Thursday, October 18, 2018

मी टू - कहानी

“क्या हुआ ? थोबड़ा क्यों उतरा हुआ है ?”
“कुछ नहीं यार बस ऑफिस की पॉलिटिक्स!”
“ओss! चल हाथ मुंह धो ले , मैं चाय चढ़ा रही हूँ !”
एक तेरो बलमा रे एक ...म्म्म..ऊँऊँ ...माधवी गुनगुनाती हुई चाय छान रही थी .
“ऐसी भी क्या पॉलिटिक्स हो रही है ऑफिस में जो आज तेरा चहकना बंद है ? ” चाय पकड़ती हुई माधवी टेरेस के झूले पर बैठ गई . “मुझे तो कोई और बात लग रही है !”
ईला कप पकड़ी दूर डूबता सूरज देख रही थी. “एक्चुअली मैं मीटू के बारे में सोच रही थी.”
“हाँ यार ! बड़ों बड़ों की कुर्सी हिल गई !”
“सच कह रही हो . वो तनुश्री , कंगना , गज़ाला वहाब जैसी बड़ी बड़ी हस्तियाँ ही हिम्मत कर सकतीं हैं दुनिया के सामने यूँ लोगों का कच्चा चिठ्टा खोल कर रख देने की !” ईला जैसे अपने आप से बातें कर रही थी . माधवि कुछ कहने जा ही रही थी कि उसे माजरा कुछ अलग लगा. वह अपना कप ले ईला के पास पिलर से सट कर खड़ी हो गई .
“हम जैसों की कहाँ हिम्मत अपनी आप - बीती कहने की ! कहें भी तो किसको ?”
“फ़ेसबुक पर और किससे ?”
“तू कह पायेगी ?” सुन माधवी की आँखें फ़ैल गई . उन फैली आँखों में क्षण भर को चौंके दहशत को वह ईला से छुपा नहीं पाई .
किसी अपराध का पर्दाफाश मानने के बजाये लोग तो बदले की भावना और पब्लिसिटी स्टंट तक कहने से नहीं चूक रहे . बात औरत के खिलाफ हो तो ये सारे मर्द या तो सेंस ऑफ़ ह्यूमर ढूंढने लग जाते हैं या फिर उन्हें जात पात यद् आने लगता है . अब उसके क्रिश्चन होने की बात जाने क्यूँ उठ रही है ?
“औरत प्रश्न जो कर रही है ! पित्रसत्तात्मक समाज पर ऊँगली जो उठा रही है !”
“और औरत मिल जाये तो सब जात पात मिटटी में !”
“डर इस बात का है कि सफ़ेद कुरते पर दाग लग जायेगा. समाज में मुंह काला होने का डर है.”
“ देख ! ये सारी बातें बड़ी हैवी लगती हैं बट द थिंग इज गलत को पहली बार चिल्ला कर गलत कहने की इच्छा हो रही है .” 

 “मुझे लगता था कि मेरी बात कौन समझेगा, कौन मानेगा? आखिर कितनों के साथ ऐसा होता है ? सब तो मुझे ही दोष देंगे. मगर सोशल मिडिया की माने तो जाने कितनी ही जिंदगियां चूर चूर आत्मसम्मान के बोझ तले बदबूदार साँस ले कर मर मर जीने को मजबूर है.”
सूरज डूब चुका था परन्तु दोनों का घर के भीतर जाने का बिलकुल मूड नहीं था .वहीँ बिछे मैट पर लेट गए. तभी डोर बेल बजी .
“ये राधिका भी न !” ईला चिढ़ कर बोली. “जब तक दरवाजा न खोलो बेल बजाती ही जाएगी !”
“येएsss ! मुझे अपॉइंटमेंट लैटर मिल गया !” राधिका चहक रही थी . उसके हाथ के पेपर बैग से पनीर पेटीज और हनी चिली पोटैटो की खुशबू आ रही थी . सब वहीँ टेरेस पर बैठ कर पार्टी करने लगे.  
सबका मूड चीयर अप हो चूका था . हमेशा की तरह उनके बीच ‘ट्रुथ & डेयर’ खेल शुरू हो गया.
“अरी अब तो कुछ बचा भी नहीं सीक्रेट जो बताया जाये !” माधवी का मुँह बंद करती हुई राधिका ने इला की तरफ इशारा किया जो गंभीर मुद्रा में सर निचे किये हुए कुछ बोलने की तैयारी में थी ...
“कोई चौदह पंदह साल पहले की बात है. मैं अपने टू व्हीलर से ऑफिस जा रही थी . मेरी पहली नौकरी ही थी वह. कि दाहिनी और से कोई हाथ मेरे बाजु के नीचे से आ कर मेरे वक्ष को छू कर ....मैं जब तक संभालती वे लोग तेजी से बाइक भगा लिए. मैंने भी एक्सीलेटर फुल कर दिया और पीछा किया. आखिरकार हीरो पुक एक बाइक का कितने देर पीछा कर सकती थी. खैर, मैंने गाड़ी का नंबर तो अच्छे से याद कर लिया था. ऑफिस में शिवानी मैडम द्वारा देरी से आने का कारण पूछने पर वाकया बताया . मेरा चेहरा भी सब कुछ बयान कर ही रहा था. बहुत गुस्से में थी मैं . सारी कलीग्स भी आसपास जुट गई थीं . एकबारगी तो सभी को डर भी लगा तो गुस्सा भी आया . मैंने कहा, “आज हाफ डे लेकर सरदारपुरा थाने जाऊँगी , रिपोर्ट लिखाने.”
कोई ढाई बजे जब मैं थाने पहुँची तो वहां सारे कांस्टेबल जैसे ही बैठे थे शायद. मेरे घटना बताने पर उन्होंने मुझे पहले तो बताया कि गाडी का नंबर नोट कर लिया है , कार्यवाही हो जाएगी , तुम जाओ घर.
मैंने कहा कि मुझे कंप्लेंट लिखानी है. मेरे ज़िद्द पकड़ लेने पर उन्होंने मुझे समझाया कि ऍफ़ आई आर लिखाने से अगले दिन के अखबार में घटना और आपका नाम भी आएगा .
सुन कर एकबारगी तो चौंक गई . “क्यों ? अखबार में क्यों आएगा ?”
“मैडम , हिसाब तो ऐसा ही है .”
मुझे लगा शायद यही नियम है. “ठीक है, मुझे कंप्लेंट लिखानी है.”
“आप बैठो , अभी साहब नहीं हैं. एक-आध घंटे में आते होंगे.”
जब तक थाना अधिकारी आये मुझे पूरे दो घंटे हो गए थे इंतजार करते हुए. ऑफिस के भीतर जाते हुए उनकी निगाह मुझ पर पड़ी थी . थोड़ी देर बाद मुझे बुलाया गया. मैंने पट्टी पर नाम पढ़ा “महबूब खान” ! उन्होंने तफसील से मेरी पूरी बात सुनी और मुझे आश्वस्त किया कि मेरी बात बिलकुल सही है. बदमाश पर कार्यवाही होनी ही चाहिए. उन्होंने मुझे मेरी बहादुरी की भूरी भूरी प्रशंसा की. यह भी कहा कि मेरी जैसी सजग लड़कियों की ही वजह से समाज-सुधार संभव है और पुलिस को बड़ी मदद भी. मेरा गुस्सा अब तक शांत हो गया था. मैं मन ही मन सोच रही थी कि अधिकारी लोग ही समझदार और बहादुर तथा नियम पर चलने वाले होते हैं. ये कांस्टेबल सब काम-चोर कहीं के.
थाना अधिकारी महबूब खान ने मुझे यह कह कर रवाना किया कि जल्दी ही मुझे खबर करेंगे कार्यवाही के विषय में. और वो खबर कभी नहीं आई . थोड़े दिनों में मुझे अंदाजा लग गया कि मुझे बड़े आराम से फुसलाया गया. तब पता लगाया कि ऍफ़ आई आर की तो रशीद दी जाती है हाथों हाथ.
ऐसा नहीं है कि उस घटना ने मेरे आत्मविश्वास को डिगा दिया . हाँ मगर जहन में कहीं दबी सी एक टीस तो है कि क्या कारण हैं कि उस लड़के को ऐसा करने की न सिर्फ सूझी बल्कि उसने कर भी दिया ? क्या ख़ुद के कोई उसूल नहीं थे उसके? क्या वह ऐसा बुरा व्यक्ति ही पैदा हुआ था ? क्या उसे समाज का कानून का , बदनामी का , अपनी छवि का कोई दर भी नहीं ? क्यों उसकी छुवन मेरे लिए एक चोट थी और मुझे छूना उसके लिए मजा ?
इससे भी अधिक व्यथित करने वाली बात है हमारी सुरक्षा व्यवस्था का ढपोर-शंख होना ! बाईक का नंबर तक , लड़कों का हुलिया तक देना सब बेकार ? ऐसे नहीं तो वैसे मुझे समझा- बुझा कर घर ही भेज दिया न ? जब मुझे यही समझना-बूझना था कि इतनी सी बात को कोई तूल नहीं देना चाहिए बेफालतू में, तो फिर किस सामाजिक व्यवस्था ने मुखमें ये समझ भरी कि किसी के बदन को छूने की इच्छा तेरे में जागना तो दूर तुझे कोई छू भी जाए तो ज़िन्दगी भर खुद को कोसते रहना ?”
“डबल स्टैंडर्ड्स !” माधवी के मुँह से निकला.
राधिका उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए, “सच में यार ये दुर्व्यवहार हमें लाइफ टाइम कचोटते रहते हैं.”
“मैं इतना सोच पाई थी . वैभव से मन की बात शेयर भी कर पाई थी . और उसकी तरफ से मुझे संबल ही मिला हमेशा . इसीलिए समाज को मैंने हमेशा अपने ठेंगे पर रखा है . मन में कहीं कोई बोझ नहीं पाला कभी .
मगर आज ! आज जब मी टू का यह कैंपेन पूरी दुनिया में हलचल मचाता हुआ अपने देश पहुंचा तो सुकून मिला कि नहीं , अब लड़कियां नहीं सहन करेगी ...अब लड़कियां चुप नहीं रहेगी ....कि हाँ इलाज है इस महामारी का कि जिन संस्कारों से एक लड़की की परवरिश होती है , वही परवरिश लड़कों को भी मिले. तन –मन की सुचिता के सामान मानक हों ! मगर हमारा समाज तो इतना सड़ा हुआ है कि जो लड़कियां ऊँगली उठा रहीं हैं उन्हीं का मजाक बना रहा है ? कोर्ट में घसीट रहा है ? कहता है सबूत पेश करो ? क्या साबुत दूंगी मैं पंद्रह साल पहले की उस घटना की ? क्या बाइक नंबर अभी तक याद रखना चाहिए था मुझे ? और क्या वो नंबर ही काफ़ी होगा ?” 
ईला का आत्मसंवाद ख़त्म तो हो गया था परन्तु यह ट्रुथ एंड डेयर का खेल आज एक नए ही मोड़ पर आ खड़ा हुआ था . तीनों सखियाँ पुराने से समय में अपने ज़िन्दगी की सबसे खारी यादों के मकडजाल तक पहुँच गईं . माधवी का ह्रदय भी तो राधिका का भी दिल आँखों की बोली चीख रहा था - मी टू.
माधवी, जिसका कहना था कि सारे सीक्रेट्स तो बता दिए, आज सबसे ज्यादा सीक्रेट बात शेयर करने की जुर्रत करना चाहती थी . उसने कोक की बोतल खोली और मसनद का सहारा ले लिया.
“बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी . सक्सेना अंकल पापा के अच्छे दोस्त थे. उनकी बेटी, सीमा दीदी की शादी थी . सो हम लोग घर के सदस्य ही की तरह उनके यहाँ व्यस्त थे. सीमा दीदी की कोई ड्रेस अल्टरेशन के लिए दे रखा था.... उस समय  मालदा स्ट्रीट्स के तुलिका फैशंस से ड्रेस लेने सक्सेना अंकल के साथ सीमा दीदी ने मुझे भेज दिया . मैं मम्मी को बता उनके साथ निकल गई.
“सुबह से कुछ खाया है तुमने? भाई मुझे तो बड़ी भूख लगी है.” यह कहते हुए उन्होंने चेतक सर्किल के पास रेनबो रेस्टोरेंट्स पर कार पार्क कर दी.
“घर में इतनी भाग-दौड़ है कि चैन से बैठ कर खाना भी नसीब नहीं हो रहा !” हालाँकि मुझे उनकी बात अजीब लगी मगर हो सकता है वे सच में सुबह से कुछ खा नहीं पाए हों . एनिवेज , खाना खा का हम घर लौट रहे थे. उन्होंने कार में चल रहे गाने का वोल्यूम तेज कर दिया. उनके चेहरे के हावभाव मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहे थे . परन्तु मुझे ये भी नहीं आईडिया था कि मुझे कैसा फील हो रहा है . क्यों मैं इतना कुछ नोटिस कर रही हूँ. चार के सारे शीशे चढ़े हुए थे . शीशों पर फिल्म चढ़ी हुई थी. मैं कुछ अचकाचाई सी खुद को कम्फर्टेबल होने की कोशिश कर ही रही थी कि में उन्होंने मुझे किस करने की कोशिश की. आई वास अघास्ट ! विथ रेफ्लेक्सेस मैंने उन्हें धक्का देते हुए अपना मुंह घिन्न से फेर लिया . और चिल्ला पड़ी , ‘अभी कार रोको नहीं तो मैं चलती कार से कूद पडूँगी . वो कितना कुछ बोले , सॉरी भी बोले...मगर मैंने कार का दरवाजा खोल दिया. मैं जैसे अपने आप में नहीं थी . उन्होंने कार रोक दी और मैं उतर गई. मैंने ऑटो किया और घर आ गई. अपने बिस्तर पर पड कर मैं खूव खूब रोई. शाम को जब मम्मी आई तो मैंने उन्हें सब बातें बताई . पहले तो मम्मी ने मुझे डांटा कि मुझे उनके साथ रेस्तरां जाने की कहाँ जरुरत थी, यह भी कि मैंने ही कहा होगा. और फिर यह भी कहा कि यह सब भूल जाऊं . किसी को बताने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. बदनामी होगी सो अलग. “अब तुम बड़ी हो गई हो, ये अल्हड़पन छोड़ो ! ऐसी लड़की बनना ही क्यों जिसको ...”  
मुझे समझ में नहीं आया कि मेरी बदनामी होगी कि अंकल की ? मेरी यह भी समझ में नहीं आया कि मम्मी ने मुझे किसलिए डांटा . इसमें मेरी गलती क्या थी आखिर ? मेरा अल्हड़पन ? मैंने खुद ही पर शक करना शुरू कर दिया . बड़ी अजीब सी हो गई थी मैं उस दिन के बाद. उस घटना ने मेरे मन में मेरी मम्मी की कमजोर पर्सनालिटी की इमेज बना दी. और यह सोसाइटी के दोहरे नियम के कारन इसके प्रति विश्वास ही उठ गया. इसके बाद तो हर एक पुरुष को मैंने हमेशा शक्की निगाह से देखना शुरू कर दिया. सीमा दीदी अपने पापा को कितना रेस्पेक्ट करती थी, प्यार करती थी . उनको क्या पता कि उनके पापा कितने गंदे हैं ! मैं जब भी सक्सेना एंटी को देखती, उनके मुंह से अंकल की बढ़ाई सुनती तो लगता कि सब औरतें कितनी ग़लतफ़हमी में जीती हैं ! क्या इसका मतलब हम जिनके बारे में अच्छा अच्छा सोचते हैं वह सब एक तरफ़ा है ? क्या मुझे अपने घर परिवार पड़ोस के आदमियों पर आँख मूंद कर विश्वास नहीं करना चाहिए ? 
“तुम सही कह रही हो माधवी . मैं खुद कभी किसी आदमी पर विश्वास नहीं कर पाती . आदमी के हर शब्द , हर एक्ट पर हजार प्रशन मेरे मन में खड़े हो जाते हैं. कहीं उसका कोई और तो अर्थ नहीं था ? उसका क्या स्वार्थ हो सकता है इसमें ? वह मुझे मिस यूज़ कर रहा है क्या? मैं स्टुपिड हूँ, मुझे जरुर एकदिन यह बंदा धोखा देगा. ऐसा सोचते सोचते मैं कभी किसी भी मेन के प्रति अट्रेक्ट ही नहीं हो पाती. एक अच्छा दोस्त, टीचर, गाइड नहीं मान पाती . यह सब हमेशा से ऐसा नहीं था . पहले मैं अधिकतर सब पर ही विश्वास कर लेती थी. सोचती थी कि छुटपुट घटनाएँ छेड़छाड़ की तो होती ही रहती हैं और मैं अच्छे से हैंडल भी कर लेती हूँ . मेरी मम्मी तो कहती भी थी , “इसे तो हर कोई अच्छा इंसान ही लगता है ! किसी दिन जबरदस्त धोखा खाएगी.”
और वह दिन भी आया मेरी ज़िन्दगी में . तब हम पीतल फैक्ट्री के सामने वाली कॉलोनी में रहते थे. चिंकी के जन्म से पहले की बात है. उस दिन मेरे यहाँ सिलेंडर ख़त्म हो गया था. रवि कंप्यूटर्स की कोई डील करने दिल्ली गया हुआ था. तब मोबाइल फोन नए आये थे सो बस रवि के पास था. मैं नीचे मकान मालकिन के लैंड लाइन से रवि को फ़ोन मिलाया कि सिलेंडर ख़त्म हो गया है. आंटी ने मेरी बात सुन मुझे बोला कि उनके यहाँ डबल सिलिंडर हैं . उनका बेटा राकेश ऊपर पहुंचा आएगा. और वह एक घंटे बाद ही आया भी . सिलिंडर चेंज करते हुए वह मुझसे बड़े आराम से बातें कर रहा था . मुझे उसका हमारी लव मैरिज के बारे में पूछना कुछ अजीब सा लगा. लेकिन वही बात हैं न कि लड़कियों की तो हर छोटी छोटी बात पर शक करने की आदत होती है , यह सोच कर मैंने खुद को नार्मल ही रखा. परन्तु रसोई से निकलते हुए तो वह मुझे गले ही लगा लिया. मैंने उसे जोर का झटका दिया और कांपती हुई आवाज में कहा ,”निकल जाओ मेरे यहाँ से, अभी ! नहीं तो चिल्लाउंगी !”
साला गधा जाते-जाते बोलता है कि “रवि को मत बताना . पलीज़ !” मेरा गुस्सा तो सातवें आसमान पर चढ़ गया. रात रवि आया तो वह समझ गया कि कोई बहुत ही सिरिअस बात है. मैं तो सोच रही थी कि वह थका हारा आएगा, जाने डील कैसी हुई नहीं हुई आदि पूछ कर ही तसल्ली से हादसे के बारे में बताउँगी. परन्तु मेरा तो रोना ही छूट गया . रोते-रोते सारी बात बताते- बताते रवि पर ही सारा गुस्सा उतारा मैंने.
“उसको क्या लगता है लव मैरिज की है तो हर किसी को अवेलेबल होऊँगी ? अपनी बीवी के बारे में भी नहीं सोचा ? बेटी का बाप हो कर ? आदमी है या जानवर ? और क्या मतलब था उसका कि रवि को मत बताना ? मतलब रवि की नजरों से गिरना नहीं चाहता है वो... चाहे मेरी नजर में गिर जाये उसकी परवाह नहीं उसे ? हैं? रवि उस पर गुस्सा होगा...बात बढ़ेगी...बदनामी होगी ....! लेकिन मैं तो कुछ कर नहीं पाऊँगी न , राईट? या उसका यह मतलब था कि मैं अपनी पति की जागीर हूँ ...मेरी खुद की इच्छा मायने नहीं रखती ?
वो तो रवि की दिल्ली में अच्छी डील हुई थी कि जहाँ हमें अगले महीने मकान बदलना था हम अगले हफ्ते ही हम अपना ऑफिस स्टार्ट करने मानसरोवर में शिफ्ट हो गए. बट उस घटना ने मेरे मन में रिश्तों के लिए ...खास कर के पुरुषों के लिए शक की दिवार खड़ी कर दी . हमेशा के लिए. आई कैन नेवर बी कम्फर्टेबल विथ एनी मेन एवर ! यहाँ तक कि रवि के भी हर टच को टेस्ट करती हूँ.  इट्स नोट इजी नाव फॉर मी.”
तीनों सहेलियों ने आज खुद को एक दुसरे के कुछ और करीब पाया. बात चीत का दौर मद्धम पद गया था . भीतर से चादर ला वे तीनों वहीँ टेरेस के मेट पर ही एक दुसरे से चिपक कर सो गईं. अगले दिन नवमी की छुट्टी थी सो कोई जल्दी तो थी नहीं सुबह उठने की. भोर की ठंडक और बढती रौशनी में तीनों ने चादर कुछ और लपेट लिया था एक मीठी नींद और निकाल लेने को.
तभी नीचे से अखबार का रोल आकर जोर से लगा . पिलर के कंगूरे पर बैठा कबूतर भी फड़फड़ा कर उठा.
“क्या है यार यहाँ सोना तो ...” कहती हुई ईला की नजर जैसे ही अख़बार के हेड लाइन्स पर पड़ी वह चिल्ला पड़ी –
“हे गर्ल्स ! वेक अप ! सी ! उसने रिजाइन कर ही दिया आखिर !”
“हें ! सच्ची !!”
“रिजाइन तो करना ही पड़ता मैडम ! ये कोई चुनावी अजेंडा नहीं वर्ल्डवाइड औरतों की आवाज है जो अब चुप नहीं बैठेंगी !”
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Tuesday, October 9, 2018

