Friday, December 27, 2013

 " बारात जिंदगी की "

मैं मुस्कुराती हूँ-

कि मेरे आंगन से

गुजरती है बारात जिंदगी की !

मैं मौन हूँ -

कि उसी जिंदगी के

तहखाने के रौशनदान से

देखती हूँ मैं -

खुशियों को घूमर डालते !

आनन्द को झूमते !

कहकहों को झिलमिलाते !

सुनती हूँ सपनों कि शहनाईयां !

नहीं जानती कि -

ये बारात क्यों है !

जानती नहीं-

जिंदगी क्या है !

और ये भी नहीं,

ये तहखाना कैसा !

मैं परेशान हूँ कि -

कोई तो दरवाजा हो,

कहानी की शुरुआत तो हो !

देखना है मुझे -

किस तोरण पर

जाती है जिंदगी के बारात !!


                  मुखर .

Tuesday, December 17, 2013

 " नेचुरली !! "
अभी कोई पिछले महीने ही की बात है. हमने 'इनको' बताया की फेसबुक पर हमारी एक पुरानी  सहपाठिन ने बड़ा धमाल मचा रखा है, बड़ा फक्र है उस पर हमे. गर्व इस बात का भी है की हमारा उसका फर्स्ट नेम भी सेम है. मेरे चेहरे की लाली देख कर उन्होंने हमे घूरा. एक पल को तो हम घबरा गए, फिर क्लियर किया की वो सहपाठिन थी न की सहपाठी ! 
ये LGBT टर्म हमने जब पहली बार पढ़ा, जाना तो हम बड़े पशोपस में फंस गए. हमारा एक-आध अफेयर्स (इस 'आध ' के विषय में कोई टिपण्णी बर्दास्त नहीं की जाएगी ) के अलावा जितने भी लोग हमारे दिल के बेहद करीब आये वे सारे के सारे मेरे अपने जेंडर वाले निकले. इसीलिए हमने कभी 'ध्यान' ही नहीं दिया अपने किसी ऐसे वैसे 'रूझान' की तरफ ! वैसे भी हमारे संस्कारों ने किसी भी तरह के रुझान को दमित ही किया था. यहाँ तक की सांस भी कितनी कब लेनी है अबोले नियमों की तहत निर्धारित थे. अब इस उम्र में ये 'ओरिएंटेशन ' शब्द ने हमारे दिमाग का दही किये हुए है.
अब हमे अपने आप पर थोडा डाउट होता है. थोडा अफ़सोस भी. पूछ लो हमारे सभी स्कूल मेट्स से हम कितने सीधे- साधे कहलाते थे. अगर हम इतने ही 'स्ट्रेट' थे/हैं तो यह हमारी खुद ही चॉइस होनी चाहिए थी...ये क्या की बचपन से ही परियों की कहानियों, फ़िल्मी गीतों और समाज-परिवार की रीतियों से दिमाग में एक ही तस्वीर उकेरी - Mr. राईट ! थैंक गॉड , इन रीतियों, गीतों व कहांनियों ने कम से कम एक रुझान तो हमारी किस्मत में लिखा ! अब ये मिस्टर कितने राईट हैं कितने रोंग यह भी, हमारे संस्कारों के अनुसार, सोचना वर्जित है.
anyways !
किसी समय दास -प्रथा बाइबल के हिसाब से सही मानी जाती थी. क्यूंकि अश्वेत लोग प्राकृतिक रूप से ही बुध्हिहीन और शारीरिक रूप से बलवान माने गए थे जिन्हें नियंत्रण में रखने और आदेश देने के लिए 'प्राकृतिक' रूप से ज्यादा बुध्हिमान सफ़ेद चमड़ी वालों का उन पर राज करना नयोचित था. एक वक़्त ऐसा भी था जब औरतों का प्रसव पीड़ा सहना जरूरी था और उनकी मदद करने वाली दाईयों को मौत तक की सजा मिलने का प्रावधान था क्योंकि ऐसी मदद 'अप्राकृतिक' और भगवान् की मर्जी के खिलाफ थी. हिटलर ने यहूदियों के दमन को 'प्राकृतिक' ठहराने के लिए डार्विन के सिधान्तों के बेतुके मतलब निकल दिखाए थे. उसने दो नस्लों के मिलन को घातक बताया था. हमारे देश में ऐसे तर्क जातियों के संधर्भ में दिए जाते हैं. 'शुद्ध-अशुद्ध के ताम -झाम ने तमाम जातियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित कर रखा था.  ( यह पैराग्राफ शेवेता रानी खत्री जी के ब्लॉग से लिया गया है )
अब सोचने वाली बात ये है की हमारा रुझान माने कि ''ओरिएंटेशन ' प्राकृतिक है, या संस्कार जनित है, या थोपे हुए संस्कारों के स्वाभाविक विरोध (जिसके लिए हम खासे बदनाम हैं) की वजह से है या फिर यह कानून का डंडा धारा 377 ? हैं ?
नेचुरली बहुत कन्फ्यूजन है भई ! ओह्ह ! कहीं ये कन्फ्यूजन भी अन-नेचुरल माने कि अप्राकृतिक तो नहीं !! हाय हमारा धर्म ! हाय हमारे कानून !!

