आज फिर...
सावन के वक़्त ने
भादो से एसा मुँह फेरा कि पूरा ही घूम गया . घूमा ही नहीं एक जोर की छलांग भी लगाई
और आषाढ़ को फाँदता हुआ सीधे जेठ पर जा ठिठका ...
ये क्या ? गर्म पानी ? मगर गीजर तो ऑफ है। ये सूरज भी ना ! एक
भी काम कभी ढंग से किया है ? सर्दियों में जब
गर्म पानी चाहिये होता है तो काम से जी चुराता दूर जा बैठता विथ कूलेस्ट स्माइल !
पहले ही देर हो
रही थी। तैयार होने आईने के सामने बैठी ही थी कि -
' सुनो वक़्त ! देखो जरा ! इधर, क्या है ये ? खुद तो बड़े मजे से पीछे मूड गये और मुझे
आगे धकेल दिया ? हाँ ?...देखो, पिछले ४-५ महीनो
ही में कितनी सुफेदी पुत गयी है मेरे केशों पर ! तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता ना, इसीलिये ! By the way , तुम्हारी उम्र क्या है ? ' अपना अंदाज बदलते हुए मैने आखिर पूछ ही
डाला।
एक अरसे बाद उसने
आज मुँह खोला। और मुँह क्या खोला एक जोरदार ठहाका गूंज गया !
'अरे बताओ भी ! यों हंसी में मत टालो ! या
तुम भी अपनी उम्र छुपाते हो ?
मैने देखा वो
वक़्त थोड़ा संजीदा हो चला था। लगा कहीं वा बुरा ना मान जाये।मगर थोड़ा रुक कर वो
बोला - ये वक़्त, ये उम्र, ये सावन...ये जेठ ...सsssब इंसान के दिमाग की उपज है... वक़्त कि नब्ज पर हाथ रखने
कि नाकाम सी कोशिश।..अपनी सुविधा अनुसार बनाते बिगाड़ते धारणाएं ...
'धारणाएं ?
'कॉन्सेप्ट्स '
'ओह्ह ! मगर, क्या तुम अपने अस्तित्व पर ही प्रश्न
चिन्ह नहीं लगा रहे हो ?'
'अपने अस्तित्व पर नहीं, इंसानी समझ पर !'
'हैं ? कुछ भी ? खेर ...फटाफट
सेंडल पहन दोनो चाबियाँ व पर्स उठाते हुए घड़ी पर नजर डाली - वक़्त तेजी से भाग
रहा था...
ओह्ह! आज फिर देर
हो गयी ! ये वक़्त आज फिर मुझसे आगे निकल जायेगा.
- मुखर !