"इज्ज़त" - ( प्रतिलिपि पर "कथा सम्मान प्रतियोगिता" में ) - Link has been updated.

गुड्डे गुड़ियों के खेल हो या छोटे- छोटे खिलौने वाले बर्तन लेकर रसोई-रसोई,सरोज को कभी नहीं भाते थे . वह तो जब देखो तब दौड़ कर पिताजी के पास खेतों में पहुँच जाती , लपक कर अमरुद या आम के पेड़ पर चढ़ जाती , दूर से ढेला फेंक खेत चुगती चिड़िया उड़ाती या फिर छोटे भाई महेश के पतंग की गिट्टी पकड़ते- पकड़ते फिर पतंग ही उड़ाने लगती . अभी उम्र ही क्या थी सो दद्दू और पिताजी उसकी हरकतों पे हंस लेते थे . मगर गाँव भर की औरतें रूप -रंग की तारीफ करती- करती कब उपालंभ भरी चिकौटी काटती कि सरोज की अम्मा बिलबिला जाती .

“ तेरहवीं में लग गई तू , अब ये लहंगा कमीज के संग दुपट्टा ही डाल लिया कर !लड़कों के स्कूल जाती है, जरा लोक- लाज का लिहाज कर !”

“हाँ हाँ” करती नटखट सरोज पिताजी और दद्दू का टिफ़िन उठा ये चली वो चली !”

“अरी किधर चली ? खाना महेश दे आएगा , तू जरा मेरे संग मसाले कुटवा ले ! या छोरी तो सुनअ ही कोनी !”

सत्रह की होते- होते तो सरोज खेत का सारा काम सँभालने लगी थी . ट्रेक्टर से रुड़ाई- गुड़ाई, फसलों की कटाई और बंधाई , गाय बैलों का चारा- सानी , दूध दुहना...क्या नहीं करती ! हाँ , रसोई में कभी नहीं बड़ती !खाना जीम कर थाली एक तरफ सरका देती ! पढाई में भी कम होशियार नहीं थी . दसवीं की परीक्षा के बाद प्रधानध्यापक खुद आए थे सरोज के पिताजी से मिलने . “ बहुत अच्छे नंबरों से पास हुई है आपकी बिटिया , आगे की पढाई के लिए क्या सोचा ? मेरी मानो तो कोई डॉक्टर-इंजिनियर से कम न है अपनी सरोज !”

...कहानी पूरी पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर जाएँ -
https://hindi.pratilipi.com/story/%E0%A4%87%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A5%9B%E0%A4%A4-kkcvcY1ZspKR

Tuesday, July 24, 2018

"कितनी चोखी कैसी ढाणी"


बिड़ला मंदिर और मोती डुंगरी के बारे में ज्ञान पेलने के बाद जब हम निकले चोखी ढाणी की तरफ़ तो मुझे बच्चों पर दया आ गई और सोचा ख़ुद ही अनुभव करने दो क्या तो ढाणी और क्या चोखी ढाणी! 
पाँच सितारा स्वागत! रोली टीका! शहनाई! मांडने, खिड़की दरवाजे, ताले, और हज़ारों प्रकार के हस्तशिल्प के आइटम्स से सुसज्जित! आँखें फटी की फटी और अहा वाह के बीच क्लिक क्लिक! 
“मैं ऊँट पर बैठूंगी! असली के!”
“हाँ बेटा, हाथी, घोड़ा, बैलगाड़ी भी असली के!” 
जलजीरा पी कर घूमते घामते कठपुतली का. खेल देखा, जादू का खेल देखा फ़िर सीढ़ियाँ चढ़ एक टपरी पर पहुँचे! कोई बारह बाई पाँच कोठरी सी जिसमें देखने को आटा चक्की, पानी का घड़ा और औझरे में माटी का एक नंगा शिशु! दूसरे कोने में चूल्हे पर मक्के की रोटी सेकती एक वृद्धा जो हम मेहमानों को पत्ते के दोने में रोटी का टुकड़ा पर ताज़ा मक्खन और लहसन की चटनी डाल प्रेम से खिला रही थी। 
मैं उनके पास ही बैठ गई। 
“आपने जैसे लोया बनाया, यह मक्की का आटा तो नहीं लग रहा!” 
“शंकर नहीं ठेठ असली मकई रो आटा है!” उसने कचोरी सी फूली बड़ी सी रोटी को चीमटे से पलटा!
“कहाँ से आती हैं अम्मा आप !” 
“यही कोई एक घंटे का रस्ता है म्हारे गांम को! चाकसू सू पेली!”
“कैसे आते हैं?” 
“पैदल ही आऊँ हूँ बेटा!” उन्होंने सिकी रोटी के चार टुकड़े कर चार दोने बनाए, मक्खन रखी तो मैंने उनमें चटनी और गुड़ डाल कर पीछे खड़े मेहमानों को पकड़ाया तो वह स्त्री हँसती हुई मुझ पर हाथ का पंखा झलने लगी! 
“कित्ता बजे तक जाओगा आप?”
“इग्यारह बजे सीक! बारा बजे ताईं तो पूंच जाऊँ घरां !”
“थे कमाओ कत्ताक हो!”
“सौ रूपिया रोज की! चार बजा की आई हूँ!” 
तीन दोने लेकर बाहर हम सबमें बांट लिया! उँगली चाट चटखारे लेते हम नीचे उतरे। 
संग्रहालय, भूलभुलैया, बहुत ऊँची फिसल पट्टी, नटों का खेल, मेले में मिलने वाली सारी दुकानें, सारे खेल… तीर कमान, बंदूक, बॉलिंग alley, रिंग.. आदि आदि… 
बनावटी अँधेरा जंगल, स्पीकर से आती जंगली जानवरों की आवाजें, पानी की नहर पर कई टापू और पुल और नौकायन , घुप्प अँधेरी गुफ़ा, मचान, टेकरी पर मन्दिर, जंगल के देवता के चबूतरे पर नगाड़े बज़ाता एक ग्रामीण और पर्यटकों के बच्चों को जंगली नृत्य हुलाला कराता जंगली कॉस्ट्यूम में एक ग्रामीण! 
जंगल से बाहर निकलते ही विभिन्न राज्यों की झलक लिए कई छोटी छोटी कोठियाँ जिन पर उसी राज्य की वेशभूषा में तैनात ग्रामीण! न! उनमें से किसी को उन राज्यों की भाषा नहीं आती। 
“बाबा आपको मलयालम भाषा आती है? कुछ तो शब्द सीखना!” 
“आप जैपुर का कुण सा गांव… कुण जात?”
“ बा सा! कुण सा जमाना री बातां करो हो… अब कोई जात पात कोनी हुआ कर ह…बस अमीर और गरीब, मलिक और नौकर! कुण सी भी जात हो मिलेगा तो वा ही सौ रिपिया!”
दूमंजिले मचान से सारी ढाणी का रूप निरख हम जीमने (खाने) पहुँचे। लंबी कतार में आधा घंटा इंतज़ार के बाद भरी उमस में खाना खाने दरी पर बैठे और ऊँची चौकी पर पत्तल दोने में छप्‍पन नहीं तो पता नहीं कितने पकवान परोसे गए । 
“अरे बस्स! इतना घी?” 
“अरे सेठानी! क्यूँ शर्माओ हो! दुबल्या हो रहा हो… थे तो जीमो!” 
मान - मनुहार कर जबर्दस्ती थाली में डाला भी गया। दो चार नहीं सबने ही जितना खाया दुगुना जूठा छोड़ा! वहीं पत्तल पर हाथ धुपाया। हमारे उठते उठते वे सारे पत्तल भोजन समेत बड़ी बड़ी काली थेलियों के हवाले हो गईं। 
हाथ धोते, जूते चप्पल पहनते हर कोई बात करता सुना जा सकता था कि भोजन की बहुत बर्बादी है। 
जरा हवा महसूस हुई, लगता है दूर कहीं बारिश हुई है। हम ननद भौजाई भतीजी वहीं पास में मेहँदी लगवाने बैठ गईं। 
“आसपास ही है म्हे सबरा गाम। बारा बजे करीब जाश्यान! सौ रिपिया मिल जाया करअ ह।… ना एकली नई, म्हे भाईलियाँ सागअ आया करन्… के बेरा कत्ता लोग काम करअ हैं अठे!...के तो लुगायां, आदमी, टाबर… ” मैं अंदाजा लगा रही थी… करीब हज़ार तो होंगे ही ?…..आठ नौ घंटे? न्यूनतम मजदूरी? टिकिट तो 800-1000 /- प्रति व्यक्ति! भीड़ ठसाठस!... 
मेंहदी लगवा कर जब हम ढूँढते हुए पहुंचे तो देखा तीनों के तीनों अलग अलग खाट पर पसरे थे! 
“आज एक अरसे के बाद ऎसे देख रहा हूँ आसमान!” 
मैंने ऊपर देखा तो विस्मित रह गई, गहरे नीले असमान में डेरा जमाते रूई से बादल! मैं भी बाएँ हाथ की मेहँदी संभालती वहीं अधलेटी हुई। 
“एक बात नोटिस की तुमने?” 
“क्या?” 
“यहाँ इतनी घनी हरियाली है और दिनभर में कितनी ही बार बारिश हुई मग़र एक मच्छर मक्खी नहीं… उड़ने वाले या कैसे भी कीड़े नहीं!”
“अरे हाँ!” मैं उठ बैठी थी. 
“और ना ही किसी प्रकार के पक्षी!... कस्टमर को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए…”
मैं सोच नहीं पाई क्या उपाय किया गया होगा! 
“ढाणी! वह भी चोखी! पैसा हो, प्रकृति नहीं!” 
“अहाँ! प्रकृति वही जो पैसा दे!” 
… और हम?? 
मुखर

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Monday, July 2, 2018

"सुंदरता, गुण और आत्म विश्वास" - संस्मरण


उस सच्ची कहानी का अंत क्या हुआ पता नहीं। जब मैं दूसरी तीसरी कक्षा में थी तब वह और मैं साथ साथ स्कूल आते जाते थे। 
बात सत्तर के दशक की है। रांची के एच ई सी कॉलोनी से हम दस दुकान चौराहा तक पैदल जाते थे स्कूल बस पकड़ने. मैं अपने घर से अकेली या भाई के साथ जाती. रस्ते में उसका घर पड़ता. उस कॉलोनी में सारे क्वार्टर ही थे. काफी समय तक तो मैं समझती थी कि दुनिया में क्वार्टर ही होते हैं. अलग अलग रँग रूप आकार के घर तो दादी के गाँव में होते हैं। या फिर 1984 में जोधपुर आने पर ही देखे।
हाँ, तो उसकी मेरी दोस्ती के क्या कारण थे वो जीवन में बहुत बाद में समझ आया. मैं गोरी हूँ यह तो मुझे तब भी पता था. और वह बहुत काली. मग़र मुझे वह अधिक सुन्दर लगती। तब सुंदरता के मायने शायद मेरे अपने एहसास थे. तो वे क्या थे? वह मुझे सुंदर क्यों लगती थी?
धुर्वा के के.वी. तक कोई बीस तीस मिनट का बस का सफ़र आना और जाना.
मैं पढ़ाई में इतनी ढ़पोर कि कक्षा में फ़र्स्ट आती थी… नीचे से! सो या तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे, हर टेस्ट में ज़ीरो वन मार्क्स की घोषणा पर… Yaया फिर मेरा ही आत्म विश्वास इतना कम था कि मुझे लगता मेरे कोई दोस्त नहीं हैं। लगता क्या था, दोस्त थे भी नहीं। मैं बताती हूँ मेरा ऎसा लगने के पीछे ठोस कारण हैं। games के पीरियड की बेल बजते ही सब classmates भाग कर ग्राउंड पर पहुँच जाते और मुझे कक्षा से सबके टिफ़िन बॉक्स लाने पड़ते। recess ओवर होने की बेल बजती और सब नंगे पाँव ही क्लास में दौड़ जाते, मुझे उनके जूते उठा कर लाने पड़ते। शायद ऎसा हमेशा नहीं हुआ होगा परन्तु दुखद यादें ऎसी चिपकती हैं कि वही रह जाती हैं बस।
तो बस में सभी अपने अपने मित्र के साथ बैठते। मेरे लिए जो सीट बचती वहाँ वह मिलती। शायद यही कारण था 
हम दोनों के साथ होने का. चूँकि मैं ढ़पोर थी सो कभी जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसी थी पढ़ाई में। वह मुझसे दूर नहीं भागती थी, मेरा मजाक नहीं उड़ाती थी और सबसे अहम बात कि वह भी अकेली ही थी, अतः मेरी दोस्त थी। 
प्रिंसिपल सर पापा के अच्छे मित्र थे तो उनकी बिटिया देबयानी सेन भी मेरी अच्छी दोस्ती थी, मग़र उसके साथ रहते हुए भी गहरे में कहीं inferiority complex था या यह अहसास कि मैं कमतर हूँ । उस धरातल पर वह लड़की ही मेरे समकक्ष लगती। ख़ैर… 
पापा के तबादले के कारण मेरा स्कूल बदला और फ़िर दोस्त भी बने। क्रोशिया, खेल, योगा में स्कूल स्तर पर टॉप करने के कारण आत्म विश्वास भी बढ़ा, कालांतर में पढ़ाई भी की। मग़र जहन में हमेशा वह लड़की बनी रही… अब मैं समझ रही थी कि पढ़ाई में भले ही वह कैसी भी रही हो, उसका काला रँग ही उसके अकेले होने का कारण था। 
नौकरी के दौरान मैं एक बेहद बदसूरत (मानकों के अनुसार) लड़की को किसी भी अत्यंत सुंदर लड़की से अधिक प्रतिभावान, लोकप्रिय व आत्म विश्वास से लबरेज पाया तो फ़िर वह लड़की याद आई और एक बोझ सीने से उतरा। बाद में एक और सहकर्मी जो काली तो बहुत थी मग़र नैन नक्श एकदम दुर्गा माँ के आइकॉन जैसा साथ ही में बेहद प्रतिभावान के साथ तीन वर्ष काम किया। इस बीच उस बचपन की मित्र का नाम मैं भूल गई। लगता है मेरे मन से उसके अकेलेपन का भाव/दर्द ख़त्म हो गया था। 
आज FB के एक पोस्ट से फ़िर उसकी याद आई… एक मुस्कान के साथ! 
- मुखर

Friday, June 22, 2018

“अपशब्द”


वह नई नई लेखिका लघुकथाएं लिखती है . कथाओं के केंद्र में होते हैं बड़े मासूम से सवालात . क्या करे , जिंदगी में अनुभव का घेरा जितना था वही तो झलकेगा लेखन में . हाँ , सोचती बहुत है. गहराई से एकदम . सपने एकदम नादान से उसके. जैसे हँसते हुए फूलों की क्यारियां , चहचहाती सुबह और गुलाल से नहाई शाम हो, सबकी आँखों में तारों भरा आसमान देखना चाहती है . तो नतीजा यह हुआ कि उसकी कथाओं में जो ग्रे शेड के पात्र होते हैं न वो भी उतने ही क्यूट ! मतलब हर कहानी का अंत सुखद और पाठक का मन हल्का हल्का ! 
लिखने पढ़ने का अंजाम यह हुआ कि अब हर जगह आँखें खोले सब देखती रहती है . अख़बारों में भी खोद खोद कर हालात तौलते रहती है . अब अख़बार तो अख़बार ही होता है , सो कई बार मन उद्देलित हो जाता . बलात्कार की ख़बरों से तो उसका मन चित्कार कर उठता है . समाज के इस रूप की तो कल्पना भी नहीं थी . पर वह जानती है हर समस्या का हल होता है . उसने इसका भी एक समाधान ढूँढा . कहना तो कहानी ही के रूप में था न ? सो उसने कथावस्तु सोचा, पात्र गढ़े और लिखने लगी संवाद . अब बात यह थी कि इतने काले पात्र के संवाद भी तो अपशब्दों से भरे होने चाहिए ? और लेखिका इस क्षेत्र में एकदम जीरो ! ऐसा नहीं कि वह कभी सुनी पढ़ी नहीं थी गालियाँ , मगर कभी मन में भी नहीं दोहराया था उन वाहियात शब्दों को . हद से हद वह साला , गधा या स्टुपिड ही कहती . अब क्या करें ? उसने इसका भी समाधान निकाला .
“सुनो ! मैंने आज जो कहानी लिखी है न वह तुम्हें एक शर्त ही पर दिखा पाऊँगी !”
“वो क्या ?”
“मैंने संवादों के बीच बीच कुछ ‘खाली स्थान’ छोड़ दिए हैं , वह तुम भर दो , मुझसे नहीं हो रहा !”