-----------------------------------------मुखर 

Friday, December 6, 2013

 " सर जी, एक आईडिया ! "

बड़े बड़े धुरंदरों, तीरंदाजों, ' ऑनेराब्लों ' को अर्श से फर्श होते देख सुन रहें हैं हम आजकल.
और कारण ? कारण तो भैया ज्यादा कुछ खास नहीं है. विभिन्न बहसों में इस कारण का नाम दिया जा रहा है ' क्षणिक आवेग ' माने कि ' हीट ऑफ़ द मोमेन्ट ' !
लो जी ! मिल गया गिरे हुओ को सहारा, तिनके का ही सही ! कम से कम खड़े तो हो गए ! थोडा सहानुभूति सा फील होता है जी, बस !
पर सांची कहें हमने तो बड़ा थ्यावस है मन में. पूछो हो काहे का थ्यावस ? अरे भई ये जो बिमारी है न , ' क्षणिक आवेग ' वाली ? हाँ वही 'हीट' वाली ...वो बिमारी नर-जात को ही होत है. नहीं तो हम कहते हैं ये जो सो कॉल्ड सिविलाईजेशन थोडा बहुत चलता फिरता दीखे है न , हो गया था इसका भी बंटाधार !
अब ये जो बात है कि हमारे को ये लिंगभेद माने की जेंडर डिस्क्रिमीनेशन का जो कीड़ा बार बार क्यों काटता है तो हमको इसका राज भी पता चल गया. बताएँगे...बतायेंगे...थोडा तसल्ली तो रखिये !
तो सोचना तो पड़ेगा इस जानवर-पने से ऊपर उठने का कोनो उपाय ! आखिर कब तलक नर-जात सहानुभूति पर जिन्दा रहेगी ? हैं ना सर जी ?
हाँ तो सर जी, हम सोचे सोचे और बहुते सोचे . परन्तु जब कोई उपाय नहीं सूझा तो लगे कारणों को ढूँढने ! कि आखिर नर-नारी के रहन - सहन ही में कोई अंतर है जो इतना बड़ा खाई बना जाता है !
और तभी हमारा मन चिहुंका - उरेका उरेका !! (अब हमसे ये मत पूछिए कि ये उरेका का यूरेका है का )
हाँ तो, हमको पता है कि कुछ सर जी हम पर हंसेंगे. मगर हमको ये भी पता है कि मन ही मन कहेंगे - बात में थोडा सा ही सही, दम तो है !
यही तो !!
और सर जी हमारा उपाय बिंदु है - १) नर-जात का पायल-चूड़ी कम्पलसरी कर देओ ! कहीं भी चोरी छिपे नहीं आ जा सकेगा फेर !
सबका कान खड़ा हो जायेगा - छनन छम ! जरा भी हिला-डूला की छनन छम ! मन का सारा कलेश वहीँ दम तोड़ देगा ! हिम्मत ही नहीं होगा कुछ गलत तो क्या सही भी सोचने का ! वो राजस्थानी गीत सुने हैं न -
"ओ म्हारी रुनक झुनक पायल बाजे सा,
कीकर आऊँ सा ! "
अपना पिय को भी मिलने नहीं जा सकती !!
२ ) दूसरा बिंदु है टेस्टोस्टेरोन  ! ये जो हारमों का डिफरेन्स है न, इसको कण्ट्रोल करने का इक्को एक तरीका युगों से अजमाया हुआ है - प्रेशर पॉइंट ! हाँ ! पांव में बिछिया और नाक में नथ ! ई दोनों पहनने से बहुते ही फायदा होत है. एइसा हम नहीं कह रहे. आजकल पढ़ी-लिखी बहुओं और दूसरी औरतों को समझाया जाता है ! क्या फायदा होता है ये किसी को पता नहीं, परन्तु फायदा होता जरूर है !
हम फिर से सोचे. बहुत बहुते सोचे. और एक बार फिर से हमको समझ में आ ही गया, फायदा ! ये प्रेशर पॉइंट हो न हो इसी ' हीट ' को कण्ट्रोल करते होंगे ! क्यों है न ?
अब हमरा आईडिया को कानूनी पायजामा पहनाने में टेम लग सकता है. परन्तु हमको लगता है सर जी समाज जो ठान ले फिर तो कोई कानून क्या उखाड़ लेगा !
हाँ, हो सकता है एक-दो पीढ़ी लगे नर- जात की सोच और हरमोन संतुलन में आने में ! परन्तु आईडिया तो झक्कास है न सर जी !
हाँ तो, हमारा जो राज है - जेंडर डिसक्रीमीनेशन वाला कीड़ा द्वारा का बार बार काटने वाला - तो यही है वो राज कि हम ना तो बिछिया पहनते हैं और ना ही नथ . तभी तो इतना 'अ- सामाजिक ' माने क्रांतिकारी विचार हमारा दिमाग में उठता रहता है. परन्तु का करें, हमारा सारा हीट सिस्टम के खिलाफ/ सुधारने सोचने में लग जाता है ना !!

