सत्तर के दशक में हर
महीने एक गीत जरूर सुनते थे -
" खुश है जमाना आज पहली
तारीख है , दिन है सुहाना आज पहली तारीख़ है जी पहली तारीख
है . ..
2 BHK का खुला खुला सरकारी मकान । एक तख़्त , निवार की दो खटिया , दो कुर्सियां व एक 2' x 1' की मेज - वही जो आजकल सरकारी विद्यालयों में मिलते हैं । तीन संदूक और एक बेडिंग भी ।
हाँ रसोई के तमाम सामान तीन चार कनस्तर और 1 बोरे में समा जाते । एक हीरो साइकिल तथा ट्रांज़िस्टर भी थे हमारे पास।
और परिवार का आकार ? अभी से तो दो ज्यादा ही थे हम । कितना सुकून था ना ! इसलिए कि मैं
बच्ची थी ?
लेकिन पापा मम्मी को भी तो हमेशा हंसी मजाक करते
, मुस्कुराते , थोड़े में संतुष्ट करते , मिलजुल कर मेहनत करते
देखा ! या वो हम बच्चों से छिपाते थे जिदगी की उठा पटक ? या मेरी मासूम नजरें देख नहीं पाती थी ?
याद है मुझे महीने की 20
-22 तारीख़ आते आते मम्मी अक्सर कैलेंडर में दिन
गिना करती थी। पापा अक्सर दिवार की खूंटी
पर टंगी पैंट की जेब टटोलते , कुल बचे रुपये
गिनते। आखिरी तीन -चार दिन तो कभी दूध -
दही में पानी तो
कभी घी तेल में कमी। तीस - इकत्तीस तारीखें सबसे प्यारी होती थीं । सपनों भरी जो होती थी ! पता है कैसे सपने ?
मम्मी, कल हलवा बनाना ना !... नहीं मम्मी खीर खाये कित्ते तो दिन हो गए !... मम्मी
, मुझे तो घी वाली पांच कोन
की आकिरी आकिरी रोटी खानी है ...
उस महीने पड़ने वाले मेले पर या फिर सात आठ तारीख
तक हम झोपड़ी मार्केट (राँची के HEC कॉलोनी का तब का मुख्य
बाजार ) जाते और पानी पूरी खाते , बूढी का बाल खाते ,
तार पर गोल गोल घूम कर ऊपर चढ़ता उतरता बंदर
वाला खिलौना मिट्टी का पहिये वाला घोड़ा-गाड़ी या मुंडी हिलाते सेठ सेठानी लेते ...
महीने में चार पांच बार पापा मूंगफली , भुंगड़े लाते। महीने में तीन चार बार
मम्मी पकौड़े , कचौड़ी , समोसे बनाती । और फिर वही महीने के आखिरी दिन रूखे सूखे ... मुझे मिले 3-5 पैसे इन्हीं दिनों हम दोनों भाई बहन के काम आते - पांच
घुमटी की दुकानों से चूरन ,
टॉफियां (लोज़ेंजेस ) खरीदने में ।
एकदम संतोष आनंद जी के
गीत की तर्ज पर - कोई दिन लाडू , कोई दिन पेड़ा , कोई दिन फाकमफाका जी ! बहरहाल जिंदगी के उतार
-चढ़ाव को रोजाना के दर पर देखते, समझते , ग्रहित करते बड़े होते होते इसी ढर्रे को सामान्य
मान लिया था हमने ।
आज बिना किसी तीज त्यौहार
के , बिना किसी खास अवसर के ,
यों ही आते जाते किसी भी दुकान के आगे बिना किसी
योजना के ही रुक कर बिना किसी कारण के खरीदारी कर लेते हुए मुझे जरूर याद आ जाते
हैं वो बचपन के दिन और वो एक तारिख वाला गीत, जो सिर्फ रेडियो ही पर सुनते थे ।
अभी आपने सुना सुधीर फड़के का लिखा गीत, फिल्म का नाम है मस्त कलंदर और आवाज दी है किशोर कुमार ने। फरमाइश करने वाले वाले श्रोता हैं जोधपुर से अंजू , नानू , बॉबी , अनीता , सुनीता और नाज़िया, अहमदाबाद से मीना और उनका बेटा , दिल्ली से सुमन ,बिट्टू , चेन्नई से किट्टू ,
शिमला से ममता , उड़ीसा से गोपाल , दीपक और उनके भाई बहन...
अठत्तर दशमलव आठ नौ मीटर
पर अभी आप सुन रहे थे विविध भारती का कार्यक्रम 'गाने नए पुराने' !
अब आपकी सखी 'मुखर ' को इज़ाज़त दीजिये , नमस्कार !
टान टीन टुडुंग !!!
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