“हर बात पर संदेह करती हो ! हर एक पर शक करती हो ! इतना अविश्वास क्यों ? आखिर फिर जियोगी कैसे ?”
दिलीप सही कह रहा है . यह बात मीनू मन ही मन भलीभांति जानती थी . आखिर चार पांच बरस हो गए थे दोनों की दोस्ती के . दोनों एक-दुसरे के रग-रग से वाकिफ़ थे. मगर मीनू करे भी तो क्या . बचपन ही से हर पड़ोसी , हर अंकल , हर भैया , हर पुरुष पर शक़ करने का जैसे पाठ ही सिखाया गया है .
“तुम भोली हो ! तुम्हें नहीं पता दुनिया कितनी धूर्त है , बेवकूफ़ बना लेते हैं तुम जैसों को . तुमने देखा ही क्या है अब तक ?” ऐसी ही बातें सुन-सुन कर उसने कभी किसी अंकल , टीचर को गुरु नहीं बनाया . कभी खुद पर भी पूरा भरोसा नहीं कर पाई . हमेशा बस एक ही बात जहन में उठती , “नहीं , मैं बेवकूफ़ नहीं बनूँगी !” इसीलिए कभी कोई बॉय फ्रेंड भी नहीं बना उसका. आज सत्ताईस की उम्र में भी ‘बेवकूफ़ न बन रही हो’ का डर उसे दिलीप पर भी जब-तब संदेह करने पर मजबूर कर देता .
यह तो किस्मत की ही बात थी और दिलीप की समझदारी भी कि उसने दोनों घरवालों को विश्वास में लिया था और आख़िरकार मीनू –दिलीप सात फेरों के बंधन में बंध सके.
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर दिलीप ने उसे लोगों पर ट्रस्ट करना सिखाया . जीवन अब अधिक सरल और खुशनुमा हो गया था . दुकानदार पर, दूधवाले पर, बाई पर , पड़ोसी पर , कुली पर , दोस्तों , जान पहचान वालों पर एक हद तक विश्वास करने लगी थी मीनू . और कभी दिक्कत भी नहीं आई . कभी कोई छोटी-मोटी परेशानी आई भी तो अपने पर बन आए आत्मविश्वास के कारण परिस्थितियों को संभल लेती थी . नतीजतन कई खूबसूरत रिश्तों से ज़िन्दगी संवर गई थी , महकने लगी थी . और समय ने पंख पसार लिए .
वह समय भी आया जब बड़ी बेटी को पूना के इंस्टिट्यूट में पढ़ने जाना था . चार लड़कियों ने मिल कर एक फ्लैट किराये पर ले लिया था . खुद दिलीप और मीनू सारी व्यवस्था ठीक कर आए थे .पहले-पहल तो करीब रोजाना ही बातचीत हो जाती थी . फिर वह पढ़ाई , प्रोजेक्ट्स में ऐसी व्यस्त हुई कि दो-चार दिन हो जाते थे फोन किये . वैसे भी चिंता-फिकर की तो कोई बात थी ही नहीं .
परसों शाम की बात है . ‘बार- बी – क्यु – नेशन’ में सुनील और दिव्या के शादी के सालगिरह की पार्टी चल रही थी. मीनू बुफे से सलाद लेने उठी ही थी कि सोहना का फोन आया . इधर उधर की दो चार बात कर उसने कहा , “मम्मा ! एक बात बतानी है आपको !” टोन में गंभीरता भांपते हुए मीनू प्लेट रख कर बालकनी में आ गई फोन सुनने . “हाँ ! अब बोल , अंदर लाऊड म्यूजिक है .”
“मम्मी !...”
“हाँ बेटा ss ?”
“चलो , घर पहुँच कर फोन कर लेना .”
“अरी बोल तो ! तुझे मालूम है, अब मेरा मन नहीं लगेगा .”
“ आज न ...आज जब मैं दिन को क्लास से लौटी ..”
“?”
“अपार्टमेंट के मेन गेट ही पर मेहरा अंकल मिल गए .”
“वही न जो थर्ड फ्लोर पर रहते हैं ? जब हम आए थे वे बंगलौर गए हुए थे अपने बेटे के पास ?”
“हाँ वही ! बातों बातों में उन्होंने मुझसे पूछा कि फ्लैट में मेरे साथ कौन-कौन है . मैंने बता दिया कि अभी तो मैं अकेली हूँ, शाम को पूनम आ जाएगी . बातें करते-करते हम लिफ्ट में गए . लिफ्ट में उन्होंने मेरे फेस पर टच किया और पूछा कि इतने एक्ने क्यों हो रहे हैं. मुझे तो कुछ समझ ही में नहीं आया कि क्या करूँ . मैंने नोटिस किया कि उन्होंने अपना फ्लोर भी मिस कर दिया और मेरे कंधे पर स्ट्रैप को छू कर पूछे कि यह क्या है . मैं तो जैसे ही मेरे फ्लोर पर लिफ्ट खुली फटाक से भाग कर फ्लैट में घुस गई और अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया . मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था . मम्मी , पता नहीं क्यों मेरा दिमाग एकदम से सुन्न हो गया था . रिएक्ट ही नहीं कर पाई . मुझे तो लग रहा था कि हमारे अपार्टमेंट के अंकल हैं . सोचा भी नहीं था ...”
सोहना बोली जा रही थी और मीनू का चेहरा अवाक खुला रह गया था .
“मम्मा ! बोलो न आप कुछ !..”
“बेटा तू घबरा मत ! हम कल ही पहुँच रहे हैं वहां . उस बुढ्ढे को तो हम बताएँगे. तू दरवाजा अच्छे से बंद रखना. और सुबह रोजाना के जैसे कॉलेज जाना. किसी से कुछ कहने या डरने की कोई जरुरत नहीं है .मगर आज के बाद किसी पर भी विश्वास नहीं करना . यह दुनिया विश्वास करने लायक ही नहीं है दरअसल . उस साले बुढ्ढे के बच्चे भी तुझसे बड़े हैं . फिर भी लाज शर्म नहीं !...”
फोन रखने के बाद, पार्टी से लौटते हुए रास्ते भर , अगले दिन कैब से पूना के लिए रवाना हो रस्ते भर मीनू के जबान पर बार-बार एक ही वाक्य लौट-लौट कर आ रहा था , “कोई भी तो भरोसे के लायक नहीं इस दुनिया में !”
दिलीप क्या कहता ? समझ रहा था कि विश्वास ज़माने में ज़िन्दगी लगी और टूटने में पल भर !
- - (अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की स्मारिका 'हमारा दृष्टिकोण' में प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment