Thursday, October 18, 2018
मी टू - कहानी
Tuesday, October 9, 2018
"इज्ज़त" - ( प्रतिलिपि पर "कथा सम्मान प्रतियोगिता" में ) - Link has been updated.
“ तेरहवीं में लग गई तू , अब ये लहंगा कमीज के संग दुपट्टा ही डाल लिया कर !लड़कों के स्कूल जाती है, जरा लोक- लाज का लिहाज कर !”
“हाँ हाँ” करती नटखट सरोज पिताजी और दद्दू का टिफ़िन उठा ये चली वो चली !”
“अरी किधर चली ? खाना महेश दे आएगा , तू जरा मेरे संग मसाले कुटवा ले ! या छोरी तो सुनअ ही कोनी !”
सत्रह की होते- होते तो सरोज खेत का सारा काम सँभालने लगी थी . ट्रेक्टर से रुड़ाई- गुड़ाई, फसलों की कटाई और बंधाई , गाय बैलों का चारा- सानी , दूध दुहना...क्या नहीं करती ! हाँ , रसोई में कभी नहीं बड़ती !खाना जीम कर थाली एक तरफ सरका देती ! पढाई में भी कम होशियार नहीं थी . दसवीं की परीक्षा के बाद प्रधानध्यापक खुद आए थे सरोज के पिताजी से मिलने . “ बहुत अच्छे नंबरों से पास हुई है आपकी बिटिया , आगे की पढाई के लिए क्या सोचा ? मेरी मानो तो कोई डॉक्टर-इंजिनियर से कम न है अपनी सरोज !”
...कहानी पूरी पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएँ -
https://hindi.pratilipi.com/story/%E0%A4%87%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A5%9B%E0%A4%A4-kkcvcY1ZspKR
Tuesday, July 24, 2018
"कितनी चोखी कैसी ढाणी"
बिड़ला मंदिर और मोती डुंगरी के बारे में ज्ञान पेलने के बाद जब हम निकले चोखी ढाणी की तरफ़ तो मुझे बच्चों पर दया आ गई और सोचा ख़ुद ही अनुभव करने दो क्या तो ढाणी और क्या चोखी ढाणी!
पाँच सितारा स्वागत! रोली टीका! शहनाई! मांडने, खिड़की दरवाजे, ताले, और हज़ारों प्रकार के हस्तशिल्प के आइटम्स से सुसज्जित! आँखें फटी की फटी और अहा वाह के बीच क्लिक क्लिक!
“मैं ऊँट पर बैठूंगी! असली के!”
“हाँ बेटा, हाथी, घोड़ा, बैलगाड़ी भी असली के!”
जलजीरा पी कर घूमते घामते कठपुतली का. खेल देखा, जादू का खेल देखा फ़िर सीढ़ियाँ चढ़ एक टपरी पर पहुँचे! कोई बारह बाई पाँच कोठरी सी जिसमें देखने को आटा चक्की, पानी का घड़ा और औझरे में माटी का एक नंगा शिशु! दूसरे कोने में चूल्हे पर मक्के की रोटी सेकती एक वृद्धा जो हम मेहमानों को पत्ते के दोने में रोटी का टुकड़ा पर ताज़ा मक्खन और लहसन की चटनी डाल प्रेम से खिला रही थी।
मैं उनके पास ही बैठ गई।
“आपने जैसे लोया बनाया, यह मक्की का आटा तो नहीं लग रहा!”
“शंकर नहीं ठेठ असली मकई रो आटा है!” उसने कचोरी सी फूली बड़ी सी रोटी को चीमटे से पलटा!
“कहाँ से आती हैं अम्मा आप !”
“यही कोई एक घंटे का रस्ता है म्हारे गांम को! चाकसू सू पेली!”
“कैसे आते हैं?”
“पैदल ही आऊँ हूँ बेटा!” उन्होंने सिकी रोटी के चार टुकड़े कर चार दोने बनाए, मक्खन रखी तो मैंने उनमें चटनी और गुड़ डाल कर पीछे खड़े मेहमानों को पकड़ाया तो वह स्त्री हँसती हुई मुझ पर हाथ का पंखा झलने लगी!
“कित्ता बजे तक जाओगा आप?”
“इग्यारह बजे सीक! बारा बजे ताईं तो पूंच जाऊँ घरां !”
“थे कमाओ कत्ताक हो!”
“सौ रूपिया रोज की! चार बजा की आई हूँ!”
