घर परिवार मोहल्ले में लड्डू बंटे . वह सोच रहा था कि कोई इतनी बड़ी भी
नौकरी नहीं लगी है उसकी ! शायद सरकारी नौकरी मिल गई है इसीलिए बधाइयों का ताँता
लगा है . तभी उसके कानों में पड़ा ,”ऊँचें पद को क्या चाटना है भाईसाहब ? मलाईदार
है न ? बस !” पापा के दफ्तर से आये शुक्ला अंकल पापा को कह रहे थे. माँ को भी सभी
पड़ोसिनें घेरे बधाइयाँ दे रहीं थीं – “अब बरसेगी लक्ष्मी घर में ! दिन फिर गए आपके
तो !” उन सबकी हँसी में कुछ था कि वह खुद को सँभालने लगा .
बचपन से दादी नानी से सुनते आया कहानियों का असर था या दादा के संग
बिताये समय का या फिर बुआ के द्वारा उपहार में प्राप्त चित्रकथा पत्रिकाओं से मिले
मूल्य थे या फिर हो न हो मानव नैसर्गिक रूप से ही सच्चा और इमानदार होता हो कि
सत्रह वर्षीय रमेश का लहू समाज, देश और व्यवस्था को सुधारने का जोश रखता था. हो
सकता है यह उम्र ही उबालें खाती है . मगर रमेश ने जैसे ठान ही लिया और राह भी
निकाल लिया कि पुलिस में भरती होऊंगा और कभी रिश्वत नहीं लूँगा . भले ही फिर
दुश्वारियों में ज़िन्दगी गुजरे . एश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीने की लालसा भ्रष्टाचार
और रिश्वतखोरी की जड़ है. उच्च विचार रखने वालों की मेहनत और लगन रंग लाती ही है .
रमेश भी परीक्षाएं पास करता हुआ , फिजिकल , मेडिकल पास करता हुआ , साक्षात्कार को पार
करता हुआ, ट्रेनिंग से गुजरता हुआ आख़िरकार पुलिस विभाग में नियुक्ति पा ही गया. और
दो दिनों से घर में उत्सव का सा माहौल था. घर में आने वालों के बधाइयों के स्वरुप
से रमेश डिगने वाला नहीं था. उसे अपने मन की सफ़ेद दीवार पर बड़े बड़े अक्षरों में
लिखा जीवन लक्ष्य साँस साँस याद रहता.
नौकरी लगे कोई छह महीने हो गए थे . दफ्तर में उसके चारों ओर का
वातावरण ईमानदारी के सुनहरे पर्दे में छुपा गन्दगी से बजबजा रहा था. वे सब
स्मार्ट, सुंदर , प्रभावी चेहरे उसे विद्रूप होते लगे. रमेश अपने सिद्धांतों पर
अचल था और इसीलिए सभी के मखौल का पात्र भी बन चुका था अब तक.
दूसरी तरफ पुलिस विभाग में नौकरी लगते ही उसके लिए जैसे अच्छे घरों से
सुन्दर- सुशील कन्याओं के रिश्तों की बाढ़ ही आ गई. ख़ुशी ख़ुशी जीवन का यह संस्कार
भी निपटा. विवाहोपरांत प्रेम अंकुर फूटता , पलता-बढ़ता कि उसके पहले ही उसे
अपेक्षाओं की नज़र लग गई .
“बहुत भोले हैं !”
“अरी भोले क्या कहती हो, कहो कि बुद्धू हैं ! घर आती लक्ष्मी को कोई
यूँ ठुकराता है भला ?”
“तुम सही कह रही हो सखी . ऐ मीरा , भई तुम तो बुरी फंसी !”
उधर पीहर वाले समझाते –
“सर पर जिम्मेदारियों का बोझ पड़ेगा तो सारे आदर्श धरे के धरे रह
जायेंगे . तू चिंता मत कर बिटिया , सअअब ठीक हो जायेगा.”
“तनिक सब्र कर !”
“अजी हमने फ़ूल सी बिटिया दी ही है इसीलिए कि महारानी की तरह राज करे
....आज के ज़माने में भी कोई इतना बुद्धू कैसे हो सकता है ? जाने कब व्यावहारिक
होगा !”
समय की अपनी गति है . अब वो गर्म खून के जोश की उम्र ढल रही थी . कोई
प्रेम का सोता भी नहीं था कि सींचता . थी तो बस बढ़तीं मांगें, जरूरतें , ताने !
गर्भवती पत्नी आने वाली जिम्मेदारियां गिनाती . अपेक्षाओं की तेज हवा में कन्नी
खिंची ही जाती . आदर्शों, सिद्धांतों को ढील देने का चहुँ ओर शोर बढ़ता ही जाता .
पुत्रीरत्न के पदार्पण के पश्चात तो जैसे उसके सिद्धांतों को जुल्म और
अन्याय ही घोषित कर दिया गया. रमेश को अवसाद घेरने को उमड़ रहा था. वह अब ड्यूटी के
बाद भी दफ्तर नहीं तो फील्ड ही में बने रहता . घर आने को मन तो बहुत करता परन्तु
हिम्मत नहीं बांध पाता. बाजारवाद के इस आधुनिक समाज ने लालसाओं को भी जरुरत की
परिभाषा पहना दी थी. मगर रमेश जो अब चंचल भले न रह गया हो, धीर गंभीर पर्वत सा
अपने सिद्धांतो से टस से मस न हुआ.
गाँधी पथ के प्राइम लोकेशन पर एक बड़े भूभाग पर दस बारह साल से कर रखे
अतिक्रमण को हटाने का आदेश आ गया था . इत्तला स्वरुप अख़बार में भी मोटे अक्षरों
में खबर छप चुकी थी. जगह जगह लगाये गए लाल निशान का इंस्पेक्शन करना था रमेश को.
वैसे तो परिपाटी थी कि ऑफिस में बैठे बैठे ही फाइल आगे बढ़ा दी जाती . मगर रमेश
फील्ड पर जा कर निरिक्षण करने लगा.
“सेनेटरी एंड टाइल्स” की यह इतनी बड़ी दुकान क्यों छोड़ दी बे ?” रमेश
कोतवाल पर गुर्राया. कोतवाल घबरा गया. वह रमेश को जानता था . करे तो मरे, न करे तो
मरे ! सांप छुछुंदर सी हालत में बात को लेकर बड़ी हुज्ज़त हुई. स्टोर के मालिक ने,
मातहत सब इंस्पेक्टर ने , सबने रमेश को समझाने की तमाम कोशिशें की.
“जो नियम में है उसे तोडूंगा नहीं, जो नियम के बाहर हैं उन्हें
छोडूंगा नहीं.” बात मुंह से क्या निकली थी कि प्रिंट मिडिया से होती हुई व्हाट्सअप
तक मजाकिया ख़ुराक हो गई.
जिनमें दाम कम और बदनामी का डर अधिक हो ऐसी छोटी- मोटी बात तो मान भी
लेते रमेश की . मगर यहाँ तो मोटा माल मिलना था. नतीजतन सारा उपक्रम तमाशा साबित हो
गया. रसूखदारों ने जूती में खीर परोस दी थी और नियम- इज्ज़त सब ताक पर रख कर ऊपर से
लेकर नीचे तक सबने प्रसाद ग्रहण कर लिया था . रमेश की फ़जीहत हुई तो समाज में भी सारे
सिद्धांत और नियम धूल धूसरित हो गए थे.
न घड़ी की सुई रुकी थी न ही चाँद सूरज ने चक्कर लगाने छोड़े और न ही
रमेश हालातों के आगे टूटा . हाँ , बदलाव कहीं आ रहे थे तो घर के अन्दर . जब रमेश
ही ने चिकने घड़े के माफिक कोई असर नहीं लिया तो पीहर के लिए पराया धन हो चुकी उसकी
‘डोली में आई थी, अर्थी ही में जाउंगी’ परंपरा वाली पत्नी ही ने थकहार कर अपना राग
बदला. घर में बाकी सब भी पैदाइश के संग ही मेहनत की रुखी- सुखी खाने के आदी हो गए
थे . नैनों में सुनहरे सपने लिए आई वधु, चंचला तीखी पत्नी कालांतर में माँ क्या
बनी मजबूर हो हालातों के आवश्यकतानुसार अपने ह्रदय में परिवर्तन कर ही लिया . बच्चों
को एश-ओ- आराम नहीं तो कम से कम संस्कार ही मिलें. बच्चे मेधावी थे और उनकी मांगें
सीमित. रमेश का दिल जो पत्नी की मांगों के आगे सदैव कठोर बना रहा होनहार बच्चों की
जरूरतें पूरी करने को कसमसा जाता . उसूलों की राह में ऐसी ही बाधाएँ परीक्षा लेती
हैं सोच, वह जी कुछ और कड़ा कर लेता .
मनन ग्यारहवीं कक्षा में आ गया था . वह पी.ई.टी. की तैयारी करना चाहता
था . साथ के लड़के बंसल या एलेन में कोचिंग की बातें कर रहे थे. सालभर की एक लाख
रुपये फ़ीस !! रमेश के सामने जैसे ज़िंदगी की सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई . संयोग से
उन्हीं दिनों गोपालपुरा बाइपास पर सड़क चौड़ी होनी थी . अतिक्रमण हटाये जाने थे.
मुआवजों का मामला अटक सकता था . बड़े बड़े बंगले , बड़े बड़े शोरूम पर खतरा मंडरा रहा
था. चिन्हित करने का काम चल रहा था . रमेश को जमीनी निरिक्षण के लिए फील्ड में
जाना था. वह पशोपेश में था . एक फर्नीचर के बड़े से शोरूम का मालिक ऑफिस के चक्कर
लगा रहा था. रमेश निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अगले दिन वह कौन सा कदम उठाने वाला
है. सिद्धांत या बच्चे का भविष्य ! घड़ी के पेंडुलम की तरह उसका मन डांवाडोल था .
रमेश टी.वी. के सामने से उठ कर बालकनी में आ गया . अपार्टमेंट्स के बीच कटे फटे
बंटे आसमान में चाँद बेहद तन्हा लगा . दूर हाईवे पर आती जाती गाड़ियों को देखता
रमेश चिंतन में डूबा हुआ था कि उसे लगा मनन फोन पर बात करता हुआ शायद ‘पापा’ बोला
. रमेश के कान स्वतः ही पर्दे लगे खिड़की के पार जा खड़े हो गए .
“अरे नहीं यार ! मुझे पैसे नहीं कमाने . मैं ऐसा वैसा इंजिनियर नहीं
बनूँगा . क्या वही पढाई, नौकरी, शादी, फैमिली वाली बंधी बंधाई ढर्रे पर चलती
जिंदगी ? मैं तो अपने पापा जैसे सिद्धांतों पर चलने वाली लाइफ चाहता हूँ. चुनौती
भरी है मगर आसान राहों के राही हम नहीं ! हाहाहा !”
इससे आगे सुनने की रमेश को कहाँ जरुरत थी . वह तो मनन के ठहाके में
अपनी सारी चिंताओं को फुर्र हुए देख रहा था. वह अंदाज़ा लगाने लगा कि जीवन भर
रिश्वत खा खाकर भी मैं इतना दौलतमंद तो कभी नहीं हो सकता था .
“मीरा ! ओ मीरा ! क्या बस टी वी देखती रहती हो ? यहाँ बाहर आओ जरा तो
, देखो तो चाँद कितना सुहाना लग रहा है !”
“लगता है खीर असर दिखा रही है !” मीरा के चेहरे पर मुस्कान तनिक नटखट
हो चली थी .
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