"बुध की राह "
एक व्यक्तित्व के नींव में शैशव काल की महत्ती भूमिका आज की तारीख में सर्वविदित है. फिर जिस किशोर ने कभी आंसू नहीं देखा, जीवन में कभी कराह नहीं सुनी. जिसने कभी दुःख किस चिड़िया का नाम होता है नहीं जाना. आभाव की जिंदगी जिसकी कल्पना की सीमा से कोसों दूर हो. जिसे अपने परिवार में तो क्या दूर के जानकारों, रिश्तेदारों ही में कभी किसी की मृत्यु को देखने, अनुभव करने का मौका नहीं मिला हो. आखिर सुख वैभव से पगा हुआ वह युवक ही तो किशोर अवस्था में जब पहली बार किसी रुग्ण को देखे, कोई मृत्यु शैय्या और अंत्येष्टि के शोकाकुल वातावरण से दो चार हो, ,तभी तो बुध होने की राह पकड़ेगा !
आज कल तो होश सँभालने से पहले की परीकथाओं में दुष्ट राक्षश कच्चा चबा जाता है. कोई जोम्बी के कार्टून नेटवर्क फेवरेट हो जाते हैं. बन्दूक खिलौना हाथ में लिए दोस्तों, माँ -पिता पर ठायं ठायं करता हुआ खेलता नन्हा कितना प्यारा शेतान लगता है न ! नौ दस वर्ष की बालक बुध्धि टी वि, इंटरनेट व पिक्चरों में सब रोना धोना, दुःख आंसू, लूट मार, क़त्ल और हर बुरी चीज को देखते हुए इस तरह परिपक्व होते हैं कि कहीं इनके रगों ने यह सब जीवन का हिस्सा ही तो नहीं मान लिया ? तभी तो आज की इस नयी पीढ़ी में चलता है वाला रवैया है.
प्रश्न ये है कि क्या यही एवोलुश्न (विकासज ) है ? या हम राह भटक गए हैं ? तर्क है कि वो सही नहीं, तो क्या ये ही सही है ? माना यथार्थ का सहज सामना व ज्ञान होना आवश्यक है, मगर किस हद तक ? महज रूबरू होने में और उस यथार्थ से खेलने, आनंद उठाने में फर्क है साहब .
हमारा मकसद होना चाहिए इस पीढ़ी का तीर से घायल हुए पक्षी को देख कर संवेदनाओं से भीग जाना और उसे प्राणदान देने कि ओर प्रयासरत होना न कि उड़ान भरते पक्षी को मार गिराने को उन्मत होना !
हमारी संतान, हमारा परिवार, हमारा समाज पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष पहले आये एकल कोशिका से इंसान तक पहुंचे ब्रह्म तत्व - 'गाड पार्टिकल ' या दुसरे शब्दों में 'लाइफ फ़ोर्स' है . एकदम ही अमूल्य. इसे प्रतिपल की सोने से चोट ही तो गढ़ेगी न. आईये हाथ बढाइये. अपने परिवार, अपने आस पास से ही शुरू हो जाईये. हर नकारात्मकता के अस्तित्व को हटा/मिटा दीजिये.
पता नहीं बुध की राह हम पकड़ पाएंगे या नहीं, हाँ मगर वक़्त की धारा में खुद को खो देने के बजाय हम खुद अपनी राह जरूर बना सकते हैं.
-मुखर
एक व्यक्तित्व के नींव में शैशव काल की महत्ती भूमिका आज की तारीख में सर्वविदित है. फिर जिस किशोर ने कभी आंसू नहीं देखा, जीवन में कभी कराह नहीं सुनी. जिसने कभी दुःख किस चिड़िया का नाम होता है नहीं जाना. आभाव की जिंदगी जिसकी कल्पना की सीमा से कोसों दूर हो. जिसे अपने परिवार में तो क्या दूर के जानकारों, रिश्तेदारों ही में कभी किसी की मृत्यु को देखने, अनुभव करने का मौका नहीं मिला हो. आखिर सुख वैभव से पगा हुआ वह युवक ही तो किशोर अवस्था में जब पहली बार किसी रुग्ण को देखे, कोई मृत्यु शैय्या और अंत्येष्टि के शोकाकुल वातावरण से दो चार हो, ,तभी तो बुध होने की राह पकड़ेगा !
आज कल तो होश सँभालने से पहले की परीकथाओं में दुष्ट राक्षश कच्चा चबा जाता है. कोई जोम्बी के कार्टून नेटवर्क फेवरेट हो जाते हैं. बन्दूक खिलौना हाथ में लिए दोस्तों, माँ -पिता पर ठायं ठायं करता हुआ खेलता नन्हा कितना प्यारा शेतान लगता है न ! नौ दस वर्ष की बालक बुध्धि टी वि, इंटरनेट व पिक्चरों में सब रोना धोना, दुःख आंसू, लूट मार, क़त्ल और हर बुरी चीज को देखते हुए इस तरह परिपक्व होते हैं कि कहीं इनके रगों ने यह सब जीवन का हिस्सा ही तो नहीं मान लिया ? तभी तो आज की इस नयी पीढ़ी में चलता है वाला रवैया है.
प्रश्न ये है कि क्या यही एवोलुश्न (विकासज ) है ? या हम राह भटक गए हैं ? तर्क है कि वो सही नहीं, तो क्या ये ही सही है ? माना यथार्थ का सहज सामना व ज्ञान होना आवश्यक है, मगर किस हद तक ? महज रूबरू होने में और उस यथार्थ से खेलने, आनंद उठाने में फर्क है साहब .
हमारा मकसद होना चाहिए इस पीढ़ी का तीर से घायल हुए पक्षी को देख कर संवेदनाओं से भीग जाना और उसे प्राणदान देने कि ओर प्रयासरत होना न कि उड़ान भरते पक्षी को मार गिराने को उन्मत होना !
हमारी संतान, हमारा परिवार, हमारा समाज पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष पहले आये एकल कोशिका से इंसान तक पहुंचे ब्रह्म तत्व - 'गाड पार्टिकल ' या दुसरे शब्दों में 'लाइफ फ़ोर्स' है . एकदम ही अमूल्य. इसे प्रतिपल की सोने से चोट ही तो गढ़ेगी न. आईये हाथ बढाइये. अपने परिवार, अपने आस पास से ही शुरू हो जाईये. हर नकारात्मकता के अस्तित्व को हटा/मिटा दीजिये.
पता नहीं बुध की राह हम पकड़ पाएंगे या नहीं, हाँ मगर वक़्त की धारा में खुद को खो देने के बजाय हम खुद अपनी राह जरूर बना सकते हैं.
-मुखर
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