Friday, December 27, 2013

 " बारात जिंदगी की "

मैं मुस्कुराती हूँ-

कि मेरे आंगन से

गुजरती है बारात जिंदगी की !

मैं मौन हूँ -

कि उसी जिंदगी के

तहखाने के रौशनदान से

देखती हूँ मैं -

खुशियों को घूमर डालते !

आनन्द को झूमते !

कहकहों को झिलमिलाते !

सुनती हूँ सपनों कि शहनाईयां !

नहीं जानती कि -

ये बारात क्यों है !

जानती नहीं-

जिंदगी क्या है !

और ये भी नहीं,

ये तहखाना कैसा !

मैं परेशान हूँ कि -

कोई तो दरवाजा हो,

कहानी की शुरुआत तो हो !

देखना है मुझे -

किस तोरण पर

जाती है जिंदगी के बारात !!


                  मुखर .

Tuesday, December 17, 2013

 " नेचुरली !! "
अभी कोई पिछले महीने ही की बात है. हमने 'इनको' बताया की फेसबुक पर हमारी एक पुरानी  सहपाठिन ने बड़ा धमाल मचा रखा है, बड़ा फक्र है उस पर हमे. गर्व इस बात का भी है की हमारा उसका फर्स्ट नेम भी सेम है. मेरे चेहरे की लाली देख कर उन्होंने हमे घूरा. एक पल को तो हम घबरा गए, फिर क्लियर किया की वो सहपाठिन थी न की सहपाठी ! 
ये LGBT टर्म हमने जब पहली बार पढ़ा, जाना तो हम बड़े पशोपस में फंस गए. हमारा एक-आध अफेयर्स (इस 'आध ' के विषय में कोई टिपण्णी बर्दास्त नहीं की जाएगी ) के अलावा जितने भी लोग हमारे दिल के बेहद करीब आये वे सारे के सारे मेरे अपने जेंडर वाले निकले. इसीलिए हमने कभी 'ध्यान' ही नहीं दिया अपने किसी ऐसे वैसे 'रूझान' की तरफ ! वैसे भी हमारे संस्कारों ने किसी भी तरह के रुझान को दमित ही किया था. यहाँ तक की सांस भी कितनी कब लेनी है अबोले नियमों की तहत निर्धारित थे. अब इस उम्र में ये 'ओरिएंटेशन ' शब्द ने हमारे दिमाग का दही किये हुए है.
अब हमे अपने आप पर थोडा डाउट होता है. थोडा अफ़सोस भी. पूछ लो हमारे सभी स्कूल मेट्स से हम कितने सीधे- साधे कहलाते थे. अगर हम इतने ही 'स्ट्रेट' थे/हैं तो यह हमारी खुद ही चॉइस होनी चाहिए थी...ये क्या की बचपन से ही परियों की कहानियों, फ़िल्मी गीतों और समाज-परिवार की रीतियों से दिमाग में एक ही तस्वीर उकेरी - Mr. राईट ! थैंक गॉड , इन रीतियों, गीतों व कहांनियों ने कम से कम एक रुझान तो हमारी किस्मत में लिखा ! अब ये मिस्टर कितने राईट हैं कितने रोंग यह भी, हमारे संस्कारों के अनुसार, सोचना वर्जित है.
anyways !
किसी समय दास -प्रथा बाइबल के हिसाब से सही मानी जाती थी. क्यूंकि अश्वेत लोग प्राकृतिक रूप से ही बुध्हिहीन और शारीरिक रूप से बलवान माने गए थे जिन्हें नियंत्रण में रखने और आदेश देने के लिए 'प्राकृतिक' रूप से ज्यादा बुध्हिमान सफ़ेद चमड़ी वालों का उन पर राज करना नयोचित था. एक वक़्त ऐसा भी था जब औरतों का प्रसव पीड़ा सहना जरूरी था और उनकी मदद करने वाली दाईयों को मौत तक की सजा मिलने का प्रावधान था क्योंकि ऐसी मदद 'अप्राकृतिक' और भगवान् की मर्जी के खिलाफ थी. हिटलर ने यहूदियों के दमन को 'प्राकृतिक' ठहराने के लिए डार्विन के सिधान्तों के बेतुके मतलब निकल दिखाए थे. उसने दो नस्लों के मिलन को घातक बताया था. हमारे देश में ऐसे तर्क जातियों के संधर्भ में दिए जाते हैं. 'शुद्ध-अशुद्ध के ताम -झाम ने तमाम जातियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित कर रखा था.  ( यह पैराग्राफ शेवेता रानी खत्री जी के ब्लॉग से लिया गया है )
अब सोचने वाली बात ये है की हमारा रुझान माने कि ''ओरिएंटेशन ' प्राकृतिक है, या संस्कार जनित है, या थोपे हुए संस्कारों के स्वाभाविक विरोध (जिसके लिए हम खासे बदनाम हैं) की वजह से है या फिर यह कानून का डंडा धारा 377 ? हैं ?
नेचुरली बहुत कन्फ्यूजन है भई ! ओह्ह ! कहीं ये कन्फ्यूजन भी अन-नेचुरल माने कि अप्राकृतिक तो नहीं !! हाय हमारा धर्म ! हाय हमारे कानून !!