                                                             - मुखर ! 

Monday, December 2, 2013

चले आओ !
काम के बोझ के मौसम में मेरे अन्दर का मैं जब तब ताने देता है, कभी फुर्सत मिलेगी मेरे लिए भी ? कहना है बहुत कुछ, सुनना है बहुत कुछ !
कभी मुस्कुरा कर और अक्सर अनसुना कर मैं खुद मौसम के बदल जाने का बेसब्री से इन्तजार करती हूँ.
ज्यों ज्यों समय करवट लेता है नस नस पोर पोर शिथिल होती जाती है.
और फिर एक छुट्टी के दिन बड़े फुरसत में मैं धूप बिछा कर जरा कमर सीधी करती हूँ कि पाती हूँ मैं कहीं नहीं हूँ ?
अरे भई कहाँ हो ?
दिमाग पे दस्तक दी, देखा वहां बड़ा सा ताला जड़ा हुआ था !
दिल को सहलाया तो पाया वो भी ऑटो -पायलट के सहारे था . मैं सोच में पड गयी.
जो अब तक उबल रही थी वो विचारों की हांडी क्यों हो जाती है एकदम खाली ! लपटें भी नहीं उठती ! फूंकनी भी जाने कहाँ तो लुढ़क गयी है ! माचिस की एक एक तीली सीली पड़ी है !
ये क्या हो जाता है मुझे ? ये कैसी लुका छिपी है मेरी मुझसे ? क्यों नहीं जब मुझे मेरी सिद्दत की जरूरत होती है थोडा वक़्त चुरा पाती हूँ ? और जब वक़्त का पूरा का पूरा आसमान होता है मैं ही खो जाती हूँ ? ये जिंदगी की कैसी साजिश है जो मुझे मेरी ही नहीं सुनने देती ?
आ जाओ मुखर, मौसम के बदलने से पहले . इंतज़ार है मुझे मेरा !

                                              - मुखर ! 

Friday, October 25, 2013

जब तुम चली जाती हो न तो...तो ये लहरें संगीत नहीं सुनाती, शोर करती हैं...दर्दभरा शोर...

