कभी कोई एक दुख पर
ही
बूंद बूंद रिस्ते
दर्द एकत्रित करती है ,
हृदय की मेरी अंजुरी !
किसी सखाभाव की गर्माहट से
वास्पित होती कुछ बूंदे तो
कभी अपने लगा देते
हैं मरहम
उभर आये जख्मों पर !
मगर जाने कहाँ से, कैसे,
क्यों तो कितने ही दर्द
रिस्ते रिस्ते, रचते, बनते
बिखर जाती है
पन्नों पर
दर्द भरी कोई कविता ।
या मीठी सी ही कोई
रचना
सुना है प्रेम के
आंसू खारे नहीं होते।
फिर !
तूफान के बाद की
शांती !
जिंदगी फिर मचलने
लगती है
हौले हौले ,
और फैला देती हूँ
मैं एक बार फिर
हरीतिम हृदय की उर्वर
धुलि धुलि अंजुरी !
- मुखर !
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