कितनी अजीब बात है ना !
मैं जिस मिट्टी में पैदा हुआ हूं ,
उसी में पैदा हुए मेरे पिता,
और उनके भी पिता ...
इस मिट्टी को गूंधने ,
अलग अलग दिशाओं से,
अलग अलग घरों से,
आती रही हैं स्त्रियां ,
मिल जाती हैं इसी में !
खो कर अपना अस्तित्व,
देती रही हैं आकार हमें,
सींचती रहीं हैं ,
लहू, पसीने, गुणसूत्रों से !
इसी मिट्टी में उग कर स्त्रियां,
जाती रही छोड़ कर सब कुछ,
अलग अलग दिशाओं में,
अलग अलग घरों को !
युगों युगों से
घूम रही है स्त्री,
घूम रही है पृथ्वी ,
और मैं ?
अपनी वंशावली लिए ,
खड़ा हूं वहीं,
युगों युगों से !
कितनी अजीब बात है ना !
- कविता मुखर
12/10/2020
7 comments:
आदरणीया कविता मुखर जी, नमस्ते👏! मिट्टी और स्त्री के साथ के समत्व को परिभाषित करती सुंदर रचना! रंगों और उमंगों भरी होली की शुभकामनाएँ!--ब्रजेंद्रनाथ
गजब ! सचमुच सेल्यूट शानदार सृजन कहीं गहरा अंतर तक उतरता अभिनव व्यंजनाएं।
साधुवाद।
आपके इन सुन्दर शब्दों में प्रशंसा के लिए आभारी हूं 🙏
धन्यवाद ज्योति जी
नमस्कार मर्मज्ञ जी 🙏
🙏
धन्यवाद अनीता जी !
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