Monday, December 17, 2012


 पहली कुल्हाड़ी !
*************
वो इन चौराहों पर अरसे से
अपने बटुए करती आई है खाली
मगर ये फैलते हाथ
रक्तबीज से बढ़ते ही जाते हैं !

एक अजीब सी घुटन ने  
कार का शीशा चढ़ा लिया.
आज उसे मखमली बिस्तर पर
हमेशा की सहेली नींद नहीं मिली,
जो इस भाव में अकसर साथ रहती थी
कि आज फिर एक मुंह को निवाला मिला.
उसके  दर्द ने आँखों की राह ली
और कागज पर ढुलक गए.
लोग कहते है -
तुम कवितायेँ अच्छा लिखती हो !
सुन कर जाने उसने क्या तो गटक लिया.
 जाने क्या था जो हलक में अटक गया.

लाल बत्ती पर
भूख और मौत रचते हैं व्यूह !
दौड़ती भागती गाड़ियों में
पल भर को पसीजते दिल.
और वो पसरते हाथ
जिंदगी और मौत से गाफिल !

ये जो चार पैसे देती हो तुम
गरीबी की जड़ सींचती हो तुम !
जिस दिन वो बच्चा
हाथ फ़ैलाने में हिचकिचाएगा,
मांग के खाने में शर्मायेगा,
उस दिन गरीबी पर पड़ेगी
पहली  कुल्हाड़ी !

गरीबी दम तोडती है -
आत्म सम्मान कि चौखट पर !
आँखों में स्व- सम्मान ही न हुआ
तो किसीका भी सम्मान  कैसा ?
सम्मान नहीं तो प्यार कैसा ?
एक कुचक्र को जन्म देती
हमारे  कोमल भावुक कृत !
उन्हें पैसा नहीं, प्यार देना है .
प्यार से पहले सम्मान देना है .
सम्मान से पहले आत्म - सम्मान !
                             - मुखर .
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Wednesday, November 28, 2012

'कार्तिक का चाँद '
***************
कल शब् / अपनी मेज पर बैठा मैं
ख्वाबों की कलम ले
शब्दों की स्याही से
मन के कागज पर
कोई कविता उकेर रहा था
कि लगा, खिड़की से
तुम ताक रही हो !
और मेरे शब्द चांदनी,
स्याही उजली हो गयी !
कविता भाव विभोर सी हो
मन ही मन, मेरे मन में
मचलने लगी !
मुखड़ा तुम्हारा था ,
और मैं मात्राओं की तर्ज पर
प्रेम बांध रहा था.
घुमते, झूमते, मुड़ते, रुकते...
मैं डूब रहा था,
तुम घुल रही थी
पंक्ति दर पंक्ति
कविता पूरी हो रही थी !

हवा के झोंके ने
तोड़ी तन्द्रा
डायरी का पन्ना-
फडफड़ा रहा था ,
हर शाम की तरह वह
आज भी कोरा पड़ा था !
क्योंकि मेरे शब्द-चांदनी,
स्याही- उजली हो गयी थी !

नहीं नहीं, मैं कोई
कविता नहीं कर रहा था .
मैं तो -
तुम्हे सोच रहा था !
नहीं , खिड़की पर
तुम नहीं ताकती थी,
कार्तिक का चाँद चढ़ रहा था !
                          - मुखर.

Thursday, October 25, 2012

'चार दिनों दा प्यार... '
**************
नहा धो  कर  धूप  में  बैठी  थी  नेल्स  फाइल  करने कि उस पर नज़र पड़ी. वह फिर आ बैठा था, वहां, उपर ! सब कुछ छोड़ छाड़ मैं भाग कर बाहर आ गयी बगीचे में. कनखियों से देखना चाहती थी कि वो अब भी लंगड़ाता है क्या. अगर हाँ, तो वो मेरा ही है ! धत्त ! कितनी मतलबी है तू भी ! बस चार ही दिन का तो साथ था तेरा उसका . इतने में देखा वो उड़ गया. अचानक उदासी घिर आई और लगा कि नहीं, वो नहीं था शायद ये !
'आंटी, क्या देख रही हो ?"
'वो जो तूने कमेड़ी दिया था न, उसी को ढूँढती हूँ. मगर लगता है वो मुझे भूल गया .
'आपको क्या पता वो 'था' ? कमेड़ी है तो 'थी' भी तो हो सकती है. हैं ? "
'चल जा ! स्कूल नहीं जाना तुझे ? तू नहीं समझेगी !'
मन में जानती थी, उस कमेड़ी से एक टाइप का अटैचमेंट हो गया था. उसे ओपोजिट जेंडर का मानना अच्छा लगता है. रोमांटिक कनेक्शन फील होता है. ;)
---
करीब महिना भर पहले की बात है. ख़ुशी और नेहल ने आवाज लगायी - 'आंटी ! बाहर आओ, एक चीज देनी है '
'नहीं, मैं अपने गुलाब नहीं दूंगी '
'अरे, गुलाब लेने नहीं, आपको कुछ देने आये हैं '
बाहर गयी तो देखा गत्ते का बॉक्स है उनके हाथ में.
'क्या है ' - मैंने पुछा.
'पहले बोलो आप मना नहीं करोगी. प्लीज़ प्रोमिस करो आप रख लोगे. ' - ख़ुशी बोली.
'हाँ आंटी ! हम दोनों की मम्मी ने रखने से मना कर दिया. कहती हैं कबूतर घर में नहीं रखते . कहती हैं..
'कबूतर ! दिखाओ ! कहाँ मिला ? अरे, इसके तो पंख टूटे हुए हैं !...
'हां आंटी, हम नहीं पहुँचते तो ले ही जाती बिल्ली इसको !'
'चलो ठीक है, रख दो इसको छत की सीढ़ियों पर .'
ढाई -तीन घंटों तक उन लड़कियों कि चीं चीं चूँ चूं  से परेशान हो आखिर धमकी देनी पड़ी कि ले जाओ इसको अपने घर.
वो उसे छोड़ कर चुप चाप चली गयी.. थोड़ी देर में उस कमेड़ी को मैं संभाल आई.
थोड़ी देर बाद फिर देखने गयी तो एक कटोरी में थोड़े चावल- गेंहू रख आई.
थोड़ी देर में ध्यान आया पानी भी रख आऊं.
'उन लड़कियों को डांट रही थी, अब तुमने खुद उस पक्षी को परेशान कर रखा है ' - इन्होने ताना मारा.
'अच्छा जी ? परेशान कर रही हूँ ? तुम्हे क्या पता 'केयर' किसे कहते है ? ' - नहले पे देहला मैंने भी मारा .
'हाँ - हाँ, वो तो देख ही रहा हूँ ' - तीर निशाने पे लगा था.
' हे, डोंट बी जेलस , देखो मैंने थोड़े न्यूजपेपर रख कर थोड़े अशोक के पत्ते डाल कर इसके लिए 'फील एट होम' का कम्फर्ट दिया .मगर देखो न फडफडाना तो दूर ये हिल डुल भी नहीं रहा.बस गर्दन हिला हिला कर टुकुर टुकुर देख रहा है. बहुत दर्द होगा न इसे ? थोड़ी सी डिस्प्रिन का टुकड़ा घोल कर दे दूं इसे ?'
'तुम भी हद करती हो. इनकी और अपनी एनाटोमी में डिफ़रेंस होता है. डिस्प्रिन से हार्म हो सकता है. '
हूँ !...
---
' सुनो ! वो वहां नहीं है ! पता नहीं कहाँ गया. मैंने सब जगह ढून्ढ लिया . तुम भी न कैसी बातें करते हो ! दरवाजे खिडकियों की तो जाली बंद रहती है न !.
नहीं, किट्टू के स्कूल जाते ही बंद कर दिया था मैंने. ...
'दीदी !...
'क्या है बाई जी ?..
'ये टी. वि...
'हाँ, उसके पीछे भी सफाई कर दिया करो कभी...
'अरे, देखो तो आप ...
'वाह ! मिल गया !
मैंने उसके बॉक्स को चौकी पर जाली के पास धूप में रख दिया, और दरवाजे के उस पार चिड़ियों को दाने डाल दिए. अकेला महसूस नहीं करेगा और उड़ने की भी कोशिश करे. इन्होने कितना कहा की बाहर रख देता हूँ, उड़ जाने दो. तुमने उसको कैदी बना लिया है.
'हाँ, घर में तो फडफडा तक नहीं रहा, बाहर बिल्ली या ननकू खा जाएँगी. पता है आज सुबह मैंने डेटोल में डूबा फाहे से इसके पंख और पांव साफ़ कर इसके पांव में हल्दी का लेप लगा दिया था .'
ये काम पर निकल गए थे.
फिर तो दिन भर कभी पेलमेट पर, कभी बिस्तर, मेज पर तो कभी मेरे कंधे पर और कभी मेरी गोद में...ठीक होने लगा था. मुझे लगा मेरे पर निकल रहे हैं.
शाम को ये आये तो मैंने कहा - 'देखो, कैसे घूर घूर कर देखता है...टमक टमक ...!'
'देखता है ? कि देखती है ?'
'अरे, तुम्हे नहीं मालूम. हम फीमेल्स को देखने देखने का अंतर पता चलता है !'
'और तुम जो उस बेचारे को सुबह से छेड़ी जा रही हो ? कभी अचानक से ताली बजा कर चमका देती हो, कभी सहलाती हो..'
'चलो हटो ...
---
अगली सुबह मैंने उसे जैसे ही बाहर धूप में रखा वो डैने फैला कर उपर तार पर जा बैठा. बहुत खुश हुई मैं. देखो, देखो, वो ठीक हो गया, वो उड़ गया ! और थोड़ी ही देर में वो बाउंड्री वाल पर आ गिरा, शायद संभाल नहीं पाया. ननकू उस पर झपटती उसके पहले उसे मैं उठा लायी. वो भी आराम से मेरी पकड़ में बैठा रहा. उसका वापस आना मुझे ज्यादा अच्छा लगा या मेरा दिल इसलिए खुश था कि उसे मैंने ननकू के ग्रास बनाने से बचा लिया ? पता नहीं !
कुछ भी हो, हम दोनों में एक खुबसूरत रिश्ता कायम हो गया था. उसका मुझसे भरोसे का, और मेरा उससे लगाव का !
मगर पांचवे दिन सुबह सुबह वह ऐसा उड़ा कि फिर दिखाई ही नहीं दिया.
'देखो न ! वो चला गया ! निर्दयी कहीं का ! तुम मुस्कुरा रहे हो ?'
'खुश हूँ कि तुम्हे मेरी सुध तो आई !'...
-------------------------------- मुखर

Tuesday, October 9, 2012

- क्या तुम जिन्दा हो -
*****************
मैं कुछ सोचती नहीं
बोलती तो बिलकुल भी नहीं

जो वैज्ञानिक प्रयोगशाला में न कर सके,
आदमी घर बैठे कर गया
रोबोट से बेहतर मशीन
मुझे ठोक ठोक कर बना दिया.
टी वी, नेट, पेपर पढ़ते पढ़ते
बस जबान हिलाइए
और आपका नाश्ता टेबल पर
आपका बिजनेस सूट प्रेस
जूता पालिस
लेपटोप, डायरी,पेन, टाई
कर की चाबी समेत सब रेडी .
और तो और - आप अपनी
खीज भी निकाल सकते हैं ,
मुझे डांट मार भी सकते हैं !
मैं कुछ सोचती नहीं न,
बोलती तो बिलकुल भी नहीं !

आप कमा नहीं सकते तो क्या
दहेज़ के नाम पर
मेरे बाप से मांग सकते हैं !
बाप गर न नुकुर करे
आप मुझे घर से निकाल सकते हैं !
वैसे भी साल में पांच त्यौहार
इसीलिए तो आते हैं,
जब लड़की के घर वाले
आपके घर 'माल' पहुंचाते हैं !!

मुझे याद आया सदियों से
मुझे कही जाने वाली बात
दिमाग इस्तेमाल करना बंद करो !
बहुत चलती है तुम्हारी जुबान!
जाओ अंदर! बच्चे संभालो, रोटी सको !
लुहार सी सौ सौ चोटों ने
हजारों वर्षों में -जड़ दिया ताला !
और मैं मर गयी !
वैसे बिलकुल मर भी नहीं गयी-
बस बोलती व् सोचती नहीं !

और जब मैं बोलती भी हूँ,
थोडा सोचती भी हूँ,
तो क्या वाकई 'मैं' ही बोलती हूँ ?
या मेरे अंदर भरी हुई
'हमारी ' ही परम्पराएँ
'हमारी ' ही जरूरतें
'हमारी ' ही भाषाएँ -
शब्द रूप लेती हैं ?

कल पढ़ा था मैंने
मरने के बाद
आदमी बोलता नहीं.
मरने के बाद-
आदमी सोचता नहीं.
यकायक नजर आने लगी
मुझे चलती फिरती लाशें !
कहो दोस्त - क्या तुम जिन्दा हो ?

2.
हे - हेलो - हाँ तुम
तुम भी बहन - बेटी के घर
तीज त्यौहार नजराना पहुंचाते हो न ?
बहु, बीवी के घर से आया माल
परंपरा के नाम पर उड़ाते हो न ?
भावी घर वाले आगे पढाये,
पढना, नौकरी कराएँ तो करना
ऐसा कह कर अपनी बेटी को बहलाते हो न ?
( उस throughout goldmedalist ने RAS परीक्षाएं सिर्फ इसलिए
नहीं दी कि शादी तो राजस्थान से बहार ही होगी न ? फिर क्या करुँगी ?)
नौकरी करती हो तो
अपनी ख़ुशी के लिए
तुम्हारे पैसे से घर नहीं चलता
यह अहसास जताते हो न ?
वो तुम्हारे उम्र के लिए रखे उपवास
तुम गुटखे, मय या धुएं में
खुद का भी - उसका भी -
दिल - दिमाग - शरीर गलाते हो न ?

तुम कब सोचोगे ?
तुम कब बोलोगे?
सड़ी गली परम्पराएं
तुम कब तोड़ोगे?
कहो दोस्त - क्या तुम जिन्दा हो ?
उस दिन पढ़ा था न मैंने भी तुमने भी -
मरने के बाद...

                   मुखर .


Friday, August 31, 2012

' हिमाकत '
***********
हिमाकत देखी उसकी ?
चुनौती भी दी तो किसको?
घुप काले अंधियारे को?
 है क्या वो? एक जरा सा रुई का फाया ?
उसकी औकात क्या है ?
आधे क्षण में तो भष्म हो जाता है !
फूंक मारो तो उड़ता जाता है  !
ठीक है, तो देख लेंगे !
और शर्त क्या रखी थी उसने ?
बस एक कटोरी तेल और थोडा सा बट ?
ठीक है, आने दो आज रात !
निकालते हैं उसकी ऐंठ !
ख़ैर ! दो कोमल हाथों ने,
जिनमें खूबसूरती थी मन की
और रौशनी की लगन थी,
उस फाहे को बड़े तन्मयता से बटा .
एक दिए में कटोरी भर तेल डाल
उस बाती को टिका रखा !
सूरज के ढलते ही ,
अँधेरे की महफ़िल जमी.
रुई के फाहे के बदले रूप पर
काले  सन्नाटों का ठहाका लगता  रहा..
तभी खनक के आवाज के साथ,
झीने से आँचल में से निकले,
दो नाजुक से कोमल हाथ .
बड़ी दृढ़ता से उस बाती को बाला.
पलक झपकते ही अँधेरा गुल हुआ.
दूर तलक उम्मीद की रौशनी,
इतरा कर झिलमिला उठी !
उस उम्मीद की लौ पकडे ,
कई पतंगे इधर को उमड़ पड़े.
और रात भर उस रुई के फाये की
जीत का जश्न मनता रहा.
उधर घूंघट में कोई मुस्कुरा उठा !
                                     - मुखर.

Monday, August 20, 2012

'साजिश '
इश्क में  हम  चुप ही रहे,
अक्ल से था काम लिया,
नाम तेरा लिख कर रेत पर
लहरों के था नाम किया!

हम चुप थे हाय मगर 
लहरों ही ने घात किया ,
समंदर से कहती थी लहर
सूरज ने जिस पर कान धरा
करता रहा वह मेघों को खबर !
गिरी जो दो बूंद -
इश्क की सौंधी खुशबू से
महक उठ्ठी फिर मिटटी !

मन की मुठ्ठी में जो
रखा अब तक कैद था
वो मुस्क आज चहुँओर था !
मेघ घनघोर घुमड़ घुमड़
समंदरी  साजिश का शोर था
बूंद बूंद फिर धरती के कानो
नाम तेरा रिसता रहा.
बिखेर  रहा  था अम्बर प्रेम मोती
मन मेरा क्यों मयूर था ?

इश्क में हम तो चुप ही थे
अक्ल से था काम लिया ,
रेत पर छुपा कर जो लिखा था
लहरों ने वो चर्चा यों आम किया...
                                       - मुखर.

Tuesday, July 31, 2012

'अबकी  सावन '
न  मेघ, न मल्हार,
न फुहारों की ताल,
अबकी  सावन
खाली हाथ आया !
क्यों नहीं गौरैया
मिटटी में नहाती है ?
कौन सा टोटका करूँ,
जिससे बारिश आती है !
वह जाते जाते
ड्योढ़ी पर ठिठक गया
और मेघों का काफिला
क्षितिज  पर अटक गया.
मूंह  पर छींटे  मार
मुझे  चिढाया , सताया !
निर्दयी वहीँ  खड़ा खड़ा
मुझ पर हंस रहा !
मैं धरती की संतान,
मन में आस का गुबार,
और आँखों में पानी लिए,
उसका हाथ थाम लेती हूँ !
मेरे पहुना,
मेरे मन भवन
मेरे सावन
न जाओ
दिखाने के लिए ही
अगर जाना है, तो जाओ
मगर कसम  है  तुम्हे
नाम  बदल  कर ही
भादो  बन कर ही
वापस आ  जाओ !
मैं उसे मना  रही हूँ
भादो बन कर आना  !
देखो , खाली हाथ न आना
खूब खूब अमृत लाना
रिमझिम  प्यार  बरसना !
सुनो - धरती दरक  रही,
फसल  सूख  रही,
दिलों  से  उमीदों की
सांस  उखड  रही,
क्योंकि  अबकी   सावन
खाली हाथ आया.
                    - मुखर

Friday, July 27, 2012

"मेरा तोहफा? - 'स्त्री-मान'"
सावन का महिना है. भले ही इस बार सावन सूखा सूखा है. मगर लहरिया पहिने हर महिला रिम झिम फुहार सी चंचल हो चली है. सबका एक ही नाम हुआ जाता है - 'बहन' ! दौड़ लगी है बाज़ार में झम झम. दुकाने भी सज धज गयी है चमाचम्. खुशदिल माहौल है . आने वाली पूनम को राखी जो है भई ! मैं भी आँखें मूँद कर उस पावन दिन की रौनक में खो जाना चाहती हूँ... बागों में, बाज़ारों में, घरों में गलियों सडकों पे सिनेमा हॉल में जहाँ देखो वहां कोई मरदाना कलाई सूनी नहीं है आज. सभी किसी न किसी के गर्विले भाई हैं. सबके पेशानी पर बहन के हाथ का सजा तिलक लहक रहा है. चेहरे का तेज बता रहा है की वे अपनी बहन के मान सम्मान के ताउम्र रक्षक हैं. तभी ख़याल कौंध जाता है पिछले वर्ष में अखबार में छपी इतनी ख़बरों में अपने देश कि स्त्रियों पर होते अत्याचार करने वाले कौन मर्द थे ? कि किसी गैर स्त्री को देख कर इन्ही मर्दों के अंदर का वो तेज, वो गर्व, वो रक्षक वो भाई क्या मर जाता है ? या डरावना हो जाता है या डरपोक हो जाता है ? - एक बहन ( मगर एक स्त्री पहले)

Sunday, July 15, 2012

काला – सफ़ेद

काला – सफ़ेद
चले  जाओ  यहाँ  से ,
 वरना  मुंह   काला  कर देंगे !
 (TO WOMEN JOURNALISTS, AT A SEMINAR)
हमारा  काला  करोगे  तो ,
 तुम्हारा  क्या  सफ़ेद  रह  जायेगा ?

क्यों  उनका  काला  भी 
समाज  को  काला  नज़र  नहीं  आता ?
और  इनका  झक्क  सफ़ेद  भी 
दागदार  दीखता  है !
शूली  पर  चढ़ता  है ?
क्यों  रेल  इंजिन से ,
 कट  के  मरने  वाली  लड़की ,
आगे  आगे  भाग  रही  थी ,
और  पीछे  चार  लड़के ?
 (5th February ’12-jaipur)
क्या , कैसा , किसका  डर  था 
 उसके  मन  में ?
और  उनके  दिल  दरिन्दे ?
भाग  के  उसने  क्या  बचा  लिया ,
क्या  गवां   दिया ?
जिंदगी  क्यों  इतनी  बेमानी  हो  गयी ?

वो  जब  बच्ची  थी
बड़ों  ने  कहा , परायों  पास  न  जाना 
हर किसी  से  बात  नहीं  करना .
वह  परायों  से  सहमने  लगी .
वक़्त  के  साथ  प्रश्न  उठने  लगे -
किसका  फ़ोन  था ?
क्यों  आया  था ?
 वो  कौन  था ?
सही  नहीं  है  जमाना ,
और  तुम  भोली !
धीरे  धीरे 
उसका  मिश्री  सा  मीठा  मन
करेला -नीम  हो  गया !!
हर  मुश्कुराहट को  अब ,
शक्की  नज़रों  से  देखती  है .
हर  मुलाकात  को ,
साजिस  समझती  है !
सब  अनजाने  उसे ,
दरिन्दे  लगते  हैं ,
हर  आँख  में  वह ,
वहशियत  पढ़ती  है  !!

वो  भी  जब  बच्चा  था
‘तू  तो  लड़का  है ’
का  दंभ  लेता  गया .
हर  घटना , कहानी , किस्सा 
‘तेरा  कुछ  नहीं  बिगड़ता ’
उसको  कहता  गया !
ले  जिंदगी  के  'मजे' .
तेरे  लिए  ‘सब ’ जायज  है !
धुआं , दारू  और  'दिल'  का ,
जो  ‘कारनामे ’ करते  हैं ,
वही  ‘मर्द ’ कहाते  हैं .
बाज़ार  में  बिकता  हुस्न ,
अब  बाएं  हाथ  का  खेल ,
 चाहे  देख  लो टीवी ,
ढूँढो   नेट  पे ,
या  टटोलो  अपने  सेल !

नतीजा  क्या  हुआ ?
सुनसान  राहों में ...
रात  के  अँधेरे  में ...
या  फिर  अकेले  में. ..
वो  भेड़िया  बन  जाता  है !
वो  बकरी  सी  मिमियाती  है  !
क्यों ? आखिर  क्यों ?
जुर्म  वो  करता  है ,
सजा  वो  पाती  है ?
एक  उसी  कर्म  से ,
वो  'मजे ' लेता  है !
मुस्कुराता है,
जिंदगी  की  ख़ुशी  कहता  है !
वो  लांछन  पाती  है !
और  जान  गंवाती  है  !!
क्या  दोनों  ने  नहीं  खोया ?
ये  इसके  उसके  दिमाग  में
समाज  ने  कैसा  बीज  बोया ?
 
ये  दो  आयाम ,
द्वि अर्थी  संस्कार ,
कब , किसने , कैसे  बनाये ?
और  कैसे  जन  जन  की  आत्मा  में ,
इन्हें  इस  कदर  है  बसाये ?
एक  अनकहा   कानून ,
वो  अँधा  कानून ,
समाज  को  रौंद  रहा !
धरे  हाथ  पे  हाथ ,
खड़ा  मौन  मानव  रहा  !!

क्या  जो  लड़की  ख़ुदकुशी  कर गयी ,
उसका  भाई  आज  खुश  है  ?
उसका  पिता  आनंदित  है  ??
क्या  उसके  परिवार  में  कोई  पुरुष 
इस  दर्द  को  बिसरा  सकेगा ?
चाहे  पुरुष  हो  या  महिला 
उस  घर  हर  एक  दिल  में 
एक  अँधा  कुआँ  खुद  गया …
और  हमेशा  के  लिए
 वक़्त  जैसे  रुक  गया …

वो  खूबसूरत  दुनिया ,
वो  नादान  बचपन ,
जाने  कहाँ  खो  गया !
युवा  का  जहां ,
दो  हिस्सों  में  हो  गया !!

वो  बचाए  छिपती  है ,
वो  ढूढता  फिरता  है .
जाने  क्या  बेचती  है ?,
जाने  क्या  खरीदता  है !!
क्या  दोनों  नहीं  पाते?
या  दोनों  नहीं  खोते ?

फेरों  से  पहले  जो  खेल ,
उसे  ले  डूबता  है .
पहली  रात  के  बाद ,
वो  लजाई  आँखों  से ,
गुलाबी  गालों  से ,
सबको  बयां  होता  है !
तब  आखिर  क्या  खोया  था ?
अब  आखिर  क्या  मिल  गया ?

वो  जब  बड़े  हो  रहे  थे ,
काश  ऐसा  होता ,
न  उन्हें  गुमान  होता ,
कि   वह  ‘लड़की ’ है ,
कि  वह  ‘लड़का ’,
इस  जहां  में ,
बस  इंसान  बसता .
शायद  फिर ,
वो  हर  लड़के  में ,
सच्चे  प्यार  को  पाती ,
वो  हर  लड़की  को ,
मान , बहन , बेटी  या  दोस्त ,
कह  कर  आदर  देता .

न  कोई  लूटता , न  लुटता 
 हर  सफ़ेद , हर  काले  में .
बराबर  के  भागी  होते .
काश  के  हम 
थोड़े  ‘सामाजिक  ’ होते  !!
                           - मुखर

Monday, July 2, 2012


    " खिड़की"

बंद  कमरे और मोटे मोटे परदे  पड़े खिड़की से मन घबरा गया था . मैं उकता गयी  थी . कूलर भी तो न बस! राहत देने का तो नाम नहीं और शोर इतना की पूछो मत...सर दर्द हो जाये...ये गर्मियों की दोपहरी भी तो जाने कितनी लम्बी होती है ! कोई आखिर कितना टी.वि देखे, मैगजीन पढ़े ? किट्टू भी तो बस चाची के यहाँ क्या गया आने का नाम ही नहीं. मैं भी तो इनकी बातों में आ कर कुछ प्लान नहीं कर पाती. अगली बार तो कसम है मुझे जो इनकी झूठी वादों में आई ! पता नहीं ये गर्मी, पसीना, शोर है या अकेलापन...आखिर क्या अखर रहा है मुझे ?
कूलर ऑफ कर पार्क की और खुलने वाली खिड़की खोल ली | देखा, पेड़ो पर से नीचे उतर आई हरियाली पीली पड़ पृथ्वी पर पसरी पड़ी थी | दोपहरी की आषाढ़ी धूप से धूज कर जीवन हलचल कहीं दुबकी हुई थी...सांय सांय साँस लेता था सन्नाटा | बस किसी टिटहरी की उन्हुहूँ उन्हुहूँ  या तो दूर चलते कमठे की ठक ठक |
जिस चिलचिलाती धुप में चिड़िया भी पर न मरती हो...कुल्फी वाले को सड़क नापते देख उसके टन- टन के साथ एक गीत जहन में उभरा - तुझको चलना होगा...

देखते ही देखते या यूँ कहें सुनते ही सुनते  धुन बदल गयी | कमठे पर पत्थर तोड़ते और रेत की ढेरी पर खेलते उनके कुछ अधनंगे से बच्चे कुल्फी वाले को घेर कोलाहल करने लगे...
तभी कहीं कोई कोयल कूक उठी | जीवन के कानों में अमरस घोल गयी | आसमान में होड़ लेते थे सूरज से दो चटकीले चोकोर | पसीने से तर किशोरों के बदन को कभी गर्मी लू लगी है ?
ध्यान से देखा दूर नीम के दरख़्त के पीछे बेंच पर दो जोड़ी हाथ एक दुसरे को थामे कॉलेज की क्लास बंक कर रहे थे !
कौन है देखने की जिज्ञासा में मैं पार्क में खुलती अपनी खिड़की पर कुछ ज्यादा ही झुक गयी थी की एक मोटी सी बूँद मेरे नाक पर पड़ी | झरोखे पर बैठे किसी कबूतर की आशंका कर अभी इधर उधर
नजर दौडाई ही थी कि कुछ और बूंदे आस पास गिरी और सौंधी सी महक उठी. मेरा मन मयूर भी नाच उठा. कलेंडर देख ही रही थी कि फोन कि घंटी बज उठी - 'मम्मी, शाम कि बस से घर पहुँच रहा हूँ, बस स्टैंड - पुराणी चुंगी पर लेने आ जाना. '
'हेलो, कहाँ बीजी रहता है तुम्हारा फ़ोन? '

"तुम भी कमाल करते हो, किट्टू से बात कर रही थी और कहाँ बीजी हो सकती हूँ . तुम बोलो क्या बोल रहे थे ? '
' हाँ, मैं भी वही कह रहा था | किट्टू के स्कूल से फोन आया था. छुट्टियाँ बढ़ गयी हैं | सामान पैक कर लेना, ३-4 दिन रणथम्बोर  चल के आते हैं. बुकिंग करा ली है मैंने. "
केलेंडर में देखा - तीन दिन बाद सावन लग रहा है...टप .. टप ..टिप.. टिप ....

