Tuesday, July 28, 2015

"फिक्स्ड डिपॉज़िट " - कहानी




मन तो किया चिल्ला कर कहूँ - ' आपका फिक्स डिपॉज़िट आज फिर पी कर आया है !' मगर नहीं। मैं पापा के जले पर नमक नहीं छिड़क सकती थी। उनको दुःख होगा। तो क्या जो इस चक्कर में मैं कितने दुखों तले दबी पड़ी थी। 
जीवन की गोद में अभी मेरी आँख भी न खुली थी कि पापा को अक्सर दोस्तों से बात करते हुए मजाक में यह कहते सुना था - मेरे तो दो फिक्स डिपाजिट हैं और एक डेबिट नोट।  उस समय की कच्ची बुद्धि इतना तो समझ गयी थी कि ये बातें बैंक से सम्बंधित नहीं हैं। फिर ? …
मनोज भैया दूकान का रेनोवेशन करना चाहते थे. 'परचूनी' की दूकान उनके रुतबे से मेल नहीं खाती थी . 'डिपार्टमेंटल स्टोर ' बनाना है इसे। '
पापा भी सोचते थे - जब राजू एम.बी.बी.एस कर डॉक्टर बन जायेगा तब मनोज को कैसा लगेगा 'परचूनी' की दुकान ' पर बैठना ? सही कह रहा है बेचारा। 
 ' बेटा , ठीक है. लोन के पेपर्स बनवा ले. मैं साइन कर दूंगा। '
' पर पापा, भैया अपनी मेहनत और बचत से प्लान कर लेंगे रेनोवेशन. आज नहीं तो कुछ सालों बाद ही सही !' - मैं बोली। 
' शीतल सही कह रही है. अभी तो आपने इसके बी. एड के लिए लोन का चुकता किये हो. फिर से बोझ क्यों ? थोड़ा तो चैन … '
'अभी नौकरी बाकी है।  हो जायेगा सब बेटी। …' माँ की बात बीच ही में काटते हुए पापा बोल पड़े .
' क्लीनिक भी तो खोलूंगा मैं। अगली साल जब मेरी एम.बी.बी.एस पूरी हो जाएगी तो। '- राजू से बोले बिना रहा न गया। 
' उसकी चिंता मत कर तू।  मेरा पी.एफ पड़ा है अभी। पढ़ाई में ध्यान दिया कर। बस हॉस्टल में जा कर दोस्तों के साथ आवारागर्दी, दारु एक एक सेमिस्टर में तो साल भर लगा देता है ' - शुक्ला जी भी भड़क गए थे। 
इस तरह पापा के दोनों फिक्स डिपॉज़िट उनकी लाइफ से भारी भरकम प्रीमियम लिए जाते थे.
शीतल बी.एड. करते ही एक प्राइवेट स्कूल में लग गयी। सरकारी नौकरी के लिए फॉर्म निकलने में अभी टाइम था। पापा ने बहुत कहा एम.एड करने को. मगर वह पापा की माली हालत और ओढ़े गए जिम्मेदारियों को भली भांति जानती थी। फिर वह खुद का भी भार कैसे डाल सकती थी उन पर ?  कभी नहीं।  वैसे भी वो पहले ही से डेबिट नोट मानी जाती रही है।  अब और नहीं।  अब जिंदगी के फ़लसफ़े समझती थी वो। 
शीतल की कमाई को हाथ न लगाने की जैसे कसम थी माँ पापा को।  समाज के रिवाज ! उफ्फ़ ! खैर वह रकम शीतल के नाम बैंक अकाउंट में डाली जाती रही। 
मनोज अपनी दूकान का रेनोवेशन छेड़ चुका था। तो फिलहाल वहां से आमदनी रुक चुकी थी. राजू इस बार फिर रह गया था। कहता था इंटरनल के लिए पैसे खिलाने पड़ते हैं। 
क्या ये चिंता फ़िक्र ही थी कि पापा की हेल्थ दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी ? सभी टोकने लगे थे।  पापा कब तक नजरअंदाज करते ? शीतल ही की जिद पर आखिर मंजू उन्हें फोर्टिस में दिखा लाई। आज उसकी कमाई काम आ रही थी। साल भर की सर्दी खांसी बुखार आदि का ब्यौरा लेकर डॉक्टर ने बहुत सी जांच लिख दी। बाकी दूसरी सारी दवाइयाँ जो गली गली के डॉक्टरों से लिया करते थी , बंद करा दी।  जांच के तीन दिन में रिपोर्ट आ गयी. इसी बात का डर था पापा को। मन में सोचा , चलो टी बी ही है, कहीं कैंसर होता तो सुन ही कर मर जाता।
माँ पिता , दोनों को उनके इलाज से, ठीक होने से ज्यादा चिंता शीतल के ब्याह की लगी थी।
जुलाई में जो इंटरव्यू हुए थे उसका परिणाम आ गया था।  सेकंड ग्रेड की नौकरी लग गयी थी. शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर बिजोलाई में। 
' इतने दूर बिटिया को भेजना अच्छा नहीं।  वैसे भी आजकल दिनमान ठीक नहीं चल रहे. एक बार पारणा दें फिर ये जाने और इसके घर वाले। हमें कौन सी बेटी की कमाई खानी है ? ' - मंजू बोली जा रही थी।  और शुक्ला जी हैं कि मौन धारण किये बैठे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था.
उस दिन शुक्ला जी को जबरदस्त दौरा पड़ा था खांसी का।  अस्पताल ही में भर्ती होना पड़ा था. बिमारी या अस्पताल दवाई के खर्चे को लेकर किसी में कोई बात नहीं होती थी। शीतल पिछले एक ही साल में कितनी सयानी हो गयी थी।  नौकरी के साथ साथ अस्पताल के चक्कर लगाना, सब उसी की जिम्मेदारी थी।  उसने सरकारी नौकरी ज्वाइन कर ली थी।  अस्पताल से डिस्चार्ज होते वक़्त शुक्ला जी ने आखिर डॉक्टर साहब से पूछ ही लिया था फीस के बारे में।
डॉक्टर साहब जोर से हँसे ,' आपको पता नहीं ? शीतल बिटिया ने चेक काट दिए हैं। सब अकाउंट क्लियर है। भई शुक्ला साहब, बड़ी किस्मत वाले हैं आप कि ऐसी बिटिया पाई आपने ! आप सब चिंता छोड़िये भी।'
'भाभी जी , देखिये ! सभी बीमारियों की एक जड़ - चिंता ' .
मंजू बोल ही पड़ी, ' इस उम्र में अब चिंता हो ही जाती है।  दोनों बेटे अभी पाँव पर खड़े हो ही नहीं पाये हैं कि बिटिया ब्याह लायक
डॉक्टर साहब तपाक से बोल पड़े - 'तब तो मैं आपसे अभी अपनी फीस मांग साकता हूँ ' .
शुक्ला जी और मंजू एक दुसरे को देखने लगे,  कि अब कितना पैसा बाकी है !
'घबराइये मत ! कल मेरा बेटा शांतनु बंगलौर से आई.आई.एम. कम्प्लीट करके लौट रहा है. इज़ाज़त  हो तो अगले हफ्ते हम आ जाएँ शांतनु को शीतल से मिलवाने … ?'
शीतल का ब्याह राजी ख़ुशी हो गया।  शांतनु सिर्फ़ ऊंचे विचारों वाला ही नहीं बल्कि क्रांतिकारी विचारों वाला भी है। शुक्ला जी का दहेज़ के नाम पर एक धेला भी नहीं लगा था। डॉक्टर साहब की तमन्ना थी एक अपना अस्पताल खोलने की।  शांतनु अपने राज्य के लोगों, समाज के लिए कुछ करना चाहता था।  तय यह हुआ कि बिजोलाई में अस्पताल खोला जाये जो शांतनु मैनेज करेगा।  भविष्य में एक विद्यालय भी।  शीतल के सपनों में पहली बार रंग भरने लगे थे।  उसने पी.एच.डी में एनरोलमेंट भी करा लिया था। 
शीतल को और फिर शादी में आये दूर-पास के मेहमानों को विदा करके शुक्ला जी जिंदगी का हिसाब किताब करने बैठे  तो पता चला जिंदगी भर की जमा पूंजी दोनों बेटों के डेबिट ने चट कर लिया. और शीतल ? उसने तो जैसे उन्हें उनकी बिमारी से लौटा लाई ! वह तो दोनों ही परिवारों के लिए 'क्रेडिट नोट' साबित हुई !
" देखा मंजू , पूरी जिंदगी गुजर गई डेबिट - क्रेडिट समझने में ! "
****************************** मुखर ****************************************