" पहलू..."https://www.facebook.com/kavita.singh.332

' अच्छा सुनो, आज तुम्हे मैं एक बात बताऊँ..."
'नहीं सुननी तुम्हारी कोई बात. कोरी कल्पना है तुम्हारी बातें. बस थोड़ी देर को राहत मिलती है...तुम्हारे चले जाने के बाद यथार्त वैसा ही खारा...'
अरे ! फिर वही ! तो यों ही खींचे चले आतें है लोग तुम्हारे पास ? '
पर ! किसी की प्यास बुझा पाया हूँ मैं आज तक ?
ओफ्फो ! तुम्हे समझाना बिलकुल बेकार. वो कहावत सुनी है न...
हाँ हाँ, भैंस के आगे बीन...
हहहहाहा...तो तुम्हे कंठस्थ हो गए हैं मेरे डायलोग ? मगर मैं वो बात नहीं कह..
तो फिर ?'
इतना विशाल सीना है तुम्हारा. सोचा थोडा दिमाग भी होगा सर में. मगर तुम तो एक बात पकड़ कर यों बैठ गए हो जैसे गिलास का दसवां हिस्सा भी खाली है तो आखिर खाली ही है ! '
रहने दो तुम्हारी फीलोसोफि ! आज मूड नहीं है. वो बताओ जो तुम बताने आई थी.
मूड नहीं है तो रहने दो. तुम्हे समझ नहीं आएगी. वैसे भी मेरी सारी ही बातें फिलोसोफिकल होती है.
अच्छा बाबा ठीक है, बताओ. वैसे भी तुम ज्यादा देर तो चुप रह नहीं सकती. चुप बैठी तो चले जाने की जिद करोगी. और पता है, जब तुम चली जाती हो न तो...तो ये लहरें संगीत नहीं सुनाती, शोर करती हैं...दर्दभरा शोर...
अच्छा तो सुनो, वो जो पौधा मैं बता रही थी न कि एकदम सूख गया...मर ही गया...उसे
चलो तुमने उसे निकल कर फेंक दिया. अब नया पौधा लगा सकोगी वहां..
अरे नहीं, आज मैं उसे निकालने ही को झुकी थी कि उसकी सूखी डंठल में कोमल सी हलकी गुलाबी सी २-३ कोंपलें दिखी...
अरे वाह ! क्या बात है !
हाँ, और मैं उसे निहारती वहीँ बैठ गयी तो उस शाख ने मुझे एक राज की बात बताई.
राज की बात ?
हाँ. उसने बताया की जब उस पौधे को एक जगह से उखाड कर दूसरी जगह लगाया गया, तो उसके लिए समय बहुत कष्टकर था...लगभग दुसरे जीवन सा. फिर मैं ८ दिनों की छुट्टी पर चली गयी तो उसकी  देखभाल नही हो सकी. जब मैं लौटी तो उसे मरणासन्न पर पाया. मैंने बहुत देखभाल की मगर फिर शायद उसके सितारे ही गर्दिश में थे कि गर्मी ने हद कर दी और उसकी सांस उखाड़ने लगी.
फिर?
मैंने भी आँखों में आंसू भर कर मौन ही उससे यही पूछा. उसने बताया उसने अपनी सारी जान पत्तियों, काँटों, गांठों व शाखों से समेट कर नीचे जड़ के अंतर्मन से भी अंदर आत्मा में कहीं छुपा ली. और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ एक ही प्रार्थना की.
क्या प्रार्थना की ?
कि ये मुखर बेहद प्रेम करती है मुझसे. मुझसे ज्यादा मेरी जान उसे प्यारी है. उसके लिए मुझे फिर जीवन दान देना हे प्रभु !
सही कहा उसने.
क्या खाक सही कहा ? मुझसे ज्यादा कोई और प्रेम करता था उसे. यह बात आगे की कहानी में मुझे हवा ने बताई.
हवा ने ? क्या बताया हवा ने ?
कि कोई है जिसने कभी इसे देखा भी नहीं...मगर इसके जीवन के लिए भारी तप कर अपना वजूद मिटा अपनी प्रकृति ही बदल डाली. और सात समुंदर पार से आ कर आसमान के रस्ते अमृत का बूँद बनकर रिमझिम संगीत बन उस पौधे की आत्मा के कान में प्राण फूंक आया...आया कुछ समझ ?
आया !
क्या खाक समझ आया ? वो और कोई नहीं तुम ही हो. वो मीठा मन तुम्हारा ही तो है. यहाँ किसी की प्यास नहीं बुझा पाता का दर्द लिए बैठे हो खरा हूँ कहते हो जरा अपने ह्रदय में झाँक कर देखो ! पता है सारी धरती पर जीवन तुम्ही से है !
क्या सच ?
हाँ, मुच !
हहाहाहा ...
अरे भिगोवोगे क्या मुझे...
ये लहरें बाहें बन कर तुम्हे..
उसके पहले मैं चली...
और समंदर ने देखा वो चाँद बनकर किसी खिड़की के रस्ते किसी कमरे में उतर गयी गहरे नींद में. और उसके खुद के सीने पर मछुवारे उतर आये थे भोर की बेला में....

