वह नई नई लेखिका लघुकथाएं लिखती है . कथाओं के केंद्र में होते हैं
बड़े मासूम से सवालात . क्या करे , जिंदगी में अनुभव का घेरा जितना था वही तो
झलकेगा लेखन में . हाँ , सोचती बहुत है. गहराई से एकदम . सपने एकदम नादान से उसके.
जैसे हँसते हुए फूलों की क्यारियां , चहचहाती सुबह और गुलाल से नहाई शाम हो, सबकी
आँखों में तारों भरा आसमान देखना चाहती है . तो नतीजा यह हुआ कि उसकी कथाओं में जो
ग्रे शेड के पात्र होते हैं न वो भी उतने ही क्यूट ! मतलब हर कहानी का अंत सुखद और
पाठक का मन हल्का हल्का !
लिखने पढ़ने का अंजाम यह हुआ कि अब हर जगह आँखें खोले सब देखती रहती है
. अख़बारों में भी खोद खोद कर हालात तौलते रहती है . अब अख़बार तो अख़बार ही होता है
, सो कई बार मन उद्देलित हो जाता . बलात्कार की ख़बरों से तो उसका मन चित्कार कर
उठता है . समाज के इस रूप की तो कल्पना भी नहीं थी . पर वह जानती है हर समस्या का
हल होता है . उसने इसका भी एक समाधान ढूँढा . कहना तो कहानी ही के रूप में था न ?
सो उसने कथावस्तु सोचा, पात्र गढ़े और लिखने लगी संवाद . अब बात यह थी कि इतने काले
पात्र के संवाद भी तो अपशब्दों से भरे होने चाहिए ? और लेखिका इस क्षेत्र में एकदम
जीरो ! ऐसा नहीं कि वह कभी सुनी पढ़ी नहीं थी गालियाँ , मगर कभी मन में भी नहीं
दोहराया था उन वाहियात शब्दों को . हद से हद वह साला , गधा या स्टुपिड ही कहती .
अब क्या करें ? उसने इसका भी समाधान निकाला .
“सुनो ! मैंने आज जो कहानी लिखी है न वह तुम्हें एक शर्त ही पर दिखा
पाऊँगी !”
“वो क्या ?”
“मैंने संवादों के बीच बीच कुछ ‘खाली स्थान’ छोड़ दिए हैं , वह तुम भर
दो , मुझसे नहीं हो रहा !”
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