Tuesday, July 24, 2018

"कितनी चोखी कैसी ढाणी"


बिड़ला मंदिर और मोती डुंगरी के बारे में ज्ञान पेलने के बाद जब हम निकले चोखी ढाणी की तरफ़ तो मुझे बच्चों पर दया आ गई और सोचा ख़ुद ही अनुभव करने दो क्या तो ढाणी और क्या चोखी ढाणी! 
पाँच सितारा स्वागत! रोली टीका! शहनाई! मांडने, खिड़की दरवाजे, ताले, और हज़ारों प्रकार के हस्तशिल्प के आइटम्स से सुसज्जित! आँखें फटी की फटी और अहा वाह के बीच क्लिक क्लिक! 
“मैं ऊँट पर बैठूंगी! असली के!”
“हाँ बेटा, हाथी, घोड़ा, बैलगाड़ी भी असली के!” 
जलजीरा पी कर घूमते घामते कठपुतली का. खेल देखा, जादू का खेल देखा फ़िर सीढ़ियाँ चढ़ एक टपरी पर पहुँचे! कोई बारह बाई पाँच कोठरी सी जिसमें देखने को आटा चक्की, पानी का घड़ा और औझरे में माटी का एक नंगा शिशु! दूसरे कोने में चूल्हे पर मक्के की रोटी सेकती एक वृद्धा जो हम मेहमानों को पत्ते के दोने में रोटी का टुकड़ा पर ताज़ा मक्खन और लहसन की चटनी डाल प्रेम से खिला रही थी। 
मैं उनके पास ही बैठ गई। 
“आपने जैसे लोया बनाया, यह मक्की का आटा तो नहीं लग रहा!” 
“शंकर नहीं ठेठ असली मकई रो आटा है!” उसने कचोरी सी फूली बड़ी सी रोटी को चीमटे से पलटा!
“कहाँ से आती हैं अम्मा आप !” 
“यही कोई एक घंटे का रस्ता है म्हारे गांम को! चाकसू सू पेली!”
“कैसे आते हैं?” 
“पैदल ही आऊँ हूँ बेटा!” उन्होंने सिकी रोटी के चार टुकड़े कर चार दोने बनाए, मक्खन रखी तो मैंने उनमें चटनी और गुड़ डाल कर पीछे खड़े मेहमानों को पकड़ाया तो वह स्त्री हँसती हुई मुझ पर हाथ का पंखा झलने लगी! 
“कित्ता बजे तक जाओगा आप?”
“इग्यारह बजे सीक! बारा बजे ताईं तो पूंच जाऊँ घरां !”
“थे कमाओ कत्ताक हो!”
“सौ रूपिया रोज की! चार बजा की आई हूँ!” 
तीन दोने लेकर बाहर हम सबमें बांट लिया! उँगली चाट चटखारे लेते हम नीचे उतरे। 
संग्रहालय, भूलभुलैया, बहुत ऊँची फिसल पट्टी, नटों का खेल, मेले में मिलने वाली सारी दुकानें, सारे खेल… तीर कमान, बंदूक, बॉलिंग alley, रिंग.. आदि आदि… 
बनावटी अँधेरा जंगल, स्पीकर से आती जंगली जानवरों की आवाजें, पानी की नहर पर कई टापू और पुल और नौकायन , घुप्प अँधेरी गुफ़ा, मचान, टेकरी पर मन्दिर, जंगल के देवता के चबूतरे पर नगाड़े बज़ाता एक ग्रामीण और पर्यटकों के बच्चों को जंगली नृत्य हुलाला कराता जंगली कॉस्ट्यूम में एक ग्रामीण! 