तीन दोने लेकर बाहर हम सबमें बांट लिया! उँगली चाट चटखारे लेते हम नीचे उतरे।
संग्रहालय, भूलभुलैया, बहुत ऊँची फिसल पट्टी, नटों का खेल, मेले में मिलने वाली सारी दुकानें, सारे खेल… तीर कमान, बंदूक, बॉलिंग alley, रिंग.. आदि आदि…
बनावटी अँधेरा जंगल, स्पीकर से आती जंगली जानवरों की आवाजें, पानी की नहर पर कई टापू और पुल और नौकायन , घुप्प अँधेरी गुफ़ा, मचान, टेकरी पर मन्दिर, जंगल के देवता के चबूतरे पर नगाड़े बज़ाता एक ग्रामीण और पर्यटकों के बच्चों को जंगली नृत्य हुलाला कराता जंगली कॉस्ट्यूम में एक ग्रामीण!
जंगल से बाहर निकलते ही विभिन्न राज्यों की झलक लिए कई छोटी छोटी कोठियाँ जिन पर उसी राज्य की वेशभूषा में तैनात ग्रामीण! न! उनमें से किसी को उन राज्यों की भाषा नहीं आती।
“बाबा आपको मलयालम भाषा आती है? कुछ तो शब्द सीखना!”
“आप जैपुर का कुण सा गांव… कुण जात?”
“ बा सा! कुण सा जमाना री बातां करो हो… अब कोई जात पात कोनी हुआ कर ह…बस अमीर और गरीब, मलिक और नौकर! कुण सी भी जात हो मिलेगा तो वा ही सौ रिपिया!”
दूमंजिले मचान से सारी ढाणी का रूप निरख हम जीमने (खाने) पहुँचे। लंबी कतार में आधा घंटा इंतज़ार के बाद भरी उमस में खाना खाने दरी पर बैठे और ऊँची चौकी पर पत्तल दोने में छप्पन नहीं तो पता नहीं कितने पकवान परोसे गए ।
“अरे बस्स! इतना घी?”
“अरे सेठानी! क्यूँ शर्माओ हो! दुबल्या हो रहा हो… थे तो जीमो!”
मान - मनुहार कर जबर्दस्ती थाली में डाला भी गया। दो चार नहीं सबने ही जितना खाया दुगुना जूठा छोड़ा! वहीं पत्तल पर हाथ धुपाया। हमारे उठते उठते वे सारे पत्तल भोजन समेत बड़ी बड़ी काली थेलियों के हवाले हो गईं।
हाथ धोते, जूते चप्पल पहनते हर कोई बात करता सुना जा सकता था कि भोजन की बहुत बर्बादी है।
जरा हवा महसूस हुई, लगता है दूर कहीं बारिश हुई है। हम ननद भौजाई भतीजी वहीं पास में मेहँदी लगवाने बैठ गईं।
“आसपास ही है म्हे सबरा गाम। बारा बजे करीब जाश्यान! सौ रिपिया मिल जाया करअ ह।… ना एकली नई, म्हे भाईलियाँ सागअ आया करन्… के बेरा कत्ता लोग काम करअ हैं अठे!...के तो लुगायां, आदमी, टाबर… ” मैं अंदाजा लगा रही थी… करीब हज़ार तो होंगे ही ?…..आठ नौ घंटे? न्यूनतम मजदूरी? टिकिट तो 800-1000 /- प्रति व्यक्ति! भीड़ ठसाठस!...
मेंहदी लगवा कर जब हम ढूँढते हुए पहुंचे तो देखा तीनों के तीनों अलग अलग खाट पर पसरे थे!
“आज एक अरसे के बाद ऎसे देख रहा हूँ आसमान!”
मैंने ऊपर देखा तो विस्मित रह गई, गहरे नीले असमान में डेरा जमाते रूई से बादल! मैं भी बाएँ हाथ की मेहँदी संभालती वहीं अधलेटी हुई।
“एक बात नोटिस की तुमने?”
“क्या?”
“यहाँ इतनी घनी हरियाली है और दिनभर में कितनी ही बार बारिश हुई मग़र एक मच्छर मक्खी नहीं… उड़ने वाले या कैसे भी कीड़े नहीं!”
“अरे हाँ!” मैं उठ बैठी थी.
“और ना ही किसी प्रकार के पक्षी!... कस्टमर को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए…”
मैं सोच नहीं पाई क्या उपाय किया गया होगा!
“ढाणी! वह भी चोखी! पैसा हो, प्रकृति नहीं!”
“अहाँ! प्रकृति वही जो पैसा दे!”
… और हम??
मुखर
Monday, July 2, 2018
"सुंदरता, गुण और आत्म विश्वास" - संस्मरण
उस सच्ची कहानी का अंत क्या हुआ पता नहीं। जब मैं दूसरी तीसरी कक्षा में थी तब वह और मैं साथ साथ स्कूल आते जाते थे।
बात सत्तर के दशक की है। रांची के एच ई सी कॉलोनी से हम दस दुकान चौराहा तक पैदल जाते थे स्कूल बस पकड़ने. मैं अपने घर से अकेली या भाई के साथ जाती. रस्ते में उसका घर पड़ता. उस कॉलोनी में सारे क्वार्टर ही थे. काफी समय तक तो मैं समझती थी कि दुनिया में क्वार्टर ही होते हैं. अलग अलग रँग रूप आकार के घर तो दादी के गाँव में होते हैं। या फिर 1984 में जोधपुर आने पर ही देखे।
हाँ, तो उसकी मेरी दोस्ती के क्या कारण थे वो जीवन में बहुत बाद में समझ आया. मैं गोरी हूँ यह तो मुझे तब भी पता था. और वह बहुत काली. मग़र मुझे वह अधिक सुन्दर लगती। तब सुंदरता के मायने शायद मेरे अपने एहसास थे. तो वे क्या थे? वह मुझे सुंदर क्यों लगती थी?
धुर्वा के के.वी. तक कोई बीस तीस मिनट का बस का सफ़र आना और जाना.
मैं पढ़ाई में इतनी ढ़पोर कि कक्षा में फ़र्स्ट आती थी… नीचे से! सो या तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे, हर टेस्ट में ज़ीरो वन मार्क्स की घोषणा पर… Yaया फिर मेरा ही आत्म विश्वास इतना कम था कि मुझे लगता मेरे कोई दोस्त नहीं हैं। लगता क्या था, दोस्त थे भी नहीं। मैं बताती हूँ मेरा ऎसा लगने के पीछे ठोस कारण हैं। games के पीरियड की बेल बजते ही सब classmates भाग कर ग्राउंड पर पहुँच जाते और मुझे कक्षा से सबके टिफ़िन बॉक्स लाने पड़ते। recess ओवर होने की बेल बजती और सब नंगे पाँव ही क्लास में दौड़ जाते, मुझे उनके जूते उठा कर लाने पड़ते। शायद ऎसा हमेशा नहीं हुआ होगा परन्तु दुखद यादें ऎसी चिपकती हैं कि वही रह जाती हैं बस।
तो बस में सभी अपने अपने मित्र के साथ बैठते। मेरे लिए जो सीट बचती वहाँ वह मिलती। शायद यही कारण था हम दोनों के साथ होने का. चूँकि मैं ढ़पोर थी सो कभी जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसी थी पढ़ाई में। वह मुझसे दूर नहीं भागती थी, मेरा मजाक नहीं उड़ाती थी और सबसे अहम बात कि वह भी अकेली ही थी, अतः मेरी दोस्त थी।
प्रिंसिपल सर पापा के अच्छे मित्र थे तो उनकी बिटिया देबयानी सेन भी मेरी अच्छी दोस्ती थी, मग़र उसके साथ रहते हुए भी गहरे में कहीं inferiority complex था या यह अहसास कि मैं कमतर हूँ । उस धरातल पर वह लड़की ही मेरे समकक्ष लगती। ख़ैर…
पापा के तबादले के कारण मेरा स्कूल बदला और फ़िर दोस्त भी बने। क्रोशिया, खेल, योगा में स्कूल स्तर पर टॉप करने के कारण आत्म विश्वास भी बढ़ा, कालांतर में पढ़ाई भी की। मग़र जहन में हमेशा वह लड़की बनी रही… अब मैं समझ रही थी कि पढ़ाई में भले ही वह कैसी भी रही हो, उसका काला रँग ही उसके अकेले होने का कारण था।
नौकरी के दौरान मैं एक बेहद बदसूरत (मानकों के अनुसार) लड़की को किसी भी अत्यंत सुंदर लड़की से अधिक प्रतिभावान, लोकप्रिय व आत्म विश्वास से लबरेज पाया तो फ़िर वह लड़की याद आई और एक बोझ सीने से उतरा। बाद में एक और सहकर्मी जो काली तो बहुत थी मग़र नैन नक्श एकदम दुर्गा माँ के आइकॉन जैसा साथ ही में बेहद प्रतिभावान के साथ तीन वर्ष काम किया। इस बीच उस बचपन की मित्र का नाम मैं भूल गई। लगता है मेरे मन से उसके अकेलेपन का भाव/दर्द ख़त्म हो गया था।
आज FB के एक पोस्ट से फ़िर उसकी याद आई… एक मुस्कान के साथ!
- मुखर
Friday, June 22, 2018
“अपशब्द”
Wednesday, June 13, 2018
"समय की नब्ज़ पर हाथ " - पुस्तक समीक्षा
Tuesday, May 29, 2018
हिन्दी का पोस्टर बॉय-
निखिल सचान! नाम तो जानते ही होंगे आप! नहीं जानते? कोई बात नहीं, ये CB से आगे के हैं। CB नहीं पहचाना? अरे! भगत चेतन! तो क्या हुआ जो ये भी आई आई टी, आई आई एम हैं! यूँ ही नहीं इनकी पहली किताब, “नमक स्वादानुसार” और दूसरी किताब “ज़िन्दगी आइस पाइस” क्रमशः 2013 व 2015 की हिन्दी की बेहतरीन पुस्तकों में से एक रही, BBC और आज-तक मीडिया व critics अनुसार.
तो हुआ यूँ कि प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन की ओर से प्रायोजित 'कलम दैनिक भास्कर संवाद' में इस इकत्तीस वर्षीय हिन्दी साहित्य के आउट साइडर को सुनने मिलने का मौका मिला।
इनकी ये पहली दो किताबें कहानी संग्रह हैं। ये पहले जो किताब लाना चाहते थे वो “यूपी65” अब आई। वो इसलिए कि इन्हें डर था कि कहीं इनकी पहली किताब पढ़ कर इनके ऊपर CB का ठप्पा लगा कर एक तरफ़ कर दिया जाए। सो वे दोनों किताबें सारे स्टीरियोटाइप को तोड़ने का काम किया है और ये आउट साइडर हिन्दी साहित्य के नए रंगरूटों में सबसे चहेते यानी कि पोस्टर बॉय बन गए!
“यूपी65” बी एच यू में पढ़ने वाले चार दोस्तों की कहानी है। कहानी लिखते हुए इसके पात्र अपने सही नाम से थे, कहानी पूरी होने पर काल्पनिक नाम रखे गए।
कार्यक्रम के मॉडरेटर ख्यातनाम साहित्यकार/आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी ने लेखक और उपन्यास से परिचय कराते हुए कहा कि “यू पी 65” में असहिष्णुता की समस्या को बड़े संयम से उठाया गया है। फेमिनिज्म का वर्तमान चेहरा उभरता है। और जिस प्रकार “चंद्रकांता संतती” पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी और फ़िर गंभीर सहित्य की ओर मुड़ गए वैसे ही आज जब नई पीढ़ी ने हिन्दी साहित्य से किनारा कर लिया इस उपन्यास का प्रयास है उनके हाथों में हिंदी की किताब आए।
इस उपन्यास से एक पाठक क्या सीखेगा? किसी दर्शन का अभाव है इसमें!
निखिल : करोड़ों अरबों की जनसंख्या है और भावनाएँ वही पाँच सात। कोई रोटी के पीछे, प्रेम, धन, सत्ता, अध्यात्म के पीछे ही तो भागता है। इन भावनाओं से भाग कर नए सिद्धांतों की बात क्यों ढूँढते हैं? हमें बहुत ज्यादा बौध्दिक होने से बचना चाहिए। किताब जहाँ से आई है (बीएचयू कैंपस) के प्रति सच्चा हूँ।
आज की नई पीढ़ी किसी सहित्य अकादमी के विजेताओं के नाम जानती नहीं /याद नहीं।
यह किताब इस ख्वाहिश में है कि ये आपको बे-इंतहा हँसाए, बनारस ले जाए और आपके ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पलों से मिलवाए।
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हम पर तो ये बरस भोले बाबा का विशेष आशीर्वाद है!
- मुखर
Friday, May 18, 2018
"दवाई वाली मैडम" - एक परिचय
Monday, April 23, 2018
Meeting eminent author Kashinath Singh ji
एशिया का सबसे बड़ा गाँव, एशिया का सबसे बड़ा, 9किमी, रेलवे यार्ड, एशिया का सबसे बड़ा रिहायशी विश्वविद्यालय, एशिया का सबसे बड़ा विश्विद्यालयी संग्रहालय... सब घूमी!
गंगा स्नान, अस्सी के घाट की महा आरती देखना, फौजियों के गाँव के कामख्या मंदिर में देवी को चढ़े नवरात्रि की चुन्नी का मुझे ओढाया जाना... अलौकिक अनुभव!
मग़र आज जो मैं ख़ुशी आपसे बाँटने जा रही हूँ वह मेरे लिए इन सबसे बढ़ कर है!
काशी में उतर कर अस्सी के घाट पहुँचने तक मुझे "काशी का अस्सी" के लेखक जो याद आए तो उनसे मिलने की उत्कंठा लिए पहुँच गई बी एच यू के मुख्य दरवाजे पर (शायद सिंह द्वार)!
