Monday, July 2, 2018

"सुंदरता, गुण और आत्म विश्वास" - संस्मरण


उस सच्ची कहानी का अंत क्या हुआ पता नहीं। जब मैं दूसरी तीसरी कक्षा में थी तब वह और मैं साथ साथ स्कूल आते जाते थे। 
बात सत्तर के दशक की है। रांची के एच ई सी कॉलोनी से हम दस दुकान चौराहा तक पैदल जाते थे स्कूल बस पकड़ने. मैं अपने घर से अकेली या भाई के साथ जाती. रस्ते में उसका घर पड़ता. उस कॉलोनी में सारे क्वार्टर ही थे. काफी समय तक तो मैं समझती थी कि दुनिया में क्वार्टर ही होते हैं. अलग अलग रँग रूप आकार के घर तो दादी के गाँव में होते हैं। या फिर 1984 में जोधपुर आने पर ही देखे।
हाँ, तो उसकी मेरी दोस्ती के क्या कारण थे वो जीवन में बहुत बाद में समझ आया. मैं गोरी हूँ यह तो मुझे तब भी पता था. और वह बहुत काली. मग़र मुझे वह अधिक सुन्दर लगती। तब सुंदरता के मायने शायद मेरे अपने एहसास थे. तो वे क्या थे? वह मुझे सुंदर क्यों लगती थी?
धुर्वा के के.वी. तक कोई बीस तीस मिनट का बस का सफ़र आना और जाना.
मैं पढ़ाई में इतनी ढ़पोर कि कक्षा में फ़र्स्ट आती थी… नीचे से! सो या तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे, हर टेस्ट में ज़ीरो वन मार्क्स की घोषणा पर… Yaया फिर मेरा ही आत्म विश्वास इतना कम था कि मुझे लगता मेरे कोई दोस्त नहीं हैं। लगता क्या था, दोस्त थे भी नहीं। मैं बताती हूँ मेरा ऎसा लगने के पीछे ठोस कारण हैं। games के पीरियड की बेल बजते ही सब classmates भाग कर ग्राउंड पर पहुँच जाते और मुझे कक्षा से सबके टिफ़िन बॉक्स लाने पड़ते। recess ओवर होने की बेल बजती और सब नंगे पाँव ही क्लास में दौड़ जाते, मुझे उनके जूते उठा कर लाने पड़ते। शायद ऎसा हमेशा नहीं हुआ होगा परन्तु दुखद यादें ऎसी चिपकती हैं कि वही रह जाती हैं बस।
तो बस में सभी अपने अपने मित्र के साथ बैठते। मेरे लिए जो सीट बचती वहाँ वह मिलती। शायद यही कारण था 
हम दोनों के साथ होने का. चूँकि मैं ढ़पोर थी सो कभी जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसी थी पढ़ाई में। वह मुझसे दूर नहीं भागती थी, मेरा मजाक नहीं उड़ाती थी और सबसे अहम बात कि वह भी अकेली ही थी, अतः मेरी दोस्त थी। 
प्रिंसिपल सर पापा के अच्छे मित्र थे तो उनकी बिटिया देबयानी सेन भी मेरी अच्छी दोस्ती थी, मग़र उसके साथ रहते हुए भी गहरे में कहीं inferiority complex था या यह अहसास कि मैं कमतर हूँ । उस धरातल पर वह लड़की ही मेरे समकक्ष लगती। ख़ैर… 
पापा के तबादले के कारण मेरा स्कूल बदला और फ़िर दोस्त भी बने। क्रोशिया, खेल, योगा में स्कूल स्तर पर टॉप करने के कारण आत्म विश्वास भी बढ़ा, कालांतर में पढ़ाई भी की। मग़र जहन में हमेशा वह लड़की बनी रही… अब मैं समझ रही थी कि पढ़ाई में भले ही वह कैसी भी रही हो, उसका काला रँग ही उसके अकेले होने का कारण था। 
नौकरी के दौरान मैं एक बेहद बदसूरत (मानकों के अनुसार) लड़की को किसी भी अत्यंत सुंदर लड़की से अधिक प्रतिभावान, लोकप्रिय व आत्म विश्वास से लबरेज पाया तो फ़िर वह लड़की याद आई और एक बोझ सीने से उतरा। बाद में एक और सहकर्मी जो काली तो बहुत थी मग़र नैन नक्श एकदम दुर्गा माँ के आइकॉन जैसा साथ ही में बेहद प्रतिभावान के साथ तीन वर्ष काम किया। इस बीच उस बचपन की मित्र का नाम मैं भूल गई। लगता है मेरे मन से उसके अकेलेपन का भाव/दर्द ख़त्म हो गया था। 
आज FB के एक पोस्ट से फ़िर उसकी याद आई… एक मुस्कान के साथ! 
- मुखर

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