Tuesday, February 15, 2022

"जड़ कौन ?"

कितनी अजीब बात है ना !
मैं जिस मिट्टी में पैदा हुआ हूं ,
उसी में पैदा हुए मेरे पिता,
और उनके भी पिता ...
इस मिट्टी को गूंधने ,
अलग अलग दिशाओं से,
अलग अलग घरों से,
आती रही हैं स्त्रियां ,
मिल जाती हैं इसी में !
खो कर अपना अस्तित्व,
देती रही हैं आकार हमें, 
सींचती रहीं हैं ,
लहू, पसीने, गुणसूत्रों से !
इसी मिट्टी में उग कर स्त्रियां,
जाती रही छोड़ कर सब कुछ,
अलग अलग दिशाओं में,
अलग अलग घरों को ! 
युगों युगों से 
घूम रही है स्त्री,
घूम रही है पृथ्वी ,
और मैं ? 
अपनी वंशावली लिए ,
खड़ा हूं वहीं,
युगों युगों से !
कितनी अजीब बात है ना !


- कविता  मुखर 
12/10/2020

7 comments:

Marmagya - know the inner self said...

आदरणीया कविता मुखर जी, नमस्ते👏! मिट्टी और स्त्री के साथ के समत्व को परिभाषित करती सुंदर रचना! रंगों और उमंगों भरी होली की शुभकामनाएँ!--ब्रजेंद्रनाथ

मन की वीणा said...

गजब ! सचमुच सेल्यूट शानदार सृजन कहीं गहरा अंतर तक उतरता अभिनव व्यंजनाएं।
साधुवाद।

Anonymous said...

आपके इन सुन्दर शब्दों में प्रशंसा के लिए आभारी हूं 🙏

Anonymous said...

धन्यवाद ज्योति जी

Anonymous said...

नमस्कार मर्मज्ञ जी 🙏

Anonymous said...

🙏

Anonymous said...

धन्यवाद अनीता जी !