चौकी के पुलिस ने कहा गार्ड से पूछो... गेट के पुलिस ने कहा वो नहीं गार्ड अंदर है... गार्ड ने कंट्रोल रूम के नंबर दिए... कंट्रोल रूम ने पी. आर. ओ. के, पी आर ओ ने हिंदी डिपार्टमेंट के... फ़िर फ़िर से सारे कॉल... आख़िरकार माननीय लेखक के फोन नंबर तथा पता मिल ही गया !
उन्हें फोन किया तो उन्हें मेरे द्वारा पूछताछ की ख़बर लग गई थी, दे दिया समय तीन बजे आने का! 😀
हाँ, मैं "उपसंहार" और "काशी का अस्सी" पढ़ी हूँ! उन अंतराष्ट्रीय ख्यातनाम लेखक सपत्नी के चरण रज ले पाना मेरा सौभाग्य है।
मैं तो क्या बोलती, उन्होंने ही बहुत कुछ पूछा, बताया, समझाया और मरगदर्शन किया।
"कहानी कथाओं में मुझे बेहद रुचि है, मैं तुम्हारी किताब पढूंगा!" कह कर उन्होंने मेरी पुस्तक "तिनके उम्मीदों के" को उलट पुलट कर पूरा देखा और मुझे उसमें कुछ लिखने को dictate किया.
"फोन नंबर जरा बड़े बड़े लिखना!"
उन्होंने "रेहन पर रघ्घू" भी पढ़ने को कहा।
"क्या क्या देखा बनारस में? बी एच यू नहीं घूमी? यहाँ से सीधे वहीं जाना... एक ऑटो करो और पूरे परिसर में चक्कर लगाना। भीतर ही विश्वनाथ मन्दिर भी देखना... और भारत कला भवन भी।"
आधे घंटे की वह मुलाकात तथा प्रेमपगी आवभगत अविस्मरणीय है!
" हे विश्वनाथ ! मुझे फ़िर बुलाना काशी!"
- मुखर
Tuesday, March 27, 2018
सुनहरी दोपहरी
हालाँकि जम्मू और हिमाचल में बर्फबारी हुई है और सुबह की ठंडक बाकी है परन्तु मरुस्थल में आते सूरज की किरणें जेठ सी चमकीली हो गई है! अभी दिन के बारह भी नहीं बजे हैं और फिजां में दोपहर की गंभीरता पसर गई है।
पॉश इलाके की इस कॉलोनी में ऊँचे बड़े बंगले खड़े खड़े ऊँघ रहे हैं और साफ़ सुथरी सड़कें अलसा रही हैं। अनगिनत लोगों की यह बस्ती है मग़र दिखता कोई नहीं। निर्जन सी दोपहर की नीरवता और मंद मंद पवन मुझे बालकनी की तन्हाई में खींच लाते हैं। छोटे बड़े सभी वृक्ष ज्यों थोड़ी थोड़ी देर में उनींदी करवट लेते हिलते हैं... सड़क की दोनों ओर पंक्ति बद्ध अशोक पर नए जवान पानीदार पत्ते बूढ़े पत्तों को हाशिये पर धकेल नव वर्ष के आगमन पर नई छटा अब तक बिखेर रहे हैं। ये सीटी ! किसने मारी? अहा! बिजली के ऊँचे तार पर अंगूठे भर की एक नीली चमकीली नन्ही चिड़िया! इसकी चोंच भी सुई सी पूंछ भी! दो पीली तितलियाँ पल भर में कहीं से आ कहीं को छू! मेरी नजर नचा गईं, मुस्कान दे गईं... बता गईं कि बसंत अभी बस गया ही है...
नजदीक ही कहीं से हैमर ड्रिल की तीखी आवाज और ठक ठक... ह्म्म! शहर के बसावट की जड़ें इतिहास में कहीं दबी पड़ी है और निर्माण अभी जारी है। फिर भी... इस मौसम में कमठे की आवाज भली लगती है, जाने क्यों! ओह्ह फ़ोन!
"जी भैया!"
"रात की बस है, दस बजे! टिकिट ले लूँ?"
"जी भैया! जी।"
मरुस्थल में आठ नहीं दो ही ऋतुएँ होती हैं भयंकर गर्मी और गर्मी! बाकी सब दो दो दिनों की मेहमान की तरह आती हैं... उन तितलियों की तरह... उनकी झलक पाने को ऎसे ही कुछ पल चुराने होते हैं... अकेले...
- मुखर 24/3/18