-----------------------------------------मुखर 

Friday, December 6, 2013

 " सर जी, एक आईडिया ! "

बड़े बड़े धुरंदरों, तीरंदाजों, ' ऑनेराब्लों ' को अर्श से फर्श होते देख सुन रहें हैं हम आजकल.
और कारण ? कारण तो भैया ज्यादा कुछ खास नहीं है. विभिन्न बहसों में इस कारण का नाम दिया जा रहा है ' क्षणिक आवेग ' माने कि ' हीट ऑफ़ द मोमेन्ट ' !
लो जी ! मिल गया गिरे हुओ को सहारा, तिनके का ही सही ! कम से कम खड़े तो हो गए ! थोडा सहानुभूति सा फील होता है जी, बस !
पर सांची कहें हमने तो बड़ा थ्यावस है मन में. पूछो हो काहे का थ्यावस ? अरे भई ये जो बिमारी है न , ' क्षणिक आवेग ' वाली ? हाँ वही 'हीट' वाली ...वो बिमारी नर-जात को ही होत है. नहीं तो हम कहते हैं ये जो सो कॉल्ड सिविलाईजेशन थोडा बहुत चलता फिरता दीखे है न , हो गया था इसका भी बंटाधार !
अब ये जो बात है कि हमारे को ये लिंगभेद माने की जेंडर डिस्क्रिमीनेशन का जो कीड़ा बार बार क्यों काटता है तो हमको इसका राज भी पता चल गया. बताएँगे...बतायेंगे...थोडा तसल्ली तो रखिये !
तो सोचना तो पड़ेगा इस जानवर-पने से ऊपर उठने का कोनो उपाय ! आखिर कब तलक नर-जात सहानुभूति पर जिन्दा रहेगी ? हैं ना सर जी ?
हाँ तो सर जी, हम सोचे सोचे और बहुते सोचे . परन्तु जब कोई उपाय नहीं सूझा तो लगे कारणों को ढूँढने ! कि आखिर नर-नारी के रहन - सहन ही में कोई अंतर है जो इतना बड़ा खाई बना जाता है !
और तभी हमारा मन चिहुंका - उरेका उरेका !! (अब हमसे ये मत पूछिए कि ये उरेका का यूरेका है का )
हाँ तो, हमको पता है कि कुछ सर जी हम पर हंसेंगे. मगर हमको ये भी पता है कि मन ही मन कहेंगे - बात में थोडा सा ही सही, दम तो है !
यही तो !!
और सर जी हमारा उपाय बिंदु है - १) नर-जात का पायल-चूड़ी कम्पलसरी कर देओ ! कहीं भी चोरी छिपे नहीं आ जा सकेगा फेर !
सबका कान खड़ा हो जायेगा - छनन छम ! जरा भी हिला-डूला की छनन छम ! मन का सारा कलेश वहीँ दम तोड़ देगा ! हिम्मत ही नहीं होगा कुछ गलत तो क्या सही भी सोचने का ! वो राजस्थानी गीत सुने हैं न -
"ओ म्हारी रुनक झुनक पायल बाजे सा,
कीकर आऊँ सा ! "
अपना पिय को भी मिलने नहीं जा सकती !!
२ ) दूसरा बिंदु है टेस्टोस्टेरोन  ! ये जो हारमों का डिफरेन्स है न, इसको कण्ट्रोल करने का इक्को एक तरीका युगों से अजमाया हुआ है - प्रेशर पॉइंट ! हाँ ! पांव में बिछिया और नाक में नथ ! ई दोनों पहनने से बहुते ही फायदा होत है. एइसा हम नहीं कह रहे. आजकल पढ़ी-लिखी बहुओं और दूसरी औरतों को समझाया जाता है ! क्या फायदा होता है ये किसी को पता नहीं, परन्तु फायदा होता जरूर है !
हम फिर से सोचे. बहुत बहुते सोचे. और एक बार फिर से हमको समझ में आ ही गया, फायदा ! ये प्रेशर पॉइंट हो न हो इसी ' हीट ' को कण्ट्रोल करते होंगे ! क्यों है न ?
अब हमरा आईडिया को कानूनी पायजामा पहनाने में टेम लग सकता है. परन्तु हमको लगता है सर जी समाज जो ठान ले फिर तो कोई कानून क्या उखाड़ लेगा !
हाँ, हो सकता है एक-दो पीढ़ी लगे नर- जात की सोच और हरमोन संतुलन में आने में ! परन्तु आईडिया तो झक्कास है न सर जी !
हाँ तो, हमारा जो राज है - जेंडर डिसक्रीमीनेशन वाला कीड़ा द्वारा का बार बार काटने वाला - तो यही है वो राज कि हम ना तो बिछिया पहनते हैं और ना ही नथ . तभी तो इतना 'अ- सामाजिक ' माने क्रांतिकारी विचार हमारा दिमाग में उठता रहता है. परन्तु का करें, हमारा सारा हीट सिस्टम के खिलाफ/ सुधारने सोचने में लग जाता है ना !!

