चले आओ !
काम के बोझ के मौसम में
मेरे अन्दर का मैं जब तब ताने देता है, कभी फुर्सत मिलेगी मेरे लिए भी ? कहना है
बहुत कुछ, सुनना है बहुत कुछ !
कभी मुस्कुरा कर और अक्सर
अनसुना कर मैं खुद मौसम के बदल जाने का बेसब्री से इन्तजार करती हूँ.
ज्यों ज्यों समय करवट लेता
है नस नस पोर पोर शिथिल होती जाती है.
और फिर एक छुट्टी के दिन
बड़े फुरसत में मैं धूप बिछा कर जरा कमर सीधी करती हूँ कि पाती हूँ मैं कहीं नहीं
हूँ ?
अरे भई कहाँ हो ?
दिमाग पे दस्तक दी, देखा वहां
बड़ा सा ताला जड़ा हुआ था !
दिल को सहलाया तो पाया वो
भी ऑटो -पायलट के सहारे था . मैं सोच में पड गयी.
जो अब तक उबल रही थी वो विचारों
की हांडी क्यों हो जाती है एकदम खाली ! लपटें भी नहीं उठती ! फूंकनी भी जाने कहाँ
तो लुढ़क गयी है ! माचिस की एक एक तीली सीली पड़ी है !
ये क्या हो जाता है मुझे ?
ये कैसी लुका छिपी है मेरी मुझसे ? क्यों नहीं जब मुझे मेरी सिद्दत की जरूरत होती
है थोडा वक़्त चुरा पाती हूँ ? और जब वक़्त का पूरा का पूरा आसमान होता है मैं ही खो
जाती हूँ ? ये जिंदगी की कैसी साजिश है जो मुझे मेरी ही नहीं सुनने देती ?
आ जाओ मुखर, मौसम के बदलने
से पहले . इंतज़ार है मुझे मेरा !
- मुखर !
2 comments:
जल्दी लौटना ज़रूरी है.
कैलाश निहारिका जी :)
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