Tuesday, July 1, 2014

विरह ...( डयरी के पन्नों से )



सूरज सर पर चढ आया मगर अभी तलक सुबहः नही हुई ! पेट की भूख भी ना जाने कहाँ मर गयी ? हाथों में वो स्वाद भी तो नही था !
...घर बिलकुल व्यवस्थित..सजा संवरा...हर वस्तु ठिकाने पर ...परन्तु आकर्षण विहीन ...कुछ कमी सि है...बहुत बड़ा खालीपन ?


मैंने मेजपोश एक तरफ़ लटका दी .सारे कुशन सोफे पर तितर बितर कर दिए ...डायनिंग टेबल पर से चाय का कप व नाश्ते कि प्लेट नही उठाई ! चेयर भी कुछ टेढ़ी सी कर दी ...
फिर भी कुछ नही बदला...कुछ भी तो नही बदला !!
हार कर सारे अखबार , ' द सीक्रेट ' (किताब) , अपनी डायरी और एक कलम ले बिस्तर ही पर फैल गयी ! मेरी ऐनक  भी एक तरफ़ पड़ी थी...मेरे वजूद के सारे लक्षण थे ...बस मैं ही नही थी !
कल तुम्हारे रवाना होने से पहले चेक किया था मैंने तुम्हारा बैग ! न कुछ दिखा...ना कुछ मिला ! तुम जब भी जाते हो, ऐसा क्या ले जाते हो कि ना घर 'घर' रहता है...ना मैं 'मैं ' ...

                                                                                                          मुखर .  























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1 comment:

गुरप्रीत सिंह said...

अपना जब कोई जुदा होता है तो लगता है अपना वजूद भी चला गया।
अकेलेपन को व्यक्त करती अच्छी पंक्तियाँ है।
।।।।।
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