Thursday, October 25, 2012

'चार दिनों दा प्यार... '
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नहा धो  कर  धूप  में  बैठी  थी  नेल्स  फाइल  करने कि उस पर नज़र पड़ी. वह फिर आ बैठा था, वहां, उपर ! सब कुछ छोड़ छाड़ मैं भाग कर बाहर आ गयी बगीचे में. कनखियों से देखना चाहती थी कि वो अब भी लंगड़ाता है क्या. अगर हाँ, तो वो मेरा ही है ! धत्त ! कितनी मतलबी है तू भी ! बस चार ही दिन का तो साथ था तेरा उसका . इतने में देखा वो उड़ गया. अचानक उदासी घिर आई और लगा कि नहीं, वो नहीं था शायद ये !
'आंटी, क्या देख रही हो ?"
'वो जो तूने कमेड़ी दिया था न, उसी को ढूँढती हूँ. मगर लगता है वो मुझे भूल गया .
'आपको क्या पता वो 'था' ? कमेड़ी है तो 'थी' भी तो हो सकती है. हैं ? "
'चल जा ! स्कूल नहीं जाना तुझे ? तू नहीं समझेगी !'
मन में जानती थी, उस कमेड़ी से एक टाइप का अटैचमेंट हो गया था. उसे ओपोजिट जेंडर का मानना अच्छा लगता है. रोमांटिक कनेक्शन फील होता है. ;)
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करीब महिना भर पहले की बात है. ख़ुशी और नेहल ने आवाज लगायी - 'आंटी ! बाहर आओ, एक चीज देनी है '
'नहीं, मैं अपने गुलाब नहीं दूंगी '
'अरे, गुलाब लेने नहीं, आपको कुछ देने आये हैं '
बाहर गयी तो देखा गत्ते का बॉक्स है उनके हाथ में.
'क्या है ' - मैंने पुछा.
'पहले बोलो आप मना नहीं करोगी. प्लीज़ प्रोमिस करो आप रख लोगे. ' - ख़ुशी बोली.
'हाँ आंटी ! हम दोनों की मम्मी ने रखने से मना कर दिया. कहती हैं कबूतर घर में नहीं रखते . कहती हैं..
'कबूतर ! दिखाओ ! कहाँ मिला ? अरे, इसके तो पंख टूटे हुए हैं !...
'हां आंटी, हम नहीं पहुँचते तो ले ही जाती बिल्ली इसको !'
'चलो ठीक है, रख दो इसको छत की सीढ़ियों पर .'
ढाई -तीन घंटों तक उन लड़कियों कि चीं चीं चूँ चूं  से परेशान हो आखिर धमकी देनी पड़ी कि ले जाओ इसको अपने घर.
वो उसे छोड़ कर चुप चाप चली गयी.. थोड़ी देर में उस कमेड़ी को मैं संभाल आई.
थोड़ी देर बाद फिर देखने गयी तो एक कटोरी में थोड़े चावल- गेंहू रख आई.
थोड़ी देर में ध्यान आया पानी भी रख आऊं.
'उन लड़कियों को डांट रही थी, अब तुमने खुद उस पक्षी को परेशान कर रखा है ' - इन्होने ताना मारा.
'अच्छा जी ? परेशान कर रही हूँ ? तुम्हे क्या पता 'केयर' किसे कहते है ? ' - नहले पे देहला मैंने भी मारा .
'हाँ - हाँ, वो तो देख ही रहा हूँ ' - तीर निशाने पे लगा था.
' हे, डोंट बी जेलस , देखो मैंने थोड़े न्यूजपेपर रख कर थोड़े अशोक के पत्ते डाल कर इसके लिए 'फील एट होम' का कम्फर्ट दिया .मगर देखो न फडफडाना तो दूर ये हिल डुल भी नहीं रहा.बस गर्दन हिला हिला कर टुकुर टुकुर देख रहा है. बहुत दर्द होगा न इसे ? थोड़ी सी डिस्प्रिन का टुकड़ा घोल कर दे दूं इसे ?'
