Tuesday, May 29, 2018

हिन्दी का पोस्टर बॉय-


निखिल सचान! नाम तो जानते ही होंगे आप! नहीं जानते? कोई बात नहीं, ये CB से आगे के हैं। CB नहीं पहचाना? अरे! भगत चेतन! तो क्या हुआ जो ये भी आई आई टी, आई आई एम हैं! यूँ ही नहीं इनकी पहली किताब, “नमक स्वादानुसार” और दूसरी किताब “ज़िन्दगी आइस पाइस” क्रमशः 2013 व 2015 की हिन्दी की बेहतरीन पुस्तकों में से एक रही, BBC और आज-तक मीडिया व critics अनुसार. 
तो हुआ यूँ कि प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन की ओर से प्रायोजित 'कलम दैनिक भास्कर संवाद' में इस इकत्तीस वर्षीय हिन्दी साहित्य के आउट साइडर को सुनने मिलने का मौका मिला।
इनकी ये पहली दो किताबें कहानी संग्रह हैं। ये पहले जो किताब लाना चाहते थे वो “यूपी65” अब आई। वो इसलिए कि इन्हें डर था कि कहीं इनकी पहली किताब पढ़ कर इनके ऊपर CB का ठप्पा लगा कर एक तरफ़ कर दिया जाए। सो वे दोनों किताबें सारे स्टीरियोटाइप को तोड़ने का काम किया है और ये आउट साइडर हिन्दी साहित्य के नए रंगरूटों में सबसे चहेते यानी कि पोस्टर बॉय बन गए! 

अब यह पहला उपन्यास “यूपी65”। नहीं नहीं, इसमें “अब तक छप्पन” जैसा कुछ भी नहीं। यह तो बिल्कुल मेरे शहर RJ14 जैसा है अर्थात शहर का RTO नंबर। जी हाँ, यह “UP65” बनारस का RTO कोड है । यूँ तो बनारस पर कई किताबें लिखी गईं, पिक्चर भी बनी तो इन पर दबाव तो था पर फ़िर अपना फॉर्मूला भी तो आजमाना ही था। बकौल लेखक, लिखना अर्थात् कछुए की तरह बस अपने तक सीमित हो जाता हूँ, रात 11:30 से 2-3 बजे तक लिखना, फ़ैमिली टाइम भी स्वाहा तो फ़िर अपने लिए ही लिखना होता है, पाठक के लिए नहीं। कॉपी पेन का जमाना गया, सीधे टाइपिंग।
“यूपी65” बी एच यू में पढ़ने वाले चार दोस्‍तों की कहानी है। कहानी लिखते हुए इसके पात्र अपने सही नाम से थे, कहानी पूरी होने पर काल्‍पनिक नाम रखे गए।
कार्यक्रम के मॉडरेटर ख्यातनाम साहित्यकार/आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी ने लेखक और उपन्यास से परिचय कराते हुए कहा कि “यू पी 65” में असहिष्णुता की समस्या को बड़े संयम से उठाया गया है। फेमिनिज्‍म का वर्तमान चेहरा उभरता है। और जिस प्रकार “चंद्रकांता संतती” पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी और फ़िर गंभीर सहित्य की ओर मुड़ गए वैसे ही आज जब नई पीढ़ी ने हिन्दी साहित्य से किनारा कर लिया इस उपन्यास का प्रयास है उनके हाथों में हिंदी की किताब आए।
इस उपन्यास से एक पाठक क्या सीखेगा? किसी दर्शन का अभाव है इसमें!
निखिल : करोड़ों अरबों की जनसंख्या है और भावनाएँ वही पाँच सात। कोई रोटी के पीछे, प्रेम, धन, सत्ता, अध्यात्म के पीछे ही तो भागता है। इन भावनाओं से भाग कर नए सिद्धांतों की बात क्यों ढूँढते हैं? हमें बहुत ज्यादा बौध्दिक होने से बचना चाहिए। किताब जहाँ से आई है (बीएचयू कैंपस) के प्रति सच्चा हूँ।
आज की नई पीढ़ी किसी सहित्य अकादमी के विजेताओं के नाम जानती नहीं /याद नहीं।
यह किताब इस ख्वाहिश में है कि ये आपको बे-इंतहा हँसाए, बनारस ले जाए और आपके ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पलों से मिलवाए।
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हम पर तो ये बरस भोले बाबा का विशेष आशीर्वाद है!
- मुखर


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