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Wednesday, June 13, 2018

"समय की नब्ज़ पर हाथ " - पुस्तक समीक्षा

 पुस्तक समीक्षा
पुस्तक  - मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियाँ
लेखक  – प्रदीप श्रीवास्तव  
मुल्य – 350/-
प्रकाशक – प्रदीप श्रीवास्तव , ई -6 एम/212, सेक्टर ‘एम’अलीगंज , लखनऊ 226024
संस्करण – 2018 , पेपर बैक
समीक्षक – कविता “मुखर”, जयपुर
कहानियाँ जिसे कथाकार ने अपनी शिल्पकला के साथ कुछ इस तरह शब्दबद्ध किया है कि आम ज़िन्दगी में कई तहों में बुनी हुई समस्याओं से रूबरू होता है पाठक . पारिवारिक, सामाजिक , आर्थिक , और मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर केन्द्रित ये कहानियाँ पाठक को चौंकाती हैं तो कई बार नि:शब्द भी कर देती है . पीढ़ी दर पीढ़ी जमीन , खेत संग अपनापन भी बंटता चला जाता है और ज़िन्दगी से विरक्त हुए शहरी मध्यमवर्ग महंगाई, दहेज़, शिक्षा, बेरोजगारी आदि कठिनाइयों के बीच नट सा संतुलन बनाने की जुगत में खो रही संवेदना , बढ़ती अराजकता, स्वछंदता , अनैतिकता को रेखांकित करती हैं ये कहानियाँ .
दस बेहद लम्बी लम्बी कहानियाँ समेटे 464 पन्नों की यह पेपर बैक मोटी पुस्तक पाठक के मर्म को छूती, उसको सोचने पर मजबूर कर देती है . प्रदीप बहुत ही सहजता के साथ कहानी का वातावरण बुनते हुए विषय में प्रवेश कर जीवन की आम घटनाओं को पिरोते हैं. सुख दुःख , प्रेम त्याग आदि रूप में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हुए जीवन बाज़ारवाद , राजनीती , कुप्रथाओं , सामाजिक मान्यताओं के मकड़जाल में फँसा महसूस होता है.
पुस्तक की पहले के सवा सौ पन्नों की कहानी “मेरी जनहित याचिका” बताती है कि कानून का दुरूपयोग अच्छे खासे परिवार को किस तरह तोड़ कर बिखेर देता है . शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलती यह कहानी सामाजिक वर्ण व्यवस्था के चंगुल में फंसे प्रतिभावान पात्र ज़िन्दगी के कड़वे अनुभवों, कश , मय और सेक्स रैकेट के दलदल में धंसते हुए भी सब कुछ सुधार देने का स्वप्न आँखों में पालते जीते हैं , मरते हैं.
एक दृश्य में सिमटी आत्मालाप की शैली में रुसी कथाओं की याद दिलाती दूसरी कहानी “पगडण्डी विकास” में लेखक के सृजनकर्म में विचार और संवेदनाओं का गहरा रिश्ता दिखता है . चित्रात्मक शैली में दिल्ली और महोबा की सर्दी का वर्णन तथा सीधी सरल बीवी का दब्बू और डरपोक पति को हिदायतें सरस व् सहज है. देश की राजनीति पर लेखक की पैनी नजर दो पात्रों के कसी हुई बहस के माध्यम से व्यक्त होती है जिसमें पाठक पढ़ते पढ़ते खुद भी तीसरे पात्र के रूप में उलझ जाता है . गाँधी जी का जो “देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा” सन्दर्भ दिया है उसपर और चिंतन की आवश्यकता है . लेखक द्वारा “पगडण्डी विकास” की अवधारणा बेहद तार्किक है .
कहानी “जब वह मिला” में दोस्ती की खातिर, बीवी का प्रेम और परिवार में सबकी ख़ुशी की खातिर नायक क्या नहीं कर सकता ! मगर यह ख़ुशी का दायरा अपनों से कहीं आगे निकल गया . बेहद सरल शब्दों में यह कहानी प्रवाहमई है . पति पत्नी के बीच मीठी चुहलबाजी संग कुछ दिलचस्प दृश्यों को लेखक ने रचकर धन के बल पर चलने वाली व्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए लाश पर होते खेल की अतिशय संवेदनहीनता बयां की है .
कहानी “करोगे कितने और टुकड़े” में पात्र एक ख्यातनाम लेखक है जिसके एकालाप में सारी कहानी सिमटी हुई है जो पाठक की विचारधारा को परिष्कृत करती है कि वह लेखक के साथ है या विपक्ष में . पर इसी बहाने ‘भारत माता’ की कल्पना तथा उनसे वार्तालाप द्वारा देश की राजनीति और साहित्यकारों का कर्तव्यों पर कई तथ्यों का खुलासा अच्छी खासी बहस के रूप में है . लेखक की विचारधारा से असहमत होते हुए भी कथावस्तु ने उन बहसों में उलझा लिया मुझे. साहित्यकार का कर्तव्य बेशक समाज को , लड़खड़ाती राजनीति  को राह दिखाना है मगर सच बात तो यह है कि उसके विचार निष्पक्ष दिखने भी चाहिए. पात्र अपनी लालसा, “विराट उपन्यास को जग प्रसिद्धि”, के लिए कायरता भरा कदम उठाता है ! कथाकार का मंतव्य स्वागतयोग्य है कि लेखक को बोलने की हिम्मत जुटानी होगी , उसकी जिम्मेदारी के अहसास को , उसके हिम्मत को दर्शाती है ये कहानी है .
स्त्री पुरुष के अंतर्संबंधों में आए बदलावों के परिणामस्वरूप एक स्त्री के संघर्षों की कहानी है “झूमर”. यह कहानी है तलाक के लिए अदालती चक्कर, भरण पोषण देने से बचने के लिए पुरुष की नीचता के हद तक गिरने की . वकीलों की लिजलिजी आँखों की व किसी भी तरह पैसे ऐंठने की है कहानी झूमर . झूमर कहानी है उस स्त्री द्वारा  इन सबसे लड़कर आगे निकल अपनी बेटी को लाड प्यार से पालने पढ़ाने की , समाज का सामना करने को तैयार करने की . सहज भाषा में बारीक वर्णन पाठक को सीधे दृश्य पर ला खड़ा करता है . एक संतान हो जाना स्त्री को विवाह में इतना जकड़ देता है कि झूमर कह उठती है , “मैं इधर की रही न उधर की !”
 “घुसपैठिये से आखिरी मुलाकात के बाद” कहानी में केंद्र बिंदु के विषय से इतर वातावरण को भी विस्तार दिया है जिससे नायक की मनःस्थिति का खाका खिंच जाता है. अख़बारों में प्रबंधन का हस्तक्षेप, ख़बरों से ज्यादा विज्ञापनों पर जोर , सत्ता और मिडिया का गठबंधन आदि की विवेचना यथार्थ एवं प्रभावी है. उत्तम पुरुष में लिखी गई यह कहानी बताती है कि पति का सरनेम , पति की धौंस , पति पर निर्भरता महानगर की इन महिलाओं के लिए बीते दिनों की बात हो गई . यहाँ तक कि विवाहेतर सम्बन्ध बनाने में भी ये पुरुषों से पीछे नहीं हैं. एक बार फिर कहना होगा चित्रात्मक शैली ने मन मोह लिया . वो मूसलाधार बारिश, वो झोपड़ी , वह बाइक की स्थिति सब जैसे आँखों के सामने घट रहा हो . बंगलादेशी घुसपैठियों की ख़बर से कहानी में दिलचस्प व चौंका देने वाला मोड़ आ जाता है . नायक की असमंजसता भरी मन:स्थिति पर कहानी का अंत कर देना पाठक के लिए विचारोत्तेजक हो जाता है . हर परिस्थिति को अपनी सुविधानुसार मोड़ मरोड़ लेने वाला यह नायक अचानक इतना देशप्रेमी कैसे हो गया ?  
विकास के नाम पर आई बाज़ारवाद की आँधी में टूटते परिवार की कहानी ‘बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा’ में पिरोई हुई यह स्त्री पात्र ‘बिल्लो’ पूरी दबंगता से दिल-ओ-दिमाग पर छा जाती है . ‘अहा ग्राम्यजीवन’ में विकास की घुसपैठ के बावजूद लेखक ने साफ किया है कि मेहनतकश के लिए गाँव में रहना अधिक आनंदकारी तथा संतोषजनक है . यह भी कि पूर्वाग्रहों से एक शहरी किसी ग्रामीण के तुलना में अधिक ग्रसित है .   
एक परिवार , माता पिता कैसे अपने जिगर के टुकड़े से मात्र इसलिए मुख मोड़ लेते हैं क्योंकि उसका शरीर सामान्य लिंगवर्ग का नहीं है, थर्ड जेंडर का है . थर्ड जेंडर के मुद्दे पर जहाँ शायद ही कभी कोई गिना चुना साहित्य मिलता है. कहानी, “हनुवा की पत्नी” पाठक को समाज के इस अभिन्न अंग के प्रति समाज के दोगले रवैये से परिचित कराती है . महानगर में मध्यमवर्गी परिवार के लिए जहाँ बाजारवाद, कुप्रथाओं व सामाजिक मान्यताओं से जीना जटिल हुआ जाता है, किराये का घर और बच्चों की पढ़ाई तक के लिए जद्दोजहद हो फिर शादी ब्याह तो दूर की कौड़ी हो जाता है. इन सभी चक्कियों में पिसती युवा पीढ़ी बेरोजगारी के धक्कों ही में पल बढ़ रही है . ऐसे में लड़की होना स्थितियों को बदतर कर जाता है . फिर हनुवा के दुख दर्द की तो इन्तहां ही हो गई . संघर्षशील जीवन के विभिन्न मोड़ पर बार बार अपना पूरा व्यक्तित्व बदलती हुई हनुवा को पहाड़-से दुःख के बीच अपना खोया हुआ पुराना अस्तित्व ही फिर से नहीं मिलता बल्कि साथ एक पत्नी भी मिलती है. पूरी कहानी में सागर मंथन से निकले मक्खन की तरह खूबसूरत इंसान निकल कर आते हैं .
“शकबू की गुस्ताखियाँ” के माध्यम से दो दोस्तों की यारियां , जीवन के उतर चढ़ाव , अच्छे बुरे में बिना किसी पूर्वाग्रह के , बेशर्त प्रेम दिखाया है. दो अलग अलग धर्म के लोग भी कितने प्रिय दोस्त हो सकते हैं , यह कहानी एक उत्तम उदाहरण है . मन की बेलगाम इच्छाएं धर्म व् कानून को हथियार रूप में प्रयोग परिवार को बर्बाद कर देता है , आँखों की शर्म ख़त्म हो जाती है , ज़िन्दगी जहन्नुम हो जाती है और आदमी तिलतिल मरता है. कहानी सियासी चालों द्वारा भारतवंशियों को बाँट दिए जाने , रंजिशों के बीज बो दिए जाने की ओर इंगित करती है. मुस्लिम दोस्त की छह पीढ़ियों का ‘सच’ उजागर करना गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है . उस तरह से तो हम सबकी जड़ अफ्रीका के आदम तक और उससे भी आगे एकल कोशिका तक चली जाएगी .
पारिवारिक तानेबाने को तोड़ स्वच्छंद जीवन जीते एक जवान की कहानी “शेनेल लौट आएगी” में यह समझना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है कि कौन लुटा और कौन लुटेरा . कहानी का अंत दिलचस्प . पाठक के जहन में पूरी कहानी दोबारा घूम जाती है .  
गंभीर कथावस्तु को संप्रेषित करने के लिए आम बोलचाल की भाषा सर्वोत्तम है. रोजाना की ज़िन्दगी में एक आम व्यक्ति तह दर तह कई समस्याओं से एक साथ जूझता कैसे दिन बिताता है यह बात पाठक के जहन में मक्खन की उतरती जाती है . पुस्तक की प्रमुख खासियत यह है कि अधिकांश कहानियों के मुख्य किरदार में एक सशक्त नायिका है. दूसरी मुख्य बात कि चंद पंक्तियों ही में इतने सारे मोड़ , इतनी सारी बातें होती हैं कि पाठक कई मोर्चों पर लामबंद होता जाता है . इन कहानियों के माध्यम से आज के समाज का सबसे कड़वा पक्ष जो सामने आया है वह आज के युवा का पूरी तरह बिगड़ा होना भी कितना सामान्य है . नायकों में वे सारी ‘खूबियाँ’ हैं . बाइक , स्पीड , शराब, सिगरेट , अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध फिर भी सामाजिक स्वीकारिता ! और हाँ , ये ‘खूबियाँ’ लड़के लड़कियों के भेदभाव से परे समान रूप से हैं . जिस प्रकार से असंख्य मुद्दों को लेखक इस पुस्तक में समेटा है, इसे एक बेहद जटिल पुस्तक हो जानी चाहिए थी , परन्तु सरल भाषा और बोधगम्यता के कारण पाठक को वो सारे समीकरण न सिर्फ आसानी से समझ आते हैं बल्कि अत्यंत रुचिकर भी बन पड़े हैं . सुना है कि असली भारत देखना हो तो गांवों में जाओ , यह पुस्तक “मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियाँ” पढ़ कर लगा कि मात्र गांवों में जाने से नहीं होगा , अच्छी किताबें अधिक मददगार होती हैं !
धन्यवाद् लेखक मुझे यह मौका देने के लिए .
कविता ‘मुखर’
जयपुर



Tuesday, May 29, 2018

हिन्दी का पोस्टर बॉय-


निखिल सचान! नाम तो जानते ही होंगे आप! नहीं जानते? कोई बात नहीं, ये CB से आगे के हैं। CB नहीं पहचाना? अरे! भगत चेतन! तो क्या हुआ जो ये भी आई आई टी, आई आई एम हैं! यूँ ही नहीं इनकी पहली किताब, “नमक स्वादानुसार” और दूसरी किताब “ज़िन्दगी आइस पाइस” क्रमशः 2013 व 2015 की हिन्दी की बेहतरीन पुस्तकों में से एक रही, BBC और आज-तक मीडिया व critics अनुसार. 
तो हुआ यूँ कि प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन की ओर से प्रायोजित 'कलम दैनिक भास्कर संवाद' में इस इकत्तीस वर्षीय हिन्दी साहित्य के आउट साइडर को सुनने मिलने का मौका मिला।
इनकी ये पहली दो किताबें कहानी संग्रह हैं। ये पहले जो किताब लाना चाहते थे वो “यूपी65” अब आई। वो इसलिए कि इन्हें डर था कि कहीं इनकी पहली किताब पढ़ कर इनके ऊपर CB का ठप्पा लगा कर एक तरफ़ कर दिया जाए। सो वे दोनों किताबें सारे स्टीरियोटाइप को तोड़ने का काम किया है और ये आउट साइडर हिन्दी साहित्य के नए रंगरूटों में सबसे चहेते यानी कि पोस्टर बॉय बन गए! 

अब यह पहला उपन्यास “यूपी65”। नहीं नहीं, इसमें “अब तक छप्पन” जैसा कुछ भी नहीं। यह तो बिल्कुल मेरे शहर RJ14 जैसा है अर्थात शहर का RTO नंबर। जी हाँ, यह “UP65” बनारस का RTO कोड है । यूँ तो बनारस पर कई किताबें लिखी गईं, पिक्चर भी बनी तो इन पर दबाव तो था पर फ़िर अपना फॉर्मूला भी तो आजमाना ही था। बकौल लेखक, लिखना अर्थात् कछुए की तरह बस अपने तक सीमित हो जाता हूँ, रात 11:30 से 2-3 बजे तक लिखना, फ़ैमिली टाइम भी स्वाहा तो फ़िर अपने लिए ही लिखना होता है, पाठक के लिए नहीं। कॉपी पेन का जमाना गया, सीधे टाइपिंग।
“यूपी65” बी एच यू में पढ़ने वाले चार दोस्‍तों की कहानी है। कहानी लिखते हुए इसके पात्र अपने सही नाम से थे, कहानी पूरी होने पर काल्‍पनिक नाम रखे गए।
कार्यक्रम के मॉडरेटर ख्यातनाम साहित्यकार/आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी ने लेखक और उपन्यास से परिचय कराते हुए कहा कि “यू पी 65” में असहिष्णुता की समस्या को बड़े संयम से उठाया गया है। फेमिनिज्‍म का वर्तमान चेहरा उभरता है। और जिस प्रकार “चंद्रकांता संतती” पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी और फ़िर गंभीर सहित्य की ओर मुड़ गए वैसे ही आज जब नई पीढ़ी ने हिन्दी साहित्य से किनारा कर लिया इस उपन्यास का प्रयास है उनके हाथों में हिंदी की किताब आए।
इस उपन्यास से एक पाठक क्या सीखेगा? किसी दर्शन का अभाव है इसमें!
निखिल : करोड़ों अरबों की जनसंख्या है और भावनाएँ वही पाँच सात। कोई रोटी के पीछे, प्रेम, धन, सत्ता, अध्यात्म के पीछे ही तो भागता है। इन भावनाओं से भाग कर नए सिद्धांतों की बात क्यों ढूँढते हैं? हमें बहुत ज्यादा बौध्दिक होने से बचना चाहिए। किताब जहाँ से आई है (बीएचयू कैंपस) के प्रति सच्चा हूँ।
आज की नई पीढ़ी किसी सहित्य अकादमी के विजेताओं के नाम जानती नहीं /याद नहीं।
यह किताब इस ख्वाहिश में है कि ये आपको बे-इंतहा हँसाए, बनारस ले जाए और आपके ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पलों से मिलवाए।
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हम पर तो ये बरस भोले बाबा का विशेष आशीर्वाद है!
- मुखर