-----------------------मुखर !  

Tuesday, July 23, 2013

इश्क करूं या करूं इबादत ...

जाने क्या था वहां...की कुछ भी नहीं था या ...सब कुछ ही था...
देर तक दूर तक शुन्य में निहारती मेरी आँखें आखिरकार मैं बंद कर लेता हूँ. तो उतनी ही दूर से जाने कैसे तुम वहाँ भी कहीं आ धमकती हो !
मैं सिर्फ हल्का सा मुस्कुरा भर देता हूँ. तुम नहीं जानोगी, पर पता है ? तुम मुझे दिखाई नहीं देती हो ! सुनाई भी नहीं ! बस बातें ही हैं- मेरी और तुम्हारी. आजकल मैं दिनभर बतियाते रहता हूँ. मगर अपने आपसे नहीं, तुमसे ! कोई शक्ल नहीं कोई आवाज नहीं...बस एक बड़ा सा शून्या !
अच्छा , एक बात बताओ - प्रेम इश्वर है ? या इश्वर प्रेम है ? या फिर दोनों बातों का एक ही अर्थ है ? ...मैं...तुम...प्रेम...इश्वर ...शुन्य...एक बड़ा सा शुन्य...उफ्फ !!
मैं आँखे खोल देता हूँ. फिर चली गयी तुम ? तुम कहीं नहीं जा सकती ! क्योंकि सब बातें हैं...कोरी बातें . कभी किसी ने देखा है इश्वर ? कभी किसी ने पाया है पूर्ण प्रेम ? कभी किसी ने समझा है 'मैं' ? फिर तुम ?
रहने दो . ये सब शुन्य है ! एक बड़ा सा शुन्य !
उठो ! दिन शुरू करो ! जिंदगी कब बसर हुई यूँ प्रेम के सहारे ? भगवान् के भरोसे ? या मैं और तुम से ?
मगर... मगर इनके बगैर क्या जिंदगी खुद एक शुन्य नहीं रह जाएगी ?
                                                                                         :- मुखर

Saturday, July 13, 2013

The Fragrance Of Life - SHE                       


Chauda rasta. Matching Center. No, shopping is not my cup of tea. It was my friend who was busy with shades of Rubia. Even at such a boring place, although colourful, my gaze as usual fleeted from one interesting thing to another.
And I spotted someone O so much beautiful! She walked in with graceful gait. My eyes followed her. The crisp Kota Doria complimented her glowing skin. Can't say if others present over there felt the same but I experienced the showroom coming to life as she made appearance. This phenomenon...I have witnessed the similar transformation somewhere ! Anyway ! Everything about her, specially the look in her eyes...wait a minute, O Yess! She reminds me of Rose, the leading actor of movie- Titanic.
What! You mean, did we do it ?
Of course ! I couldn't help flashing an appreciating look accompanied with reverence smiling nod ! came back a sweet smile in response.
A slight hunch could not lean her height. The zigzag lines of wrinkles on her beautiful face and elegant hand proudly announced of her accumulated experience. She could easily pass for eighty or above.
Her pink health, her smartness and the zeal for exact tone of pink for her Kota Doria filled me with love for life. I am just half the age and already taking up phrases of sobering on ! Halt!
Thanks Rose ! Once again you have shown how to dance the dance of life or sail at the helm of it with wings spread wide !
You were really one of those rare diamonds !