'तुम भी हद करती हो. इनकी और अपनी एनाटोमी में डिफ़रेंस होता है. डिस्प्रिन से हार्म हो सकता है. '
हूँ !...
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' सुनो ! वो वहां नहीं है ! पता नहीं कहाँ गया. मैंने सब जगह ढून्ढ लिया . तुम भी न कैसी बातें करते हो ! दरवाजे खिडकियों की तो जाली बंद रहती है न !.
नहीं, किट्टू के स्कूल जाते ही बंद कर दिया था मैंने. ...
'दीदी !...
'क्या है बाई जी ?..
'ये टी. वि...
'हाँ, उसके पीछे भी सफाई कर दिया करो कभी...
'अरे, देखो तो आप ...
'वाह ! मिल गया !
मैंने उसके बॉक्स को चौकी पर जाली के पास धूप में रख दिया, और दरवाजे के उस पार चिड़ियों को दाने डाल दिए. अकेला महसूस नहीं करेगा और उड़ने की भी कोशिश करे. इन्होने कितना कहा की बाहर रख देता हूँ, उड़ जाने दो. तुमने उसको कैदी बना लिया है.
'हाँ, घर में तो फडफडा तक नहीं रहा, बाहर बिल्ली या ननकू खा जाएँगी. पता है आज सुबह मैंने डेटोल में डूबा फाहे से इसके पंख और पांव साफ़ कर इसके पांव में हल्दी का लेप लगा दिया था .'
ये काम पर निकल गए थे.
फिर तो दिन भर कभी पेलमेट पर, कभी बिस्तर, मेज पर तो कभी मेरे कंधे पर और कभी मेरी गोद में...ठीक होने लगा था. मुझे लगा मेरे पर निकल रहे हैं.
शाम को ये आये तो मैंने कहा - 'देखो, कैसे घूर घूर कर देखता है...टमक टमक ...!'
'देखता है ? कि देखती है ?'
'अरे, तुम्हे नहीं मालूम. हम फीमेल्स को देखने देखने का अंतर पता चलता है !'
'और तुम जो उस बेचारे को सुबह से छेड़ी जा रही हो ? कभी अचानक से ताली बजा कर चमका देती हो, कभी सहलाती हो..'
'चलो हटो ...
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अगली सुबह मैंने उसे जैसे ही बाहर धूप में रखा वो डैने फैला कर उपर तार पर जा बैठा. बहुत खुश हुई मैं. देखो, देखो, वो ठीक हो गया, वो उड़ गया ! और थोड़ी ही देर में वो बाउंड्री वाल पर आ गिरा, शायद संभाल नहीं पाया. ननकू उस पर झपटती उसके पहले उसे मैं उठा लायी. वो भी आराम से मेरी पकड़ में बैठा रहा. उसका वापस आना मुझे ज्यादा अच्छा लगा या मेरा दिल इसलिए खुश था कि उसे मैंने ननकू के ग्रास बनाने से बचा लिया ? पता नहीं !
कुछ भी हो, हम दोनों में एक खुबसूरत रिश्ता कायम हो गया था. उसका मुझसे भरोसे का, और मेरा उससे लगाव का !
मगर पांचवे दिन सुबह सुबह वह ऐसा उड़ा कि फिर दिखाई ही नहीं दिया.
'देखो न ! वो चला गया ! निर्दयी कहीं का ! तुम मुस्कुरा रहे हो ?'
'खुश हूँ कि तुम्हे मेरी सुध तो आई !'...
-------------------------------- मुखर

2 comments:

Surander Sharma said...

very beautiful and excellent approach ............. beautiful

Mukhar said...

Thnx Surander, u paid visit to my blog!
Hum kabhi aapke comment ko padhte hain, kabhi apne blog ko ! hahaha !thnx again.