                                                             - मुखर ! 

Monday, December 2, 2013

चले आओ !
काम के बोझ के मौसम में मेरे अन्दर का मैं जब तब ताने देता है, कभी फुर्सत मिलेगी मेरे लिए भी ? कहना है बहुत कुछ, सुनना है बहुत कुछ !
कभी मुस्कुरा कर और अक्सर अनसुना कर मैं खुद मौसम के बदल जाने का बेसब्री से इन्तजार करती हूँ.
ज्यों ज्यों समय करवट लेता है नस नस पोर पोर शिथिल होती जाती है.
और फिर एक छुट्टी के दिन बड़े फुरसत में मैं धूप बिछा कर जरा कमर सीधी करती हूँ कि पाती हूँ मैं कहीं नहीं हूँ ?
अरे भई कहाँ हो ?
दिमाग पे दस्तक दी, देखा वहां बड़ा सा ताला जड़ा हुआ था !
दिल को सहलाया तो पाया वो भी ऑटो -पायलट के सहारे था . मैं सोच में पड गयी.
जो अब तक उबल रही थी वो विचारों की हांडी क्यों हो जाती है एकदम खाली ! लपटें भी नहीं उठती ! फूंकनी भी जाने कहाँ तो लुढ़क गयी है ! माचिस की एक एक तीली सीली पड़ी है !
ये क्या हो जाता है मुझे ? ये कैसी लुका छिपी है मेरी मुझसे ? क्यों नहीं जब मुझे मेरी सिद्दत की जरूरत होती है थोडा वक़्त चुरा पाती हूँ ? और जब वक़्त का पूरा का पूरा आसमान होता है मैं ही खो जाती हूँ ? ये जिंदगी की कैसी साजिश है जो मुझे मेरी ही नहीं सुनने देती ?
आ जाओ मुखर, मौसम के बदलने से पहले . इंतज़ार है मुझे मेरा !

                                              - मुखर !