Saturday, May 19, 2012

“यों ही बस आँख लग गयी थी …”

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नॉएडा  में  फिर  दुराचार  
कल  देर  रात  डिस्को  से  लौटते  हुए  अपने  एक  दोस्त  से  5 लड़कियों  ने  सामूहिक  दुराचार   किया . और  छत - विछत  हाल  में  द्वारका  से  दूर  एक  पार्क  के  पीछे  बेहोशी  की  हालत  में  पटक  गये . सुबह  सैर  पर  आये  लोगों  ने  पुलिस   को  इत्तिला  दी . छान  बीन  में  पाया  गया  की  वह  लड़का  उन  लड़कियों  का  कॉलेज  फ्रेंड  था  और  डिस्को  में  दोस्तों  के  साथ  शराब  भी  पी  थी . पुलिस  ने  माता - पिता  को  हिदायत  देते  हुए  उसे  घर  ले  जाने  को  कहा  की  अपने  लड़के  को  संभाले , यों  देर  रात  घर  से  बहार  निकलना  अच्छी बात  नहीं . जब  हमारे  संवादाता  ने  पूछा  की  जांच  कहाँ  तक  पहुंची , पुलिस  महानिदेशक  ने  कहा  की  हमने  लड़के  के  बारे  में  पता  किया  है . कालोनी  वाले  कहते  हैं  की  वह  अकसर  बनियान  में  बालकोनी  में  खड़ा  दिखता  था . आस  पास  मार्केट  भी  अकसर बरमूडा  या  शोट्स  में  ही  निकल  जाता  था . अब  ऐसे  कपडे  लड़के  पहनेंगे  तो  ऐसी  ही  घटनाएं  होंगी . हम  तो  कालेजो  में  निर्देश  जारी  करने  वाले  हैं . कोई  भी  लड़का जींस टी -शर्ट  में  नहीं  आये . टाइट कपडे  पहन  कर  अपने  6-8 abs दिखायेंगे  तो  और  क्या  आशा  करते  हैं  क्या  होगा ? (महानिदेशक सा'ब के टन से लग रहा था की संवाददाता को ही दन्त रहे हैं. संवाददाता ने नोटिस किया उसने जींस पहनी हुई थी!!
Uniform  पहनना  ही  सही  है . कुरता  पजामा  या  फिर  ज्यादा  से  ज्यादा  धोती . सर  पे  भी  टोपी  compulsory  कर देना  चाहिए . जिसे  देखो  वोही  जस्टिन बीबर  बना  फिरता  है .
संवादाता  द्वारा  सिक्यूरिटी  पर  लिए  गए  कदम  पर पूछने  उन्होंने  कहा  ‘अब  हम  देखेंगे की  किसी  भी  डिस्को  थेक या  बार  में  रात  9 बजे  के  बाद  कोई  लड़का  न  तो  जॉब  करे  न  ही  डांस  पार्टी  में  involve   हो . थोड़े  से  पैसों  के  लिए  अपने  इज्ज़त  और  जान  से  खिलवाड़  करने  का  क्या  औचित्य ?  बर्थ डे  पार्टी  वगरह  के  लिए  पिता  अपने  बच्चों  के  लिए  दिन  के  समय  या  अपने  घर  में  पार्टी  आयोजित  कर  सकते  हैं .
आज  कल  ये  जो  rash driving   हो  रही  है  उसके  बारे  में  आप  क्या  कहेंगे . ‘ आज  कल  माएं  अपनी  बच्चियों  को  कम  उम्र  ही  में  car दे  देती  हैं . हालाँकि  हमने  जब  भी  ट्राफिक   नियम  में  उन्हें  पकड़ा  है , मोटी  रकम  ली  है  चालान  में . मगर  पिता  माता  का  भी  तो  फर्ज  बनता  है  न  की  बच्चों  की  जिद  समय  से  पहले  न  पूरी  करें . नियम  कानून  का  ध्यान  रखे . काली  फिल्म  चढ़ी  कार  drive  करती  लड़कियों  द्वारा  जुर्म  करने  के  वारदातें  बढ़  गयी  हैं . सही  तो  यही  होगा  की  समाज  और  खास  कर  पिता  अपने  लडको  को  संस्कार  दे . यों  देर  रात  लड़कियों  संग  घूमना , डिस्को  जाना  और  शराब  पीना , डोले  शोले  दिखाते उकसाने वाले कपडे  पहनना  कोई  अच्छी  बात  थोड़े  ही  है ?
पुलिस  का  कहना  है  की  security तो  लगभग  अच्छी  ही  है . बस  हादसे में शिकार लड़के  के  चरित्र  पर  ऊँगली  उठ  रही  है .  वो  लडकियां  कौन  थी  उसका  अभी तक  कोई  सुराग  नहीं  मिल  पाया  है . कालोनी  वासी  कहते  हैं  की  ऐसी  वारदातों  से  वे  दहशत  में  जीने  को  मजबूर  हैं . शराब , cigarette  गुटखा  दुकानों  को  अब  सार्वजनिक  स्थानों  से  दूर  और   पास ही  अब  मर्द  पुलिस की गस्त  लगाने  की  मांग  उठ  रही  है . colleges और  call centers पर  दबाव  है  की  लड़कों  के  लिए  अलग  से  परिवहन  की  व्यवस्था  की  जाये . यहाँ  तक  की  लड़कों  की  night  शिफ्ट  न  लगाने  की  मांग  भी  उठी  है .
सवाल  ये  है  की  क्या  पूरे  कपडे  पहनने मात्र  से  या  मर्द  पुलिस  लगाने  से  ये  दुर्घटनाएं  ख़त्म  हो  जाएँगी ? पुरुष  आयोग  के  अध्यक्ष  का  कहना  है  की  ये  सब  समाज  और  पुलिस  व  सरकार अपने  कर्तव्यों  से  पल्ला  झाड़ने  का  सस्ता  रास्ता  ढून्ढ  रहे  हैं . समाज  को  अपना  नजरिया  बदलना  होगा . लड़कों  को  भी  अपनी  आजादी  अच्छी  लगती  है . आखिर  कब  तक  यह  आधी  दुनिया  घुट  घुट  कर  जीती  रहेगी ?.....
अरे उठो भी, चाय ठंडी हो रही है. तुम भी क्या अखबार पढ़ते पढ़ते सो जाती हो !....
ओह्ह ! तो मैं नींद में भी अखबार ही पढ़ रही थी???

