मन तो किया
चिल्ला कर कहूँ - ' आपका फिक्स
डिपॉज़िट आज फिर पी कर आया है !' मगर नहीं। मैं
पापा के जले पर नमक नहीं छिड़क सकती थी। उनको दुःख होगा। तो क्या जो इस चक्कर में
मैं कितने दुखों तले दबी पड़ी थी।
जीवन की गोद में
अभी मेरी आँख भी न खुली थी कि पापा को अक्सर दोस्तों से बात करते हुए मजाक में यह
कहते सुना था - मेरे तो दो फिक्स डिपाजिट हैं और एक डेबिट नोट। उस समय की कच्ची बुद्धि इतना तो समझ गयी थी कि
ये बातें बैंक से सम्बंधित नहीं हैं। फिर ? …
मनोज भैया दूकान
का रेनोवेशन करना चाहते थे. 'परचूनी' की दूकान उनके रुतबे से मेल नहीं खाती थी . 'डिपार्टमेंटल स्टोर ' बनाना है इसे। '
पापा भी सोचते थे
- जब राजू एम.बी.बी.एस कर डॉक्टर बन जायेगा तब मनोज को कैसा लगेगा 'परचूनी' की दुकान ' पर बैठना ?
सही कह रहा है बेचारा।
' बेटा , ठीक है. लोन के
पेपर्स बनवा ले. मैं साइन कर दूंगा। '
' पर पापा, भैया अपनी मेहनत और बचत से प्लान कर लेंगे
रेनोवेशन. आज नहीं तो कुछ सालों बाद ही सही !' - मैं बोली।
' शीतल सही कह रही
है. अभी तो आपने इसके बी. एड के लिए लोन का चुकता किये हो. फिर से बोझ क्यों ?
थोड़ा तो चैन … '
'अभी नौकरी बाकी
है। हो जायेगा सब बेटी। …' माँ की बात बीच ही में काटते हुए पापा बोल पड़े .
' क्लीनिक भी तो
खोलूंगा मैं। अगली साल जब मेरी एम.बी.बी.एस पूरी हो जाएगी
तो। '- राजू से बोले बिना रहा न
गया।
' उसकी चिंता मत कर
तू। मेरा पी.एफ पड़ा है अभी। पढ़ाई में ध्यान दिया कर। बस हॉस्टल में जा
कर दोस्तों के साथ आवारागर्दी, दारु … एक एक सेमिस्टर में तो साल भर लगा
देता है । ' - शुक्ला जी भी भड़क गए थे।
इस तरह पापा के
दोनों फिक्स डिपॉज़िट उनकी लाइफ से भारी भरकम प्रीमियम लिए जाते थे.
शीतल बी.एड. करते ही एक प्राइवेट स्कूल में लग गयी। सरकारी नौकरी के
लिए फॉर्म निकलने में अभी टाइम था। पापा ने बहुत कहा एम.एड करने को. मगर वह पापा
की माली हालत और ओढ़े गए जिम्मेदारियों को भली भांति जानती थी। फिर वह खुद का भी भार
कैसे डाल सकती थी उन पर ? कभी नहीं।
वैसे भी वो पहले ही से डेबिट नोट मानी जाती रही है। अब और नहीं।
अब जिंदगी के फ़लसफ़े समझती थी वो।
शीतल की कमाई को
हाथ न लगाने की जैसे कसम थी माँ पापा को।
समाज के रिवाज ! उफ्फ़ ! खैर वह रकम शीतल के नाम बैंक अकाउंट में डाली जाती
रही।
मनोज अपनी दूकान
का रेनोवेशन छेड़ चुका था। तो फिलहाल वहां से आमदनी रुक चुकी थी. राजू इस बार फिर
रह गया था। कहता था इंटरनल के लिए पैसे खिलाने पड़ते हैं।
क्या ये चिंता
फ़िक्र ही थी कि पापा की हेल्थ दिन पर दिन गिरती ही
जा रही थी ? सभी टोकने लगे
थे। पापा कब तक नजरअंदाज करते ? शीतल ही की जिद पर आखिर मंजू उन्हें फोर्टिस
में दिखा लाई। आज उसकी कमाई काम आ रही थी। साल भर की सर्दी खांसी बुखार आदि का
ब्यौरा लेकर डॉक्टर ने बहुत सी जांच लिख दी। बाकी दूसरी सारी दवाइयाँ जो गली गली
के डॉक्टरों से लिया करते थी , बंद करा दी। जांच के तीन दिन में रिपोर्ट आ गयी. इसी बात का
डर था पापा को। मन में सोचा , चलो टी बी ही है,
कहीं कैंसर होता तो सुन ही कर मर जाता।
माँ पिता ,
दोनों को उनके इलाज से, ठीक होने से ज्यादा चिंता शीतल के ब्याह की लगी थी।
जुलाई में जो
इंटरव्यू हुए थे उसका परिणाम आ गया था।
सेकंड ग्रेड की नौकरी लग गयी थी. शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर बिजोलाई
में।
' इतने दूर बिटिया
को भेजना अच्छा नहीं। वैसे भी आजकल दिनमान
ठीक नहीं चल रहे. एक बार पारणा दें फिर ये जाने और इसके घर वाले। हमें कौन सी बेटी
की कमाई खानी है ? ' - मंजू बोली जा रही थी। और शुक्ला जी हैं कि मौन धारण किये बैठे थे।
उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था.
