Friday, August 31, 2012

' हिमाकत '
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हिमाकत देखी उसकी ?
चुनौती भी दी तो किसको?
घुप काले अंधियारे को?
 है क्या वो? एक जरा सा रुई का फाया ?
उसकी औकात क्या है ?
आधे क्षण में तो भष्म हो जाता है !
फूंक मारो तो उड़ता जाता है  !
ठीक है, तो देख लेंगे !
और शर्त क्या रखी थी उसने ?
बस एक कटोरी तेल और थोडा सा बट ?
ठीक है, आने दो आज रात !
निकालते हैं उसकी ऐंठ !
ख़ैर ! दो कोमल हाथों ने,
जिनमें खूबसूरती थी मन की
और रौशनी की लगन थी,
उस फाहे को बड़े तन्मयता से बटा .
एक दिए में कटोरी भर तेल डाल
उस बाती को टिका रखा !
सूरज के ढलते ही ,
अँधेरे की महफ़िल जमी.
रुई के फाहे के बदले रूप पर
काले  सन्नाटों का ठहाका लगता  रहा..
तभी खनक के आवाज के साथ,
झीने से आँचल में से निकले,
दो नाजुक से कोमल हाथ .
बड़ी दृढ़ता से उस बाती को बाला.
पलक झपकते ही अँधेरा गुल हुआ.
दूर तलक उम्मीद की रौशनी,
इतरा कर झिलमिला उठी !
उस उम्मीद की लौ पकडे ,
कई पतंगे इधर को उमड़ पड़े.
और रात भर उस रुई के फाये की
जीत का जश्न मनता रहा.
उधर घूंघट में कोई मुस्कुरा उठा !
                                     - मुखर.

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