Tuesday, February 15, 2022

"जड़ कौन ?"

कितनी अजीब बात है ना !
मैं जिस मिट्टी में पैदा हुआ हूं ,
उसी में पैदा हुए मेरे पिता,
और उनके भी पिता ...
इस मिट्टी को गूंधने ,
अलग अलग दिशाओं से,
अलग अलग घरों से,
आती रही हैं स्त्रियां ,
मिल जाती हैं इसी में !
खो कर अपना अस्तित्व,
देती रही हैं आकार हमें, 
सींचती रहीं हैं ,
लहू, पसीने, गुणसूत्रों से !
इसी मिट्टी में उग कर स्त्रियां,
जाती रही छोड़ कर सब कुछ,
अलग अलग दिशाओं में,
अलग अलग घरों को ! 
युगों युगों से 
घूम रही है स्त्री,
घूम रही है पृथ्वी ,
और मैं ? 
अपनी वंशावली लिए ,
खड़ा हूं वहीं,
युगों युगों से !
कितनी अजीब बात है ना !


- कविता  मुखर 
12/10/2020

Thursday, January 13, 2022

"ड्राइवर"


" ड्राइवर "  लघुकथा 


नीलू की आज पुरानी सखी सोनी सपरिवार मिलने आई थी। चाय नाश्ते पर हल्की फुल्की बातें चल रही थी।

"टिंकू नहीं दिख रहा ?" सोनी ने मठरी खाते हुए पूछा ।

"बेटू की ऑनलाइन क्लास चल रही है। खत्म होने को है !"

तभी भीतर कमरे में से बेटू की आवाज़ आई, "शिशुपाल !" ऑनलाइन क्लास में शिक्षिका महाभारत का कोई प्रसंग प्रश्नोत्तरी से समेट रही थी।


"तू बता ! बड़े समय बाद निकाली फुरसत घर आने की , हैं ? " नीलू ने  मीठा उलाहना दिया ।


"क्या करूं यार ये मुई नौकरी न जीने देती है ना मरने । अच्छा है जो तू इन पचड़ों से दूर है।" कहते हुए सोनी ने तिरछी निगाहें अपने पति पर डाली। 

कुछ ताड़ते हुए नीलू ने बात संभाली, "तेरी दो टकिए की नौकरी में ..." और बैठक ठहाकों से गूंज गया । 

"चलो चलो ! रिवर फ्रंट चलते हैं घूमने ! " सोनी चहकी। 

"बस ड्राइवर बनाए ले चलती हो हमें हर कहीं !" उसके अर्धाँग ने जुबां खोली।

"अरे भई ऐसी भी क्या बात है ! मैं तो ड्राइविंग बहुत एंजॉय करती हूं !" नीलू ने फिर बात संभाली।

सोनी ने नम आंखों से सहेली को बताया कि उसकी जिंदगी ही ड्राइवरी करते गुजर रही है। स्कूल से लौट घर में कदम रखने से पहले ही अस्पताल, बाज़ार, मन्दिर जाने की तैयारी रहती है किसी न किसी की। 

नीलू चाय और नाश्ते की ट्रे उठा रसोई की ओर मुड़ी। सोनी साथ साथ हो ली। उसने नीलू से मन की बात सांझा की , "संयुक्त परिवार में रह कर परिवार की देखभाल और नौकरी की दोहरी जिम्मेदारी तो खुशी खुशी कोई निभा भी ले। लेकिन ये ताने, उफ्फ ! मेरी सैलरी भी पारिवारिक जरूरतों में कहां खप जाती है पता ही नहीं चलता।" 

अब तक बेटा लैपटॉप बंद कर बाहर कमरे में आ गया था।

  नीलू खाने की तैयारी कर ही रही थी कि सोनी ने टोक दिया। 

"सुन ना ! खाना बाहर ही खा आयेंगे ! वहीं चौपाटी पर !"  

"चौपाटी ! मैं तो कब से सोच रही थी !" नीलू उत्साहित हो गई। "बेटू ! कपड़े मत बदलना ! मुंह धो कर कंघी कर लो और जूते पहन लो। अपन चौपाटी चल रहे हैं!" नीलू ने जल्दी जल्दी पर्स और दुपट्टा उठाया।

चलने की तैयारी में दोनों आदमी भी उठ खड़े हुए। सोनी के पति ने फिर एक खोखला सा चुटकुला सुनाने के अंदाज़ में जुबां खोली, "हमको एटीएम बना ले चलोगी !" दोनों मर्द फिर हंस दिए । सोनी तिलमिला गई।

नीलू और सोनी की निगाहें टकराईं ! 

सोनी से रहा नहीं गया, "आप बेटू के साथ बच्चियों की तरह बस मेला एंजॉय करना ! ड्राइविंग भी हम कर लेंगे और एटीएम भी मैं अपना ही निकालूंगी !" उसने आखिर मन की भड़ास निकाल ही दी।

ठीक इसी समय तैयार हो बेटू अपनी उंगली छत की ओर उठाए बैठक में प्रवेश किया,  "और कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चलाया!"

आज कार की फ्रंट दोनों सीट पर स्त्रियां बैठी थीं। दोनों के पतियों को बेटू संग पीछे बैठना पड़ा । 

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कविता "मुखर", जयपुर

13/1/22 को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित