सारी
दुनिया
सत्ता
और
सम्पत्ति
के
पीछे
ही
चलायमान
है
यह
एक
सर्विदित
तथ्य
है.
इतिहास
गवाह
है
कि
सिंहासन
के
लिए
बाप
बेटे,
भाई
भाई
में
मार
काट
तक
मची,
जायदाद
के
बंटवारे
में
हत्याएँ
हुई।
आज
भी
होती
हैं।
एक
किशोर
होती
लड़की
के
कोमल
अहसासों
के
साथ
साथ
यह
सच्चाई
का
भी
ज्ञात
होता
है
कि
उसका
घर,
आंगन,
व्यवसाय,
सम्पत्ति
पर
उसने
पैदा
होते
ही
अधिकार
खो
दिए
थे
क्यूँकि
वह
लड़की
है,
और
इसीलिए
पैदा
होते
ही
उसका
भाई
सब
चीज
का
वारिस
हो
गया!
वह
तो
पराया-धन है। और तो और वह आत्म निर्भर भी नहीं हो सकती। उसके सारे अधिकार उसके सपनों के राजकुमार से शुरू होते हैं। तो फिर वह पति के घर में आ कर भी सब कुछ क्यूँ बाटें? किससे बाटें? वहाँ भी वह पराई क्यूँ है? ससुराल में भी जहाँ हर पुरुष - बाप, बेटा, भाई आदि खून के रिश्तों से बँधे हैं तो हर औरत - माँ, बेटी, बहू या तो पराए घर से आई हैं या पराये घर को जानी हैं। उनका आपस में समाज का बनाया रिश्ता ही तो है? फ़िर वे आपस में उन थोड़े से अधिकारों के लिए लड़ बैठती हैं, एक दूसरे को अधीनस्थ करने को लालयत हो उठती हैं तो यह बहुत ही स्वाभाविक है! यह जुमला कि ‘महिलाएँ ही महिलाओं की दुश्मन है पुरुषों का फेंका हुआ है ताकि वे पितृ सत्ता के कुप्रभाओं के आरोप से साफ़ बच निकलें। वे बस आराम से बैठ कर हथाई करें, अख़बार पढ़ें, टी वी देखें और चाय पकौड़ों का ऑर्डर मारें! घर परिवार में महिलाओं के बीच में वह सूत्र ही ऎसा बैठाया गया है कि उनमें यह विश्वास बैठाना आसान था कि महिलाएँ ही महिलाओं की दुश्मन है।
सौतन,
सौतेली
माँ,
बाँझ,
विधवा
जैसे
धारणाओं
को
भी
देखेंगे
तो
सब
समाज
प्रदत्त
हैं।
बचपन
से
परवरिश
के
भेदभाव
के
कारण
कमजोर
देह
की
महिला
जब
साधारण
से
भी
इलाज
के
अभाव
में
या
अधिकांशत:
जापे
में
मर
जाती
थी
तो
अपने
बच्चों
को
पालने
की
जिम्मेदारी
स्वयं
उठाने
के
बजाए
एक
कमसिन
लड़की
के
सपनों
को
चूरचूर
कर
ब्याह
लाता
और
यह
आशा
कि
वह
उन
बच्चों
को
अतिशय
प्रेम
से
पाले?
एक
महिला
के
लिए
पराए
गाँव
- देश
घर
में
अपने
बच्चों
के
अ
लावा
खून
का
रिश्ता
होता
ही
क्या
है?
वे
भी
वह
पराए
पाले?
और
उस
पर
भी
रिपोर्ट
कार्ड
देने
वाले
ससुराल
वाले
ही?
अभी
कल
ही
के
एक
नामचीन
अख़बार
की
रिपोर्ट
है
कि
बांग्लादेश
में
पिछले
साथ
सालों
में
तलाक
की
दर
34% बढ़ी,
वह
भी
महिलाओं
द्वारा
दायर
की
जाने
के
कारण!
वजह?
नौकरी!
महिलाएँ
जब
आत्म
निर्भर
होती
हैं
तो
सोचने
समझने
का
नजरिया
विकसित
होता
है…
अब
तलाक
उन्हें
पहले
जितना
चुनौतीपूर्ण
नहीं
लगता।
बराबरी
हो,
साझेदारी
हो…
जहाँ
पति
स्वामी
न
हो
और
ससुराल
अपना
घर
हो
जहाँ
किसी
हॉस्टल
के
कायदे
न
हो,
जहाँ
महिला
अपनी.
मर्जी
से
दो
पल
सुकूं
के
गुजार
सके।
मग़र
सास
और
ससुराल
का
भय
जहाँ
दिखा
कर
लड़की
को
शुरू
से
ही
‘सामंजस्य’
बैठा
कर
चलने
की
सीख
मिली
हो
तो
युगों
से
सदियों
से
रची
बसी
असुरक्षा
की
भावना
में
यही
होगा।
समाज
की
विचारधारा
में
आमूलचूल
परिवर्तन
किए
जाएँ
तो
महिला
ही
महिला
की
सबसे
बड़ी
हिमायती
होती
है!
वरना
सत्ता
- संपत्ति
में
होड़
और
दुश्मनी
कोई
लैंगिक
भेद
नहीं
रखती।
-
मुखर कविता, (कथाकार, विचारक)