Friday, May 18, 2018

"दवाई वाली मैडम" - एक परिचय

महाकवि सुमित्रा नंदन पन्त ने कहा है , “ सुमन सुंदर , सुंदर है विहग, मानव तुम सबसे सुंदर !” आज का यह दिन है कि मैं सुंदर मानव में से सुंदरतम का परिचय पत्र पढने जा रही हूँ .   
पिछले पच्चीस वर्षों से जे के लोन अस्पताल व एस एम् एस के रेडियो थेरेपी विभाग में सोम से शुक्रवार तक प्रतिदिन दो घंटे निशुल्क परामर्श देने व जरूरतमंद मरीजों को निशुल्क दवा व्यवस्था करने के लिए “दवाई वाली मैडम” नाम से विख्यात सुश्री कमला पानगड़िया जी ने  अध्यापन व समाज सेवा को पुर्णतः समर्पित हो अंजाम देने खातिर विवाह ही नहीं किया .
पांच हज़ार छात्राओं का निशुल्क नेत्र जाँच करवा चश्मा दिलाया. जन चेतना कार्यक्रम, जाँच शिविर , परिवार नियोजन व् साक्षरता अभियान में योगदान .
- कक्षा कक्ष, सीवर लाइन, फर्नीचर , बिजली फिटिंग , २५० बालिकाओं को स्वेटर , फ़ीस व्यवस्था आदि के करीब बीस लाख के काज स्वयं द्वारा तथा जनसहयोग से पूर्ण कराया.
महावीर इंटरनेशनल पिंकसिटी की उपसचिव एवं प्रभारी औषध बैंक , कमला जी रेड क्रॉस सोसाइटी , जैन महिला गृह उद्योग , जैन वैश्य संगठन , जयपुर कैंसर सोसायटी , राजस्थान कैंसर सोसायटी  व् कई संस्थाओं की स्थाई सदस्य भी हैं.
1994 में राष्ट्रपति पुरस्कार तथा उसके पिछले वर्ष राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित कमला जी को विशन सिंह शेखावत पुरस्कार, रेड क्रॉस सोसायटी द्वारा स्वर्ण पदक , एड्स रोग संसथान , अल्प बचत विभाग , कुष्ठ रोग संसथान , लायंस क्लब , श्वेताम्बर महिला संगठन आदि आदि द्वारा कई कई बार सम्मानित हुईं .
95 ऍफ़ एम् तड़का “वीमेन रिकग्निशन अवार्ड 2015 में सुश्री कमला पानगड़िया जी “हार्ट ऑफ़ गोल्ड” से नवाजी जा चुकी हैं .
सर्वश्रेष्ठ परीक्षा परिणाम देने वाले विद्यालय की भूतपूर्व प्राचार्य, आदर्श अध्यापिका ,जरूरतमंद व् मरीजों के लिए दया ममता की प्रतिमूर्ति तथा हम सबके लिए प्रेरणास्रोत आदरणीय कमला पानगड़िया जी का मैं करबद्ध अभिनन्दन करती हूँ . आज , राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान आपको कर्मश्री सम्मान से सम्मानित कर स्वयं गौरवान्वित महसूस कर रहा है .
सौ बात की एक बात कि
“ अगर चराग भी आँधियों से डर गए होते ,
सोचिये कि उजाले किधर गए होते !”
राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान की शुक्रगुजार हूँ मुझे सुश्री कमला जी का परिचय पत्र पढने का सुनहरा मौका देने के लिए . 
शुभ दिन !




Monday, April 23, 2018

Meeting eminent author Kashinath Singh ji

एक अप्रैल को सियालदाह पकड़ी थी तो चार की रात मरूधर से वापस पहुँच गई अपने शहर, मग़र इन साढ़े तीन दिनों में जो यात्रा अनुभव हुए वो अपने आप में अनूठा है। भारत बंद की वजह से यह अनुभव कई गुना eventful हो गया। 
एशिया का सबसे बड़ा गाँव, एशिया का सबसे बड़ा, 9किमी, रेलवे यार्ड, एशिया का सबसे बड़ा रिहायशी विश्वविद्यालय, एशिया का सबसे बड़ा विश्विद्यालयी संग्रहालय... सब घूमी!
गंगा स्नान, अस्सी के घाट की महा आरती देखना, फौजियों के गाँव के कामख्या मंदिर में देवी को चढ़े नवरात्रि की चुन्नी का मुझे ओढाया जाना... अलौकिक अनुभव!
मग़र आज जो मैं ख़ुशी आपसे बाँटने जा रही हूँ वह मेरे लिए इन सबसे बढ़ कर है!
काशी में उतर कर अस्सी के घाट पहुँचने तक मुझे "काशी का अस्सी" के लेखक जो याद आए तो उनसे मिलने की उत्कंठा लिए पहुँच गई बी एच यू के मुख्य दरवाजे पर (शायद सिंह द्वार)!
चौकी के पुलिस ने कहा गार्ड से पूछो... गेट के पुलिस ने कहा वो नहीं गार्ड अंदर है... गार्ड ने कंट्रोल रूम के नंबर दिए... कंट्रोल रूम ने पी. आर. ओ. के, पी आर ओ ने हिंदी डिपार्टमेंट के... फ़िर फ़िर से सारे कॉल... आख़िरकार माननीय लेखक के फोन नंबर तथा पता मिल ही गया !
उन्हें फोन किया तो उन्हें मेरे द्वारा पूछताछ की ख़बर लग गई थी, दे दिया समय तीन बजे आने का! 😀
हाँ, मैं "उपसंहार" और "काशी का अस्सी" पढ़ी हूँ! उन अंतराष्ट्रीय ख्यातनाम लेखक सपत्नी के चरण रज ले पाना मेरा सौभाग्य है।
मैं तो क्या बोलती, उन्होंने ही बहुत कुछ पूछा, बताया, समझाया और मरगदर्शन किया।
"कहानी कथाओं में मुझे बेहद रुचि है, मैं तुम्हारी किताब पढूंगा!" कह कर उन्होंने मेरी पुस्तक "तिनके उम्मीदों के" को उलट पुलट कर पूरा देखा और मुझे उसमें कुछ लिखने को dictate किया.
"फोन नंबर जरा बड़े बड़े लिखना!"
उन्होंने "रेहन पर रघ्घू" भी पढ़ने को कहा।
"क्या क्या देखा बनारस में? बी एच यू नहीं घूमी? यहाँ से सीधे वहीं जाना... एक ऑटो करो और पूरे परिसर में चक्कर लगाना। भीतर ही विश्वनाथ मन्दिर भी देखना... और भारत कला भवन भी।"
आधे घंटे की वह मुलाकात तथा प्रेमपगी आवभगत अविस्मरणीय है!
" हे विश्वनाथ ! मुझे फ़िर बुलाना काशी!"
- मुखर

Tuesday, March 27, 2018

सुनहरी दोपहरी

हालाँकि जम्मू और हिमाचल में बर्फबारी हुई है और सुबह की ठंडक बाकी है परन्तु मरुस्थल में आते सूरज की किरणें जेठ सी चमकीली हो गई है! अभी दिन के बारह भी नहीं बजे हैं और फिजां में दोपहर की गंभीरता पसर गई है।
पॉश इलाके की इस कॉलोनी में ऊँचे बड़े बंगले खड़े खड़े ऊँघ रहे हैं और साफ़ सुथरी सड़कें अलसा रही हैं। अनगिनत लोगों की यह बस्ती है मग़र दिखता कोई नहीं। निर्जन सी दोपहर की नीरवता और मंद मंद पवन मुझे बालकनी की तन्हाई में खींच लाते हैं। छोटे बड़े सभी वृक्ष ज्यों थोड़ी थोड़ी देर में उनींदी करवट लेते हिलते हैं... सड़क की दोनों ओर पंक्ति बद्ध अशोक पर नए जवान पानीदार पत्ते बूढ़े पत्तों को हाशिये पर धकेल नव वर्ष के आगमन पर नई छटा अब तक बिखेर रहे हैं। ये सीटी ! किसने मारी? अहा! बिजली के ऊँचे तार पर अंगूठे भर की एक नीली चमकीली नन्ही चिड़िया! इसकी चोंच भी सुई सी पूंछ भी! दो पीली तितलियाँ पल भर में कहीं से आ कहीं को छू! मेरी नजर नचा गईं, मुस्कान दे गईं... बता गईं कि बसंत अभी बस गया ही है...
नजदीक ही कहीं से हैमर ड्रिल की तीखी आवाज और ठक ठक... ह्म्म! शहर के बसावट की जड़ें इतिहास में कहीं दबी पड़ी है और निर्माण अभी जारी है। फिर भी... इस मौसम में कमठे की आवाज भली लगती है, जाने क्यों!  ओह्ह फ़ोन!
"जी भैया!"
"रात की बस है, दस बजे! टिकिट ले लूँ?"
"जी भैया! जी।"
मरुस्थल में आठ नहीं दो ही ऋतुएँ होती हैं भयंकर गर्मी और गर्मी! बाकी सब दो दो दिनों की मेहमान की तरह आती हैं... उन तितलियों की तरह... उनकी झलक पाने को ऎसे ही कुछ पल चुराने होते हैं... अकेले...
- मुखर 24/3/18