जंगल से बाहर निकलते ही विभिन्न राज्यों की झलक लिए कई छोटी छोटी कोठियाँ जिन पर उसी राज्य की वेशभूषा में तैनात ग्रामीण! न! उनमें से किसी को उन राज्यों की भाषा नहीं आती। 
“बाबा आपको मलयालम भाषा आती है? कुछ तो शब्द सीखना!” 
“आप जैपुर का कुण सा गांव… कुण जात?”
“ बा सा! कुण सा जमाना री बातां करो हो… अब कोई जात पात कोनी हुआ कर ह…बस अमीर और गरीब, मलिक और नौकर! कुण सी भी जात हो मिलेगा तो वा ही सौ रिपिया!”
दूमंजिले मचान से सारी ढाणी का रूप निरख हम जीमने (खाने) पहुँचे। लंबी कतार में आधा घंटा इंतज़ार के बाद भरी उमस में खाना खाने दरी पर बैठे और ऊँची चौकी पर पत्तल दोने में छप्‍पन नहीं तो पता नहीं कितने पकवान परोसे गए । 
“अरे बस्स! इतना घी?” 
“अरे सेठानी! क्यूँ शर्माओ हो! दुबल्या हो रहा हो… थे तो जीमो!” 
मान - मनुहार कर जबर्दस्ती थाली में डाला भी गया। दो चार नहीं सबने ही जितना खाया दुगुना जूठा छोड़ा! वहीं पत्तल पर हाथ धुपाया। हमारे उठते उठते वे सारे पत्तल भोजन समेत बड़ी बड़ी काली थेलियों के हवाले हो गईं। 
हाथ धोते, जूते चप्पल पहनते हर कोई बात करता सुना जा सकता था कि भोजन की बहुत बर्बादी है। 
जरा हवा महसूस हुई, लगता है दूर कहीं बारिश हुई है। हम ननद भौजाई भतीजी वहीं पास में मेहँदी लगवाने बैठ गईं। 
“आसपास ही है म्हे सबरा गाम। बारा बजे करीब जाश्यान! सौ रिपिया मिल जाया करअ ह।… ना एकली नई, म्हे भाईलियाँ सागअ आया करन्… के बेरा कत्ता लोग काम करअ हैं अठे!...के तो लुगायां, आदमी, टाबर… ” मैं अंदाजा लगा रही थी… करीब हज़ार तो होंगे ही ?…..आठ नौ घंटे? न्यूनतम मजदूरी? टिकिट तो 800-1000 /- प्रति व्यक्ति! भीड़ ठसाठस!... 
मेंहदी लगवा कर जब हम ढूँढते हुए पहुंचे तो देखा तीनों के तीनों अलग अलग खाट पर पसरे थे! 
“आज एक अरसे के बाद ऎसे देख रहा हूँ आसमान!” 
मैंने ऊपर देखा तो विस्मित रह गई, गहरे नीले असमान में डेरा जमाते रूई से बादल! मैं भी बाएँ हाथ की मेहँदी संभालती वहीं अधलेटी हुई। 
“एक बात नोटिस की तुमने?” 
“क्या?” 
“यहाँ इतनी घनी हरियाली है और दिनभर में कितनी ही बार बारिश हुई मग़र एक मच्छर मक्खी नहीं… उड़ने वाले या कैसे भी कीड़े नहीं!”
“अरे हाँ!” मैं उठ बैठी थी. 
“और ना ही किसी प्रकार के पक्षी!... कस्टमर को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए…”
मैं सोच नहीं पाई क्या उपाय किया गया होगा! 
“ढाणी! वह भी चोखी! पैसा हो, प्रकृति नहीं!” 
“अहाँ! प्रकृति वही जो पैसा दे!” 
… और हम?? 
मुखर

