ये रिश्ते नाते मानव जनित हैं और बहुत ही खूबसूरत होता है हर रिश्ता. प्रेम के जितने रूप उतने ही रिश्ते !
मगर रिश्तों पर ऊँगली उठाना भी मानव प्रकृति ही है. वह भी क्या करे, मजबूर है अपनी मानसिक अवस्था से जो सींचित है परम्पराओं से, रूढ़ियों से...हर रिश्ते के साथ बांधे हुए अपेक्षाओं के बोझ से . और मुझे तो अन-अपेक्षित प्रेम अत्यधिक आकर्षित करता है. बिना रिश्ते के, बिना बंधन के, बिना कारन के ...एक दुसरे की ख़ुशी में मुस्कुराते होठ , दुसरे के लिए दुआ में उठे हाथ सबसे जुदा से और उत्तम मजहब से लगते हैं ! ईश्वर दीखता है उनमें !
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क्या शिक्षा मिलती है इससे ? अरे शिक्षा को छोडिये मन में कैसे भाव आते हैं? हैं न अतुलनीय प्रेम ! रिश्तों से अपेक्षाओं की जलकुम्भी काटिए और हर रीती -रिवाज परम्पराओं पर प्रश्न चिन्ह लगाइए, प्रेम के कटोरे बन जायेंगे ये रिश्ते.
रिश्तों के मोहताज प्रेम से इत
र देखिये प्रेम को ! यों ही नहीं कहा जाता - प्रेम ही ईश्वर है !