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Tuesday, June 4, 2013

ऍफ़ बी पार्क

ऍफ़ बी पार्क

बस यहीं ब्राउजर को पार कर

माउस क्लीक से सटा सा
अपने मेल ई डी के मोड़ पर 
पासवर्ड के जस्ट सामने
एक पार्क है - ऍफ़ बी .
ओफिस के काम पर जाना हो,
या मार्किट, सर्फिंग, या अपनी
' हॉबी क्लासेस - मुखर ब्लॉग  '
इसी पार्क से हो कर गुजरती हूँ !
किसी बेंच पर बैठे अधेड़, प्रोढ़, बुजुर्ग
उधेड़ते राजनीति
देश के बेमौसम बरसात का
मौसम विभाग की तरह, आता जाता
सच्चा, या सच के थोडा करीब सा पैगाम .
इस तरह ऍफ़ बी के पार्क में
होते हैं कुछ खास,
कुछ बहुत खास प्रोफाइल
बाकी सारे हम जैसे आम !
पार्क के बीच में फौव्वारे सा
शेर औ शायरी का मुशायरा
दिनभर की थकान को
पल भर में मिटा, देता आराम !
पथ के दोनों ओर
नामी और नए रचनाकारों के
कविताओं का रंगबिरंगी
दूर तक लहराती क्यारियाँ
http://vikalpmanch.wordpress.com/ '
के कुछ विदेशी गुल
भरते आँखों में सपने
महकाते है जीवन, भुलाते दुश्वारियां !
तो कहीं ऊंचे लम्बे, बेहद उपयोगी से
विमलेन्दु जी द्वारा लिखे निबन्ध !
इन सबसे गुजरते हुए
आज कुछ ठहर जाने का मन हुआ
तो प्रेम भरद्वाज जी की
एक लम्बी सी कहानी का
टेका लगा लिया...
या हिंदीसमय/साहित्य/ कविता कोष,  
ज्यों  'पार्क की लाइब्रेरी ',
का एक
चक्कर लगा लिया !
शोभा मिश्रा, रश्मि भरद्वाज, स्वर्ण कांता
आदि  के ब्लॉग/पोस्ट
एक नयी शक्ति से
क्रांति की आती बहार से
परिचय कराते हैं !
नियम से  बरगद के तने पर
श्रध्दा  सुमन चढाते,
स्पीकिंग ट्री वेबसाईट पढ़ आते
हम भी रोज थोड़े बुध हो जाते हैं ! 
यहाँ एक बहुत ऊंचा सा झंडा है
जिस पर फहराता है
आशा, सच्चाई और जोश-
मेरी सहेली कविता कृष्णन के पोस्ट !
कुछ किशोर/ कुछ बालक
अपने टैलेंट के झूलों पर
लेते ऊंची पेंग !
कभी कभी एक बाँसुरीवाला
श्वेताम्बरा की मीठी धुन है बजाता !
कहीं चलती गोष्ठियां
कहीं तीखी बहस
तो कहीं चुहलबाजियाँ !
समाज की सेहत की नब्ज पर
हाथ रखते कुछ पेजेस/ग्रुप्स
हर पार्क में होता है एक जॉगिंग ट्रैक
यू & आई  फाउनडेशन !
या एक खेल का मैदान
मारवाड़ स्पोर्ट्स क्लब !
कुछ इधर उधर से चेपे हुए
जोक्स/ व्यंग/ कार्टून्स/कोटेशन्स के रेले 
जैसे गेट के जस्ट लग के
चनाचूर, आइसक्रीम, पानीपूरी के ठेले...
ssh  ! किसी को बताना मत !
आपको मेरी कसम !!
एक सॉफ्ट कोर्नर भी है यहाँ मेरा,
रंजू भाटिया का 'अमृता प्रीतम ' !
एज इफ कार्डियो, फिजिकल, मेंटल, स्पिरिचुअल
सभी हेल्थ का एक ही नुस्खा...
सुबह शाम इस पार्क में आते जाते
कई चेहरे लगने लगे हैं जाने पहचाने
दोस्ती मर्करी सी घटती बढती एक महीन रेखा
कौन कितने अपने , कौन कितने बेगाने !
                                             - मुखर !