Friday, May 11, 2012


      " उड़ गयी गौरैया  "

मैं किताब ले कर खिड़की पर आ कर बैठी ही थी की किसी के रोने की आवाज सुन चौंक गयी. बाहर वो दोनों बैठी शायद सुख दुःख बाँट रही थी. ये औरतें भी न जब देखो दुखड़ा ले कर बैठ जाती हैं...
"हुआ क्या ? बता तो ! रो रो कर जी हलकान किये हुए है, चोंच भी खोलेगी कि नहीं."
 "अब क्या बताऊँ बहना, आज की बात तो है नहीं, कहानी लम्बी है -

 बहार छाई थी...शहर फूलों की वादी हो गया था और चाहत का मौसम शबाब पर था. उसने मुझे इतने प्यार से देखा की मैं दिल हार बैठी."
उनकी बातें मुझे अच्छी लग रही थी. किताब बंद कर कोफ़ी ले आई और कान लगा कर बैठ गयी सुनने उनकी राम कहानी. आगे -
"फिर तो जैसे जिंदगी जश्न हो गयी...हम दोनों बहुत खुश थे...धरती पर पाओं ही नहीं पड़ते थे...सारा सारा दिन आकश नापते फिरते थे...बस चहकते ही रहते  थे. इश्वर का आशीर्वाद था की मेरे पैर भारी हुए. हमारे खुशियों के जैसे पर निकल आये..."
अब तक की कहानी सुन मेरे होठों पर मुस्कान तैरने  लगी थी. कितनी रूमानी थी न...
"अब घरौंदा के लिए हमने अच्छी सी जगह देखना शुरू किया. इधर देखा उधर देखा. दिन दिन भर मेहनत करते. पेड़ जो अब कम ही हैं. जो हैं वो उतने हरे भरे नहीं है. जो थोड़ी सी शाखाएं दिखती हैं वो धूप आंधी व् दुश्मनों की निगाह से सुरक्षित नहीं है."
मुझे बहुत गुस्सा आया हम मानवों पर . न खुद सुरक्षित रहेंगे न पर्यावरण को ही रहने देंगे. और इन मासूम बेजुबानो की तो कोई सोचता ही नहीं...
 "ख़ैर, हमने एक जगह ढून्ढ ही ली. इस घर के ऐ सी के डब्बे के पीछे घोंसला बना शुरू किया."
मेरा दिल धडका...
"पर  हर तीन चार दिन में सारे तिनके बिखरे मिलते. सहारा ही न था वहां ठीक से. पर चिड़ा है न बड़ा समझदार. बड़े करीने से किसी तरह घोंसला बना ही था कि फिर बिखरा मिला. मैंने एक दिन देखा इस घर में रहने वाली ही ने बनने से पहले ही उजाड़ दिया था मेरा घर. मैंने कितनी ही कोशिश की उड़ उड़ कर उसके आस पास कि उसे कुछ समझ आये कुछ दया ही आये. मगर जैसे वो अंधी ही थी. इधर मेरे दिन पूरे हो रहे थे."
अब तक जैसे मुझे लकवा मार गया था. मेरे चहरे पर हवाईयां उड़ रही थी...
" कुछ चिंता की वजह से कुछ मौसम के बदलाव से मैंने अंडे समय से पहले ही दे दिए. वही ऐ सी के पीछे दिए, क्या करती ? और कोई चारा भी तो न था ! बहुत प्रार्थना की थी मैंने प्रभु से हमारी और इन अजन्मे मासूमों की रक्षा के लिए. मगर कल रात आई आंधी में उजड़ गया मेरा घरोंदा."
"पर मैंने तो देखा है इसे फेसबुक पर 'चिड़िया बचाओ' गौरईया बचाओ' के पोस्ट डालते हुए. और बहुत से 'लाईक्स' कमेंट्स लेते देते हुए. ये ऐसा कैसे कर सकती है?"
"हाँ, इसने घर के बहार परिंडा भी बाँधा...रोज दाना पानी भी देती है...पर घोंसला भी तो चाहिए होता है न? हमारे लिए न सही, कम से कम होने वाले चूजों के बारे में तो सोचती!! सिर्फ फेसबुक पर अभियान चलाने  से तो कुछ नहीं होगा न."
मेरे कान फटे जा रहे थे. आंसू की अविरल धारा बही जा रही थी. मैं घोर दोष में दबी जा रही थी...क्या करती ! अब तो मेरे हाथों से तोते ही नहीं गौरैयां भी उड़ चुकी थी...                                                                मुखर.

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Thursday, April 26, 2012

"दंभ - The Attitude"
पड़ोस में एक new family आई है.
Thank God, इस बार वाले,
थोड़े standard के हैं.
वो housewife है, पर
Graduate तो लगती है !
एक अच्छी बात और है,
दो छोटे छोटे kids से
घर उनका गुलजार है.
(मुझे दूसरों के बच्चे
अच्छे लगते हैं.
अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं ,
और innocent acts ,
तोतली बोली भी,
देखने सुनाने को मिलती है.)

सासु माँ साथ रहती है...
बहु बेचारी, दिन दिन भर,
बच्चों और इनके लिए ही,
Busy busy सी फिरती है.
बाहर कम ही दिखती है.
Tipical ! Very Tipical !!

Dresses की choice भी बस्स्स ...
Jeans - Capries में कम ही देखा है.
हमेशा सूट में ही दिखती है.
रात में gawn पहनती है.

I made it a point -
की मुझे car drive करते हुए,
Park करते हुए,
'Mod ' कपड़ों में घुमते हुए,
और goggles उतारते हुए,
Phone पे English बोलते हुए,
सास बहु notice तो करती हैं?

संक्रांति पे उन्होंने
घर के बने  हुए,
तिल के लड्डू मुझे दिए,
I felt odd !
पर मैं समझदार हूँ,
Humbly recieve किये.
साथ में add किया-
" Kitchen में मुझे
कम ही interest है"
(OMG ! कहीं मुझसे भी
Expect न करने लग जाएँ!
और ये सिलसिला
आगे बढ़ जाये !!)

मुझे वो नाम से नहीं,
'भाभीजी' बुलाती है,
ऐसा कहते ही मुझे,
'बहनजी' feel कराती है !