उस दिन शुक्ला जी
को जबरदस्त दौरा पड़ा था खांसी का। अस्पताल
ही में भर्ती होना पड़ा था. बिमारी या अस्पताल दवाई के खर्चे को लेकर किसी में कोई
बात नहीं होती थी। शीतल पिछले एक ही साल में कितनी सयानी हो गयी थी। नौकरी के साथ साथ अस्पताल के चक्कर लगाना, सब उसी की जिम्मेदारी थी। उसने सरकारी
नौकरी ज्वाइन कर ली थी। अस्पताल से डिस्चार्ज
होते वक़्त शुक्ला जी ने आखिर डॉक्टर साहब से पूछ ही लिया था फीस के बारे में।
डॉक्टर साहब जोर
से हँसे ,' आपको पता नहीं ? शीतल बिटिया ने चेक काट
दिए हैं। सब अकाउंट क्लियर है। भई शुक्ला साहब, बड़ी किस्मत वाले हैं आप
कि ऐसी बिटिया पाई आपने ! आप सब चिंता छोड़िये भी।'
'भाभी जी , देखिये ! सभी बीमारियों
की एक जड़ - चिंता ' .
मंजू बोल ही पड़ी, ' इस उम्र में अब चिंता हो ही जाती है।
दोनों बेटे अभी पाँव पर खड़े हो ही नहीं पाये हैं कि बिटिया ब्याह लायक …
डॉक्टर साहब तपाक
से बोल पड़े - 'तब तो मैं आपसे अभी अपनी
फीस मांग साकता हूँ ' .
शुक्ला जी और
मंजू एक दुसरे को देखने लगे, कि अब कितना पैसा
बाकी है !
'घबराइये मत ! कल मेरा बेटा शांतनु बंगलौर से आई.आई.एम. कम्प्लीट करके लौट रहा है. इज़ाज़त हो तो अगले हफ्ते हम आ जाएँ शांतनु को शीतल से
मिलवाने … ?'
शीतल का ब्याह
राजी ख़ुशी हो गया। शांतनु सिर्फ़ ऊंचे विचारों वाला ही नहीं बल्कि क्रांतिकारी विचारों वाला
भी है। शुक्ला जी का दहेज़ के नाम पर एक धेला भी नहीं लगा था। डॉक्टर साहब की
तमन्ना थी एक अपना अस्पताल खोलने की।
शांतनु अपने राज्य के लोगों, समाज के लिए कुछ करना चाहता था। तय यह
हुआ कि बिजोलाई में अस्पताल खोला जाये जो शांतनु मैनेज करेगा। भविष्य में एक विद्यालय भी। शीतल के सपनों में पहली बार रंग भरने लगे
थे। उसने पी.एच.डी में एनरोलमेंट
भी करा लिया था।
शीतल को और फिर
शादी में आये दूर-पास के मेहमानों को विदा
करके शुक्ला जी जिंदगी का हिसाब किताब करने बैठे
तो पता चला जिंदगी भर की जमा पूंजी दोनों बेटों के डेबिट ने चट कर लिया. और
शीतल ? उसने तो जैसे उन्हें उनकी बिमारी से लौटा लाई
! वह तो दोनों ही परिवारों के लिए 'क्रेडिट नोट'
साबित हुई !
" देखा मंजू
, पूरी जिंदगी गुजर गई
डेबिट - क्रेडिट समझने में ! "
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