Thursday, July 23, 2015

"यो यो" 🎼 (तंज )

न ये चांद होगा, न तारे रहेंगे...
कहीं दूर जब दिन ढल जाए...
ये धरती, ये नदिया,ये रैना और तुम...
अरे! आप भी ना बस! मैं कोई बेढब सी अंताक्षरी नहीं खेल रही। बात तो सुनो पहले।
मैंने जैसे ही एफ एम चलाया, उसने एक लेटेस्ट गाना सुनाया :-
डी.जे. वाले 🎶
अभी गाना का अंतरा खत्म हुआ ही था कि जो आवाज हमें सुनाई दी हम जान गए, गई भैंस पानी में! इन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों -सुनो सुनो, और सुनो!
पहला स्टेंजा खत्म होते होते उनकी सारी बातें सच हो गई। मैंने कहा -
जाने भी दो, आज की पीढ़ी है। जब से आँखें खोली होगी बच्चे ने देखा ही यही होगा।हर शाम पापा, काका और पडोस के ताऊ बैठ कर जो महफिल जमाते होंगे कि...आए दिन पार्टी शार्टी, दारू शारू, बोटी शोटी...
घर में जब भी गैदरिंग हुई, एक उम्र पार सब मुंडया नू एक एक कर थोड़ी देर के लिए गायब होते देखा है इसने। और लौटते ही उसी महक से भभकते भी।
बच्चे - गीली मिट्टी। जल्दी सीख गया।
हनी ने कभी मून तो देख्या सी नहीं। शाम होते ही Axe में नहा कर लो राईज पहने बेब को 350 cc बाइक पर बैठा कर मिडटाउन के हाई राइजेस के बीच उड़ते हुए सीधे डांस फ्लोर पर लैंड करते हैं। किसी आंटी की दखलअंदाजी इनके घर क्या कुणबे ही में पसंद नहीं की जाती।
पुलिस को हैंडल करना इनके काका के बांए हाथ की चिटकी उंगली का खेल रहा है। सी एम पावर और शैम्पेन शावर तो घर आंगन की बात है। अब इसमें मा दे लाडले का क्या कसूर अगर उसकी स्लेट पर से ही बेबी,बोतल, पार्टी, पुलिस,पावर सीखा है तो! माँ के हाथ चाहे कितने ही बर्तन झाडू दिखता हो, मंदिर की घंटी भी मगर प्ओ के हाथ जो गिलास दिखता है, यह बस उसी को सीखता है, याद रखता है। बदलते समय के समाज की देन है, बरदाश्त तो करना ही पड़ेगा। और आए दिन घर बाहर बड्डे पाट्टी हो या शादी व्याह, अब शोर शराबा तो इंही कानफोडू गानों का होगा। क्या करें, अब नाचने के लिए पांव भी तो इंही धुनो पर उठते हैं।
आपको क्या बताऊँ, पिछले रविवार दोपहर को जब मैं कार धो रही थी कि हमारे पड़ोसी हनी सिंह की औलाद अंगड़ाई जम्हाई लेता आया और बोला - ओए होए आंटी, की गल है! आज तो तुसी भी महक रहे हो, सेटरडे नाइट लेट नाइट पार्टी शार्टी में पेग शेग लगाए हो! हैं, एं!
ओए खोत्ए चुप्प कर! ए तो पसीने दी बू है।
------------------------------------- मुखर!

Wednesday, July 22, 2015

' दस रूपये में ख़ुशी '

उसे देखा है मैंने खुशियाँ पकाते ! जैसे कोई पुकारता हो - ले लो , ले लो , दस रुपये में खालिश ख़ुशी ! एक के एक के साथ एक एकदम मुफ्त !
बात यों  है कि उस दिन वो जो कार रुकी थी ना रेड लाइट पर. वो मचल उठी -
ज़रा विंडो रोल डाउन  करो तो।
अरे अभी नहीं, कितना पॉल्यूशन है यहाँ !
मगर मुझे बलून लेना है. जल्दी  ग्रीन लाइ ....
बलून का तुम क्या करोगी ? किट्टू तो अब गुब्बारों से खेलता नहीं , तुम्हे चाहिए क्या ?
जिद्द करके उसने दो बलून खरीद ही लिए थे।  बलून बेचने वाली बच्ची की दो बलून बेच पाने की खुशी को वह तब तक  आँखों से पीती रही जब तक ट्रेफिक फिर से चालू हो कर उस ठहरी हुई दुनिया से कार वालों की तेज़ रफ़्तार की दुनिया शीशा चढ़ा कर आगे न बढ़ गयी !
मगर कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती।
नारायण चौराहे पर पहुँचते हुए उसने उन्हें कार साइड में रोकने को कहा।
अब क्या हुआ ?
अरे रोको तो ! ( उसने दूर से ही मोड़ पर फुटपाथ पर खेलते दो बच्चों को देख  लिया था। )
कार के रुकते रुकते उसने शीशा नीचे कर लिया और हाथ बढ़ा कर वो दो बलून उन बच्चों को पकड़ा दिया था !
गियर  चेंज करते हुए वे देख रहे थे दस रुपये में डबल ख़ुशी कैसे मिलती है !
                                                      ---------------- मुखर !


Monday, July 20, 2015

जन्मदिवस

यह सालाना घटना है. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते पलटते जब जब इस आषाढ़ सावन के मोड़ पर पहुँचने को हुई, उठकर पहले सभी खिड़की दरवाज़े की चिटखनियां चढ़ा दिया करती हूँ. किसी भी प्रकार के उत्सवी कोलाहल से दूर। हो सके घर के वृत्त के भीतर के बाशिंदों से भी विलग कुछ अकेलेपन में कुछ गहरे में या शायद कुछ दार्शनिक अंदाज में यह सोलह जुलाई का पन्ना कुछ यों पलटना चाहती हूँ कि बस पंद्रह के बाद सीधे सत्रह ही की सुबह हो।
मगर इस बार तो अपने ने और अपनों ने जैसे कसम ही खाई हो चारदीवारी सब गिराएंगे आसमां कितना बड़ा है दिखाएंगे। थकान मिटाकर जब इस आभासीय दुनिया में झाँका तो पता लगा :-
इस आसमां का किनारा
दिखता तो है, होता तो नहीं।
किसको अपना कहुँ किसे पराया ,
ये दिल जानता नहीं, मानता भी नहीं !

             -  मुखर

Wednesday, July 8, 2015

"अवसाद "




मेरे  हाथ आ  लगा है
फिर वही चाक़ू !
कल ही की बात है-
जाने किस पर तो ,
पूरे चार बार घोंपने के बाद ,
पसीने से तर बतर
मैं नींद से उठ बैठी थी। 

याद है ना तुम्हें !
पिछली बार तो
पर्स में से निकाल ली थी बन्दूक !
फ़िर तो गोली की आवाज ही से
खुली थी नींद मेरी !
कई दिनों तक फ़िर
मेरे बालों में उंगली फ़िरा
तुमने उगाए थे फ़ूल
मेरे अन्तरमन में ।
और वो बन्दूक, वो चाकू
तुम्हारी फ़ूंक से
हवा हो गये थे !
आ बैठी थी, मेरे जहन में
किसी बंसी की मीठी सी धुन।
फ़ैल गया था उजास।
दूर दूर, आस पास।
जहाँ तक जाती थी नज़र ,
नजर आते थे कितने ही इन्द्रधनुष !
और तभी !
फ़िर तभी सूरज डूब गया !
इस बार अँधेरा
बहुत बहुत गहरा।
दिखते हैं गीत न हवा !
न महकते हैं चाँद तारे !
सजते नहीं हैं ख़्वाब भी अब।
सूनी सूनी  हैं महफिलें ,
चुप चुप हैं तन्हाईयाँ सब।
समय के भी ज्यों ,
कांटे निकल आये हैं। 
आंसुओं की  नदी के
पेटे निकल आये हैं।
मुस्कुराहटें भी
अजनबी अजनबी !
              -------------- मुखर !