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Monday, July 2, 2018

"सुंदरता, गुण और आत्म विश्वास" - संस्मरण


उस सच्ची कहानी का अंत क्या हुआ पता नहीं। जब मैं दूसरी तीसरी कक्षा में थी तब वह और मैं साथ साथ स्कूल आते जाते थे। 
बात सत्तर के दशक की है। रांची के एच ई सी कॉलोनी से हम दस दुकान चौराहा तक पैदल जाते थे स्कूल बस पकड़ने. मैं अपने घर से अकेली या भाई के साथ जाती. रस्ते में उसका घर पड़ता. उस कॉलोनी में सारे क्वार्टर ही थे. काफी समय तक तो मैं समझती थी कि दुनिया में क्वार्टर ही होते हैं. अलग अलग रँग रूप आकार के घर तो दादी के गाँव में होते हैं। या फिर 1984 में जोधपुर आने पर ही देखे।
हाँ, तो उसकी मेरी दोस्ती के क्या कारण थे वो जीवन में बहुत बाद में समझ आया. मैं गोरी हूँ यह तो मुझे तब भी पता था. और वह बहुत काली. मग़र मुझे वह अधिक सुन्दर लगती। तब सुंदरता के मायने शायद मेरे अपने एहसास थे. तो वे क्या थे? वह मुझे सुंदर क्यों लगती थी?
धुर्वा के के.वी. तक कोई बीस तीस मिनट का बस का सफ़र आना और जाना.
मैं पढ़ाई में इतनी ढ़पोर कि कक्षा में फ़र्स्ट आती थी… नीचे से! सो या तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे, हर टेस्ट में ज़ीरो वन मार्क्स की घोषणा पर… Yaया फिर मेरा ही आत्म विश्वास इतना कम था कि मुझे लगता मेरे कोई दोस्त नहीं हैं। लगता क्या था, दोस्त थे भी नहीं। मैं बताती हूँ मेरा ऎसा लगने के पीछे ठोस कारण हैं। games के पीरियड की बेल बजते ही सब classmates भाग कर ग्राउंड पर पहुँच जाते और मुझे कक्षा से सबके टिफ़िन बॉक्स लाने पड़ते। recess ओवर होने की बेल बजती और सब नंगे पाँव ही क्लास में दौड़ जाते, मुझे उनके जूते उठा कर लाने पड़ते। शायद ऎसा हमेशा नहीं हुआ होगा परन्तु दुखद यादें ऎसी चिपकती हैं कि वही रह जाती हैं बस।
तो बस में सभी अपने अपने मित्र के साथ बैठते। मेरे लिए जो सीट बचती वहाँ वह मिलती। शायद यही कारण था 
हम दोनों के साथ होने का. चूँकि मैं ढ़पोर थी सो कभी जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसी थी पढ़ाई में। वह मुझसे दूर नहीं भागती थी, मेरा मजाक नहीं उड़ाती थी और सबसे अहम बात कि वह भी अकेली ही थी, अतः मेरी दोस्त थी। 
प्रिंसिपल सर पापा के अच्छे मित्र थे तो उनकी बिटिया देबयानी सेन भी मेरी अच्छी दोस्ती थी, मग़र उसके साथ रहते हुए भी गहरे में कहीं inferiority complex था या यह अहसास कि मैं कमतर हूँ । उस धरातल पर वह लड़की ही मेरे समकक्ष लगती। ख़ैर… 
पापा के तबादले के कारण मेरा स्कूल बदला और फ़िर दोस्त भी बने। क्रोशिया, खेल, योगा में स्कूल स्तर पर टॉप करने के कारण आत्म विश्वास भी बढ़ा, कालांतर में पढ़ाई भी की। मग़र जहन में हमेशा वह लड़की बनी रही… अब मैं समझ रही थी कि पढ़ाई में भले ही वह कैसी भी रही हो, उसका काला रँग ही उसके अकेले होने का कारण था। 
नौकरी के दौरान मैं एक बेहद बदसूरत (मानकों के अनुसार) लड़की को किसी भी अत्यंत सुंदर लड़की से अधिक प्रतिभावान, लोकप्रिय व आत्म विश्वास से लबरेज पाया तो फ़िर वह लड़की याद आई और एक बोझ सीने से उतरा। बाद में एक और सहकर्मी जो काली तो बहुत थी मग़र नैन नक्श एकदम दुर्गा माँ के आइकॉन जैसा साथ ही में बेहद प्रतिभावान के साथ तीन वर्ष काम किया। इस बीच उस बचपन की मित्र का नाम मैं भूल गई। लगता है मेरे मन से उसके अकेलेपन का भाव/दर्द ख़त्म हो गया था। 
आज FB के एक पोस्ट से फ़िर उसकी याद आई… एक मुस्कान के साथ! 
- मुखर