंग ढूंढ रही हूं...इस मेज पर आकर भी मेरी वह ढूंढ खत्म नहीं हुई थी।
इस बार सब कुछ ही तो है मेरे पास। बिल्कुल वैसा ही जैसा मैं हमेशा से चाहती थी ।

फ़िर ? फ़िर क्या कारण है कि एक बहाना ढूंढ लेना चाह्ती हूं इन रंगों से दूर किसी एकांत के लिये ?
                                                                                                                              - मुखर की डायरी से ।