बिड़ला मंदिर और मोती डुंगरी के बारे में ज्ञान पेलने के बाद जब हम निकले चोखी ढाणी की तरफ़ तो मुझे बच्चों पर दया आ गई और सोचा ख़ुद ही अनुभव करने दो क्या तो ढाणी और क्या चोखी ढाणी!
पाँच सितारा स्वागत! रोली टीका! शहनाई! मांडने, खिड़की दरवाजे, ताले, और हज़ारों प्रकार के हस्तशिल्प के आइटम्स से सुसज्जित! आँखें फटी की फटी और अहा वाह के बीच क्लिक क्लिक!
“मैं ऊँट पर बैठूंगी! असली के!”
“हाँ बेटा, हाथी, घोड़ा, बैलगाड़ी भी असली के!”
जलजीरा पी कर घूमते घामते कठपुतली का. खेल देखा, जादू का खेल देखा फ़िर सीढ़ियाँ चढ़ एक टपरी पर पहुँचे! कोई बारह बाई पाँच कोठरी सी जिसमें देखने को आटा चक्की, पानी का घड़ा और औझरे में माटी का एक नंगा शिशु! दूसरे कोने में चूल्हे पर मक्के की रोटी सेकती एक वृद्धा जो हम मेहमानों को पत्ते के दोने में रोटी का टुकड़ा पर ताज़ा मक्खन और लहसन की चटनी डाल प्रेम से खिला रही थी।
मैं उनके पास ही बैठ गई।
“आपने जैसे लोया बनाया, यह मक्की का आटा तो नहीं लग रहा!”
“शंकर नहीं ठेठ असली मकई रो आटा है!” उसने कचोरी सी फूली बड़ी सी रोटी को चीमटे से पलटा!
“कहाँ से आती हैं अम्मा आप !”
“यही कोई एक घंटे का रस्ता है म्हारे गांम को! चाकसू सू पेली!”
“कैसे आते हैं?”
“पैदल ही आऊँ हूँ बेटा!” उन्होंने सिकी रोटी के चार टुकड़े कर चार दोने बनाए, मक्खन रखी तो मैंने उनमें चटनी और गुड़ डाल कर पीछे खड़े मेहमानों को पकड़ाया तो वह स्त्री हँसती हुई मुझ पर हाथ का पंखा झलने लगी!
“कित्ता बजे तक जाओगा आप?”
“इग्यारह बजे सीक! बारा बजे ताईं तो पूंच जाऊँ घरां !”
“थे कमाओ कत्ताक हो!”
“सौ रूपिया रोज की! चार बजा की आई हूँ!”
तीन दोने लेकर बाहर हम सबमें बांट लिया! उँगली चाट चटखारे लेते हम नीचे उतरे।
संग्रहालय, भूलभुलैया, बहुत ऊँची फिसल पट्टी, नटों का खेल, मेले में मिलने वाली सारी दुकानें, सारे खेल… तीर कमान, बंदूक, बॉलिंग alley, रिंग.. आदि आदि…
बनावटी अँधेरा जंगल, स्पीकर से आती जंगली जानवरों की आवाजें, पानी की नहर पर कई टापू और पुल और नौकायन , घुप्प अँधेरी गुफ़ा, मचान, टेकरी पर मन्दिर, जंगल के देवता के चबूतरे पर नगाड़े बज़ाता एक ग्रामीण और पर्यटकों के बच्चों को जंगली नृत्य हुलाला कराता जंगली कॉस्ट्यूम में एक ग्रामीण!
जंगल से बाहर निकलते ही विभिन्न राज्यों की झलक लिए कई छोटी छोटी कोठियाँ जिन पर उसी राज्य की वेशभूषा में तैनात ग्रामीण! न! उनमें से किसी को उन राज्यों की भाषा नहीं आती।
“बाबा आपको मलयालम भाषा आती है? कुछ तो शब्द सीखना!”
“आप जैपुर का कुण सा गांव… कुण जात?”
“ बा सा! कुण सा जमाना री बातां करो हो… अब कोई जात पात कोनी हुआ कर ह…बस अमीर और गरीब, मलिक और नौकर! कुण सी भी जात हो मिलेगा तो वा ही सौ रिपिया!”
दूमंजिले मचान से सारी ढाणी का रूप निरख हम जीमने (खाने) पहुँचे। लंबी कतार में आधा घंटा इंतज़ार के बाद भरी उमस में खाना खाने दरी पर बैठे और ऊँची चौकी पर पत्तल दोने में छप्पन नहीं तो पता नहीं कितने पकवान परोसे गए ।
“अरे बस्स! इतना घी?”
“अरे सेठानी! क्यूँ शर्माओ हो! दुबल्या हो रहा हो… थे तो जीमो!”
मान - मनुहार कर जबर्दस्ती थाली में डाला भी गया। दो चार नहीं सबने ही जितना खाया दुगुना जूठा छोड़ा! वहीं पत्तल पर हाथ धुपाया। हमारे उठते उठते वे सारे पत्तल भोजन समेत बड़ी बड़ी काली थेलियों के हवाले हो गईं।
हाथ धोते, जूते चप्पल पहनते हर कोई बात करता सुना जा सकता था कि भोजन की बहुत बर्बादी है।
जरा हवा महसूस हुई, लगता है दूर कहीं बारिश हुई है। हम ननद भौजाई भतीजी वहीं पास में मेहँदी लगवाने बैठ गईं।
“आसपास ही है म्हे सबरा गाम। बारा बजे करीब जाश्यान! सौ रिपिया मिल जाया करअ ह।… ना एकली नई, म्हे भाईलियाँ सागअ आया करन्… के बेरा कत्ता लोग काम करअ हैं अठे!...के तो लुगायां, आदमी, टाबर… ” मैं अंदाजा लगा रही थी… करीब हज़ार तो होंगे ही ?…..आठ नौ घंटे? न्यूनतम मजदूरी? टिकिट तो 800-1000 /- प्रति व्यक्ति! भीड़ ठसाठस!...
मेंहदी लगवा कर जब हम ढूँढते हुए पहुंचे तो देखा तीनों के तीनों अलग अलग खाट पर पसरे थे!
“आज एक अरसे के बाद ऎसे देख रहा हूँ आसमान!”
मैंने ऊपर देखा तो विस्मित रह गई, गहरे नीले असमान में डेरा जमाते रूई से बादल! मैं भी बाएँ हाथ की मेहँदी संभालती वहीं अधलेटी हुई।
“एक बात नोटिस की तुमने?”
“क्या?”
“यहाँ इतनी घनी हरियाली है और दिनभर में कितनी ही बार बारिश हुई मग़र एक मच्छर मक्खी नहीं… उड़ने वाले या कैसे भी कीड़े नहीं!”
“अरे हाँ!” मैं उठ बैठी थी.
“और ना ही किसी प्रकार के पक्षी!... कस्टमर को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए…”
मैं सोच नहीं पाई क्या उपाय किया गया होगा!
“ढाणी! वह भी चोखी! पैसा हो, प्रकृति नहीं!”
“अहाँ! प्रकृति वही जो पैसा दे!”
… और हम??
मुखर