Thursday, October 29, 2015

* तू मेरा चाँद , मैं … *


वह एकदम स्लिम ट्रिम हो या गोलू मोलू , मुझे हमेशा ही सुन्दर लगता है। एकदम हंसमुख !  बचपन में ताँका झांकी थी.… तो कभी उंगलियाँ उलझाए भी हम घूमा फिरते । और अकसर वह मेरे पीछे पीछे !
फिर उम्र का वो दौर भी आया कि अहसास हुआ यह बचपन ही का नहीं जीवन भर का साथी है.… मन ज़रा भी उदास हो , उसका इंतजार रहता है।
उस तक पहुंचे लोग बताते हैं वह बेहद ठंडा और एकदम पत्थर ही है, जी चाहा चीख कर कहूँ कि इतने करीब जाओगे तो कोई भी पत्थर हो जायेगा !
 मैंने तो उसे जब भी देखा वह मुस्कुरा देता है....वह जब जब अपने पूरे शबाब पे आया हर ओर जैसे उत्सव ही छा गया।  उसके नए नए रूप को हर बार माँ भी निहारती , खीर बनाती , मुँह मीठा कराती … और कई बार तो जब तक वो आ नहीं जाता न कुछ खाती न पानी ही पीती ! कुछ तो बात है उसमें की सबका कान्हां बना फिरता है !
जीवन में दूधिया रौशनी और सौम्य सी ठंडक उसी से है...हाँ , हाँ वह और कोई नहीं नील गगन का राही चाँद ही है।  अब मैं भी जान गई  ही मन का नहीं वो, वो तो प्राणी मात्र में प्रेम तत्व का कारक है ! और इस बात को महिलाएँ आदि काल से विभिन्न व्याज से मनाती आई हैं।  चाँद से प्रेम अपने मन में भर भर के अपने परिवार व् प्रिय जनों पर लुटाने को !
 …........ मुखर
 

Friday, October 2, 2015

- बेदी -


हूं ना मैं बोरिंग!
एकदम आदर्शवादी!
.
आदर्श?
हाहाहाsss!
सुनो आज तुम एक कहानी,
एक सुंदर, चंचल अल्हड़ मन में जीवन में
आदर्श, कर्तव्य, जिम्मेदारी कैसे भर दी गई।
जब धन,संसाधन की समझ बढ़ी
और उनके दम पर सत्ता का जोर!
मालिकों को गुलामों की तलब
आबादी आधी आधी कर दी गई।
वैसे गुलामों की कमी नहीं थी।
मगर कोई ऐसा जो
मालिक की खुशी में खुश,
मालिक के सम्मान में मान
मालिक की मर्जी में मर्जी।
कमजोर से कमजोर,
मुर्ख से मुर्ख,
गरीब से गरीब आदमी को भी
एक अदद गुलाम तो मिले!
इसलिए आधी आधी आबादी।
आधी आबादी को
शरीर बनाया गया।
रिश्तों में बांधा गया।
(क्या औरत ही माँ, बहन, बेटी होती है?
पुरूष बाप,भाई, बेटा नहीं?)
सुंदरता अलंकारों, विशेषणों का
लबादा पहनाया गया।
लबादों के तहों में
मान आबरू बताया गया।
लबादों की जब वह आदी हो गई,
अपने ही आप से अनजान हो गई।
चीरहरण आसान हो गया।
तथाकथित मान को बचाने को,
उसे तिजोरी में, पिंजरे में,
चारदीवारी में रखा गया।
इस घर में हक ना मांगे,
सो पराया कर दिया गया।
उस घर में सब पति का,
उसके जाए बच्चों का भी!
मगर उसका नहीं!
हाँ! वह इतराती है।
अपनी सुंदरता पर,
महंगे कपड़ों पर, गहनों पर।
पिता पति के ओहदों पर
बच्चों की काबिलियत पर!
खुद का क्या?
अरे यही सब तो!!
कहते हैं -
जितना घूमोगे, उतना अनुभव।
जितना अनुभव, उतना ज्ञान।
युगों-युगों से युगों-युगों तक
उसके अनुभव -
घर बच्चे, चौका बर्तन।
और आंचल ढका मान।
न इच्छा, सपने, लोभ,लाभ
बस लाज,शर्म, कर्म, आब!
तुम आदर्शवादी नहीं,
आदर्शों के बेदी पर चढ़ी
भावनाओं की गठरी की बली हो!
***************** मुखर!