Saturday, May 25, 2013

"बुध की राह "
एक व्यक्तित्व के नींव में शैशव काल की महत्ती भूमिका आज की तारीख में सर्वविदित है. फिर जिस किशोर ने कभी आंसू नहीं देखा, जीवन में कभी कराह नहीं सुनी. जिसने कभी दुःख किस चिड़िया का नाम होता है नहीं जाना. आभाव की जिंदगी जिसकी कल्पना  की सीमा से कोसों दूर हो. जिसे अपने परिवार में तो क्या दूर के जानकारों, रिश्तेदारों ही में कभी किसी की मृत्यु को देखने, अनुभव करने का मौका नहीं मिला हो. आखिर सुख वैभव से पगा हुआ  वह युवक ही तो किशोर अवस्था में जब पहली बार किसी रुग्ण को देखे, कोई मृत्यु शैय्या और अंत्येष्टि के शोकाकुल वातावरण से दो चार हो,  ,तभी तो बुध होने की राह पकड़ेगा !
आज कल तो होश सँभालने से पहले की परीकथाओं में दुष्ट राक्षश कच्चा चबा जाता है. कोई जोम्बी के कार्टून नेटवर्क फेवरेट हो जाते हैं. बन्दूक खिलौना हाथ में लिए दोस्तों, माँ -पिता पर ठायं ठायं करता हुआ खेलता नन्हा कितना प्यारा शेतान लगता है न ! नौ दस वर्ष की बालक बुध्धि टी वि, इंटरनेट व पिक्चरों में सब रोना धोना, दुःख आंसू, लूट मार, क़त्ल और हर बुरी चीज को देखते हुए इस तरह परिपक्व होते हैं कि कहीं इनके रगों ने यह सब  जीवन का हिस्सा ही तो नहीं मान लिया ? तभी तो आज की इस नयी पीढ़ी में चलता है वाला रवैया है.
प्रश्न ये है कि क्या यही एवोलुश्न (विकासज ) है ? या हम राह भटक गए हैं ? तर्क है कि वो सही नहीं, तो क्या ये ही सही है ? माना यथार्थ का सहज सामना व ज्ञान होना आवश्यक है, मगर किस हद तक ? महज रूबरू होने में और उस यथार्थ से खेलने, आनंद उठाने में फर्क है साहब .
हमारा मकसद होना चाहिए इस पीढ़ी का तीर से घायल हुए पक्षी को देख कर संवेदनाओं से भीग जाना और उसे प्राणदान देने कि ओर प्रयासरत होना न कि उड़ान भरते पक्षी को मार गिराने को उन्मत होना !
हमारी संतान, हमारा परिवार, हमारा समाज पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष पहले आये एकल कोशिका से इंसान तक पहुंचे ब्रह्म तत्व - 'गाड पार्टिकल ' या दुसरे शब्दों में 'लाइफ फ़ोर्स'  है . एकदम ही अमूल्य. इसे प्रतिपल की सोने से चोट ही तो गढ़ेगी न. आईये हाथ बढाइये. अपने परिवार, अपने आस पास से ही शुरू हो जाईये. हर नकारात्मकता के अस्तित्व को हटा/मिटा दीजिये.
पता नहीं बुध की राह हम पकड़ पाएंगे या नहीं, हाँ मगर वक़्त की धारा में खुद को खो देने के बजाय हम खुद अपनी राह जरूर बना सकते हैं.

                                                                -मुखर


Thursday, May 16, 2013


Hey !
Hey!
'happy mother's day'
'Happy Mother's day to u too'
So, क्या किया आज special ?
'Nothing Yar. Just mom से phone पे बात हो गई. अब हमलोग तो इस एक्स जेन के हैं नहीं की मम्मी को विश करें. आदत ही नहीं रही कभी.
बात सिर्फ अपनी माँ को विश करने की तो नहीं है भई. इस दिन तो एटलिस्ट यु योरसेल्फ केन प्ले द रोल "
व्हाट ? रोल ऑफ़ अ मदर ? आई एम् अ मैन यार, कम ओन !
Gender baar ? टू मदरहुड ? ...
.....
....हे, उधर देखो !
किधर ? wow ! सो beautiful !
u know वो bird उस बच्चे को खाना क्यों खिला रही है ?
क्यों ?
सो देट वो बड़ा हो कर बुढ़ापे का सहारा बने !!
हहहहहाहा, तुम भी न ! बस !
वही तो ! ये सारे 'हाउ , व्हाट, व्हाई , व्हेर ' के लोजिक्स एंड रीजनिंग हटा कर जब कोई किसी को अनकंडीशनल प्यार और केयर देता है, वो प्यार ही मदरहुड होता है.
Motherhood has no gender, age, caste baar !
hmmm... I can c , u hv a point !
 : ) always dear !

