Friday, May 11, 2012


      " उड़ गयी गौरैया  "

मैं किताब ले कर खिड़की पर आ कर बैठी ही थी की किसी के रोने की आवाज सुन चौंक गयी. बाहर वो दोनों बैठी शायद सुख दुःख बाँट रही थी. ये औरतें भी न जब देखो दुखड़ा ले कर बैठ जाती हैं...
"हुआ क्या ? बता तो ! रो रो कर जी हलकान किये हुए है, चोंच भी खोलेगी कि नहीं."
 "अब क्या बताऊँ बहना, आज की बात तो है नहीं, कहानी लम्बी है -

 बहार छाई थी...शहर फूलों की वादी हो गया था और चाहत का मौसम शबाब पर था. उसने मुझे इतने प्यार से देखा की मैं दिल हार बैठी."
उनकी बातें मुझे अच्छी लग रही थी. किताब बंद कर कोफ़ी ले आई और कान लगा कर बैठ गयी सुनने उनकी राम कहानी. आगे -
"फिर तो जैसे जिंदगी जश्न हो गयी...हम दोनों बहुत खुश थे...धरती पर पाओं ही नहीं पड़ते थे...सारा सारा दिन आकश नापते फिरते थे...बस चहकते ही रहते  थे. इश्वर का आशीर्वाद था की मेरे पैर भारी हुए. हमारे खुशियों के जैसे पर निकल आये..."
अब तक की कहानी सुन मेरे होठों पर मुस्कान तैरने  लगी थी. कितनी रूमानी थी न...
"अब घरौंदा के लिए हमने अच्छी सी जगह देखना शुरू किया. इधर देखा उधर देखा. दिन दिन भर मेहनत करते. पेड़ जो अब कम ही हैं. जो हैं वो उतने हरे भरे नहीं है. जो थोड़ी सी शाखाएं दिखती हैं वो धूप आंधी व् दुश्मनों की निगाह से सुरक्षित नहीं है."
मुझे बहुत गुस्सा आया हम मानवों पर . न खुद सुरक्षित रहेंगे न पर्यावरण को ही रहने देंगे. और इन मासूम बेजुबानो की तो कोई सोचता ही नहीं...
 "ख़ैर, हमने एक जगह ढून्ढ ही ली. इस घर के ऐ सी के डब्बे के पीछे घोंसला बना शुरू किया."
मेरा दिल धडका...
"पर  हर तीन चार दिन में सारे तिनके बिखरे मिलते. सहारा ही न था वहां ठीक से. पर चिड़ा है न बड़ा समझदार. बड़े करीने से किसी तरह घोंसला बना ही था कि फिर बिखरा मिला. मैंने एक दिन देखा इस घर में रहने वाली ही ने बनने से पहले ही उजाड़ दिया था मेरा घर. मैंने कितनी ही कोशिश की उड़ उड़ कर उसके आस पास कि उसे कुछ समझ आये कुछ दया ही आये. मगर जैसे वो अंधी ही थी. इधर मेरे दिन पूरे हो रहे थे."
अब तक जैसे मुझे लकवा मार गया था. मेरे चहरे पर हवाईयां उड़ रही थी...
" कुछ चिंता की वजह से कुछ मौसम के बदलाव से मैंने अंडे समय से पहले ही दे दिए. वही ऐ सी के पीछे दिए, क्या करती ? और कोई चारा भी तो न था ! बहुत प्रार्थना की थी मैंने प्रभु से हमारी और इन अजन्मे मासूमों की रक्षा के लिए. मगर कल रात आई आंधी में उजड़ गया मेरा घरोंदा."
"पर मैंने तो देखा है इसे फेसबुक पर 'चिड़िया बचाओ' गौरईया बचाओ' के पोस्ट डालते हुए. और बहुत से 'लाईक्स' कमेंट्स लेते देते हुए. ये ऐसा कैसे कर सकती है?"
"हाँ, इसने घर के बहार परिंडा भी बाँधा...रोज दाना पानी भी देती है...पर घोंसला भी तो चाहिए होता है न? हमारे लिए न सही, कम से कम होने वाले चूजों के बारे में तो सोचती!! सिर्फ फेसबुक पर अभियान चलाने  से तो कुछ नहीं होगा न."
मेरे कान फटे जा रहे थे. आंसू की अविरल धारा बही जा रही थी. मैं घोर दोष में दबी जा रही थी...क्या करती ! अब तो मेरे हाथों से तोते ही नहीं गौरैयां भी उड़ चुकी थी...                                                                मुखर.

http://www.facebook.com/kavita.singh.332

2 comments:

Surander Sharma said...

jitne bhi tarif karo kam he hoge ..............
very nice ....................................
beautiful .....................................
awesome .......................................

Mukhar said...

itni sari tareef ke liye bahut bahut dhanyawad Surander!