ये उलझन !
वह उड़ तो सकता था,
मगर उसकी उड़ान की जद
पंजे में बंधी एक डोर थी.
कच्चे धागों से ये नाजुक
बंधन.
इस घेरे के अंदर की
जमीन पर,
ये जो कुछ धब्बे से
दीखते हैं...
वक़्त की गर्द से ढके
छिपे ,
कुछ जख्म हैं,
पंछी के नाजुक पंजो
पर भी...
जख्मी तन...छलनी
मन !
नहीं ! इसके परे
देखने के लिए,
मेरे तुम्हारे पास
नजर नहीं.
तुम तो बस उसकी उड़ान
देखो,
क्योंकि वो उड़ तो
सकता था,
वह उड़ भी तो रहा था...
कच्चे धागों के ये
नाजुक बंधन !!
यदा-कदा फड़फड़ाहट सी जो
सुनाई देती हैं न !
भीतर से आती कोई आवाज है...
जैसे पर है तो परवाज
है !
वह खुला आसमान मुझे, या
मैं खुले आसमान को ताकता
हूँ !
बेजुबान परिंदों की आँखों
में, या
जिंदगी के गिरेबान में
झांकता हूँ !
तार -तार सा कुछ...
क्या कोई ख्वाब था ?
बड़ी रंगीन सी ये उलझन !!
कच्चे धागों से ये नाजुक
बंधन !
तभी तो, देखो, वह उड़ रहा है
.
क्योंकि वो उड़ तो सकता है.
मगर उसकी उड़ान की जद
पंजे में बंधी डोर है !
पहचाना ?
अब तुम पूछोगे -
क्या ? उड़ान, जख्म
या डोर ?
अरे बुध्धू ! वो
पंछी !
हहहहाहाssssss..
---------------मुखर
!!