      ------------मुखर 

Wednesday, April 17, 2013



बड़ी मुश्किल है
(केवल महिलाओं के लिए पठनीय. वे पुरुष जो महिला आई डी बनाये हुए हैं या वो महिलाएं जो पुरुष आई डी बनाये हुए हैं, भी पढ़ सकते हैं. पुरुष, आपको इसलिए मना किया क्योंकि आप इससे अपने आपको रिलेट नहीं कर पाएंगे.)
बात उन दिनों की है जब मैंने सलवार सूट पहनना शुरू ही किया था. जो कुर्तियाँ आगे पीछे से सामान दिखती थी उन्हें पहनने में हमेशा दिक्कत आती थी. अक्सर पहनने के बाद महसूस होता की उल्टा पहन लिया. फिर मैंने दिमाग लगाया, देखा ! मैं उतनी भी बुध्धु नहीं हूँ, और नोटिस किया की पीछे का गला आगे के गले से थोडा कम गहरा होता था. कुछ ऐसे ही टी शर्ट्स जिसमें आगे पीछे गले बराबर होते थे, पीछे एक छोटा सा टेग लगा होता था. हाँ, मैंने जब सिलाई सीखी थी तो पता था की मुड्ढे की सिलाई से भी आगा पीछा जाना जा सकता है. मगर इस मामले में हमेशा कन्फ्यूजन बना रहता था.
वक़्त के गुजरते कुर्तों में बेक डिजाइन का फैशन आया, और मुझे मेरे ज्ञान में परिवर्तन करना पड़ा. अब पीछे के गले गहरे कटे होने लगे, आगे की तो लिमिट थी न. ठीक है जी, यही रुल सही.
मगर सच कहें, जाने ये वक़्त है की फैशन, बड़ा जुल्म ढाता है. अब मुझे पता ही नहीं चल पता है की कौन सा रुल फिट होता है. अब तो हर बार पहनने के बाद ही महसूस होता है कि धत तेरे की, फिर उल्टा पहन लिया !
वो टेग वाला रुल ? वो भी जब तब बदलता रहा. अब कभी भी गर्दन में नहीं मिलेगा. कभी गले में कभी मुड्ढे में कभी किसी बाजू या कलाई में या फिर कमर में, बस ढूँढ़ते रह्जाओगे !
                                                                                                                                         -  मुखर  

Friday, April 12, 2013

Believe the deity powers!






From this corner of the earth to that, that’s what we have read, she had been in shackles of don’t and more importantly more of don’ts. This is all the more true of last millennia, or at least five to six centauries. Here and everywhere she was brought up to please men and serve family, with no privileges in any sort of inheritance. She and her parents and all her well wishers, hence, always dreamt of a charming prince arriving on a white horse to take her away and make her live happily ever after. Ridding a white horse always depicted a man of power and wealth. And that is why she and her parents and all her well wishers prayed for a son to be born to her, the only way to have a say on any sort of inheritance.
In the passage of time, time that elongated to ages, she never had any practical experience of outer world. By outer world we don’t mean anyplace like space but she was bound within the fourwalls with countless of do’s and the never ending string of don’ts, peeping through the window she could not but alas! Only dreamt! 
Eventually she is now nothing but a romantic, always in dreams, very impractical…I know, you men know it well and you women heard that better all of your life!
Not very long ago, but recently only, three four decades of freedom through education or perhaps the almighty pitied that she today finds herself amidst the open field and under the blue blue sky… and the repressed emotions of ages make her take a flight without even tasting the waters, even before learning to spread the wings…
Hold your breath for this is just the beginning…and so most of them bound to nose dive…but very soon the world will witness the azure strewn with all of them. I can see few already gliding above those thermal winds. For she is the one who creates the world, she is none other than the Mother Nature herself! She is the one, who breastfeed the human civilization. Without feminine power the world could not even crawl.
I love Indian culture for it has the seeds of vivacious power to be unleashed. Hey you, all women out there! Acknowledge yourself! It is celebration of feminine power. Jai Mata Shakti !!
(Pardon my grammatical mistakes. And I don’t mind being a little high on spirits! Thanks.)
I believe I can fly,
I believe I can touch the sky,
Thinking about it night and day,
Spread my wings and fly away,
I believe I can soar,
See me run through that open door…
I believe I can fly…
I Believe!
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