Thursday, May 28, 2015

" कैसी ये पहेली "



 

ठिठके से मेरे कदम
ये अजनबी गालियां
वो अनजान मंजीलें
बिखेरती सतरंगीं रश्मियाँ
चल देती हूं उलटे कदम
भाग जाना चाहती हूं
कहीं दूर , बहुत दूर 
परम्पराओं के
सदियों पुराने पक्के से रस्ते
संस्कारों के
कितने सरल, कितने सस्ते।
कुछ सोचना नहीं पड़ता ना,
कुछ नया करना नही पड़ता ना,
किसी से अच्छे -बुरे के लिए
लड़ना नहीं पड़ता ना !
मोड़ लेना चाहती हूँ मन
कुण्द होती , दम तोड़ती
हर पल मरती
अपनी आत्मा से !
कि पाती हूं
वे गलियाँ , वे मंजीलें , वे रश्मियाँ
सदियों से , पीढ़ीयों तक
हर किसी के आस पास ही,
हमेशा से आज तक, अभी तक
दिल और बुद्धि को
विपरीत दिशाओं में खींचती है !
ये कैसी भ्रांतियों के वादियों में
'मानव' ,'सभ्यता'  ,
आखिर पलती है,  'विकास ' करती  है ?
समाज, धर्म और शिक्षा साथ
खड़े रहने को मेरी जिजीविषा
जोर मारती है.
मैं एक बड़ी सी चट्टान
उस गली के मुहाने पर
धकेल देती हूँ ,
उस दुनिया के दरवाज़े
बंद कर देती हूँ !
ईंट गारों की 'अपनी '
मशीनी दुनिया को देख,
यह निश्चिंत करना चाहती हूँ
कि मैं भी इसी की हिस्सा हूँ
एक पत्थर दिल, मृत आत्मा
मगर बुद्धिजीवी किस्सा हूँ !

पस्त सी मैं
उसी चट्टान के सहारे
बैठ, आँख मूँद लेती हूँ !

तभी वे रश्मियाँ
मुझे खींच लेती हैं
उस अनजान, अजनबी दुनिया में,
घने जंगलों, ऊंचे पहाड़ों में,
कल कल नदी, कमल भरे तालाबों में
रंगीन तीतलियाँ, चहकती चिड़ियाँ,
महकते फूलों की घाटियों में।
ड्रिल मशीन, मोटर , मिक्सी की कर्कश,
न ओवन, टी वी,ए सी, मोबाइल की घन घन,
और न ही ट्रैफिक, कंस्ट्रक्शन का शोर। 
यहाँ शायद कहीं मुरली बजती थी,
या किसी मीरा की वीणा।
जैसे अमृत के छींटे  पड़े और
मृत आत्मा उठ बैठी !

आदम भीड़ और पत्थर के शहर में,
आज सामंजस्य से जीती हूँ ,
कि मेरी दुनिया अब मेरे अंदर है ,
न अनजान , ना ही अजनबी ,
हाँ, प्रेम का समंदर है.
चोरी चोरी, चुपके चुपके,
वहां के कोमल स्नेह भाव,
इस दुनिया के गमलों में बोती हूँ।
धीर गंभीर , परिपक्व कभी,
कभी बच्चों सी हंसती हूँ, रोती हूँ !
                                                              ---- मुखर


2 comments:

Raaj said...

Nice Kavita ji

Raaj said...

बहुत बढ़िया लिखते हैं आप