आज सुबह देखा,
बाहरधुप में बैठी,
सासु तोड़ रही थी मैथी,
और नीचे बैठ कर बहु,
उनके पाँव पर
तेल मालिश कर रही थी.

मेरी आँखे झुक गयी.
जाने किस गुमान में,
मैं जी रही थी?
कैसी कैसी बातों में
'उसे-मुझे' तौल रही थी?
और मुझे realise हुआ,
No doubt , उसका standard
मुझसे कहीं ऊंचा है!

अपने profession से मैं अब,
थोडा समय बचाऊँगी,
अपनी नयी पड़ोसन से,
थोडा मेल-जोल बढ़ाउंगी .
कुछ ऐसा मैंने सोचा है !
                      - मुखर

Friday, February 17, 2012

Love In The Air..

"लव इन द एयर "
सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार ले बैठी थी की पढ़ा 'लव इन द एयर' . मन ही मन बुदबुदाई की अब क्या हो गया?  प्यार हवा हो गया ? वो तो कब का हो गया जी !  करियर oriented  माँ बाप को बच्चों  के लिए वक़्त नहीं.  बूढ़े हो गए माँ बाप के लिए बच्चों के पास 'टाइम' नहीं.  प्यार क्या ख़ाक खा कर सीखेंगे? बस हवा में ही हाथ चलते हैं...
फिर सोचा मैं नींद में तो नहीं...ध्यान से फिर पढ़ा . उसमे लिखा था - 'लव इन द एयर'.  हाँ, सही ही कहा - लव इज एज  थिन एज  एयर. बेचारा malnutritious  हो गया. आज कल कि हवा ही कुछ ऐसी है कि कच्ची उम्र ही में लग जाता है नमक इश्क का ...और इस उम्र में ज्यादा नमक हड्डियों को गला देती है...और फिर बिना अनुभव की आंच दिए कच्चा पक्का ही परोस दिया जाता है ये इश्क...बच्चों में सब्र भी तो नहीं...फिर इश्क ही को कहाँ मालूम सब्र? ...लेने वाला भी contaminate हो जाता है, इम्मुनिटी कहाँ इतनी स्ट्रोंग है इन बच्चों कि? फिर मुझे लगा, मैं चालीसी के पहले ही में सठिया रही हूँ , बिना ठीक से पढ़े ही मिमिया रही हूँ...और काहे को भला इस विदेशी भाषा कि टांग तोड़ रही हूँ ..आयातीत  त्यौहार है ...इम्पोर्टेड है...एलोपेथी ही कि तरह चुटकी ही में असर करती होगी...चश्मे के बगैर कुछ सूझता भी तो नहीं. हो सकता है  एयर में वाकई लव हो...ये कहानी तो अब हमसे आधी उम्र वालों को belong करती है. अब हमे इस प्रोढ़ अवस्था में  प्यार -व्यार तो क्या ही सूझेगा...सुहानी बसंती हवा तक तो हड्डियों को कंपा जाती है...और भरोसा नहीं इम्पोर्टेड चीज के कुछ साइड इफेक्ट्स  हुए तो? सोचते सोचते अभी  पन्ना पलटा ही था पढ़ कर एकदम सन्न ही रह गए ..हाथों से चाय पेपर ही पे छलक गयी...किसी ने अपने 'लव' को लटका दिया था...हवा में...
मेरी ये हालत देख कर मेरे लव ने कहा क्यों सुबह सुबह इस नामुराद अख़बार में सर खपाती हो, लो मैं तुम्हारे लिए एक और चाय बना लता हूँ.  साहब तो गए किचन में , और मैं बगीचे में फूलों और चिड़ियों की चहचहाहट के बीच वाकई  'लव इज इन द एयर' महसूस करती हूँ ...
पड़ोस की मिसेज वर्मा से कहा,-कितना सुहाना मौसम है न बसंत का, आपका valentine कहाँ है ? उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया - मैंने तो बीरबल की खिचड़ी की तरह अपने लव को दूर हवा में लटका रखा है, और दूर से आती भीनी भीनी महक से ही खुश हूँ...is love still in the air? or gone with the wind?

Saturday, February 11, 2012

"अबला"



 - ५ फरवरी २०१२- जयपुर, एक लड़की रेल से कट कर मर गयी. वह आगे आगे भाग रही थी और चार लड़के पीछे थे....
  "अबला"
अच्छा हुआ वह मर गयी,
क्योंकि अगर,
वो आज नहीं मरती,
तो रोज रोज ही मरती,
पल पल मरती,
तिल तिल मरती,
अपनों के 'हाथो' मरती,
रिश्तो के 'हाथो' मरती,
अपने खुद के मूल्यों,
संस्कारों के हाथो मरती.

किसने बनाये ये मूल्य?

किसने दिए ये संस्कार?
ये कौन 'अपने' हैं?
ये कैसे 'रिश्ते' हैं?
किस जुर्म की सजा मिली?

और आखिर क्यों?

क्योंकि वो स्त्री है?

सच कहते है वो-

की स्त्री अबला है!
की स्त्री मूर्खा है!!
गर अबला न होती,
गर मूर्खा न होती,
क्यों ढोती झूठे मूल्य,
क्यों ओढती 'कू' संस्कार  ?

क्यों वो अपनी बेटी को,

सिखा पढ़ा कर,
'चरित्र' का पाठ,
गढ़ देती है एक
कांच की गुडिया ,
जो उठी एक ऊँगली भी
तोडना तो दिगर,
सह भी नहीं पाती,
और समाज की बेदी पर
हो जाती है होम...


वो तो चली गयी,

रोज ही जाती है,
कितनी ही जाती हैं,
पर स्त्री के आँचल में अब भी,
झूठे मूल्य, झूठे संस्कार,
 कौन कितने 'अपने' हैं
ये  कैसे  'रिश्तेदार',
और बेदर्द समाज,
एक बोझ बने पड़े हैं
एक प्रश्न बने खड़े हैं !

हाँ स्त्री मूर्खा है !

हाँ, स्त्री अबला है!!

                  - मुखर