Wednesday, May 6, 2015

मैं मीरा...


प्रेम का दो तरफा होना क्या जरूरी है? प्रेम सोता अपने ही भीतर फूटता है और नदी की तरह बह निकलता है। सामने वाला मात्र बहाना होता है, प्रेम तो वस्तुतः स्वयं के अंदर ही होता है। जैसे वो दिए की ही लौ होती है जो आइने से परावर्तित हो कई गुना हो कर सम्पूर्ण कमरे को प्रकाशित कर देती है। हाँ दिया...लौ...और... वो आइना...
उनकी आवाज, उनकी छवि, उनकी बातें आज भी ज्यों की त्यों जहन में गुंजायमान है। वो खूबसूरत चेहरा, वो मिश्री सी मुस्कान, वो infectious (कृप्या हिंदी शब्द से अवगत कराएं) खिलखिलाती हंसी डूबते हुए क्षणों में से उबार लेती है हमेशा।
बस एक ही बार तो करीब ढाई साल पहले उनको देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मुझसे कोई चार फीट की दूरी ही पर कार से उतरे थे। भगवान् से और क्या मांगा जा सकता था। कुर्सी लेने तक की कवायद न कर सकी मैं। फिर तो करीब दो घंटे तक मैं उनको बस सुनती रही थी खड़े खड़े।
नहीं। उनके लिए मैं कोई नाम नहीं। मैं कोई चेहरा नहीं। मैं कुछ भी नहीं।
मगर मुझे अहसास हो गया कि खुशी क्या होती है। आनंद किसे कहते हैं। मोक्ष के लिए शायद पढ़ा है मैंने ग्यान मार्गी से कहीं आसान भक्ति मार्ग है।और सबसे सुगम प्रेम मार्ग।
वो महान शख्सियत विश्व में सबका चहेता है। सबका आदरणीय। आज बुद्ध पूर्णिमा पर मैं अपने श्रद्धेय दलाई लामा को प्रणाम करती हूँ।
...........................मुखर।
नोट: श्रद्धेय दलाई लामा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2013 में पधारे थे।

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