फिर वही चाक़ू !
कल ही की बात है-
जाने किस पर तो ,
पूरे चार बार
घोंपने के बाद ,
पसीने से तर बतर 
मैं नींद से उठ
बैठी थी।  
याद है ना
तुम्हें !
पिछली बार तो 
पर्स में से
निकाल ली थी बन्दूक !
फ़िर तो गोली की
आवाज ही से 
खुली थी नींद
मेरी !
कई दिनों तक फ़िर
मेरे बालों में
उंगली फ़िरा 
तुमने उगाए थे
फ़ूल
मेरे अन्तरमन में
। 
और वो बन्दूक,
वो चाकू
तुम्हारी फ़ूंक से
हवा हो गये थे !
आ बैठी थी,
मेरे जहन में 
किसी बंसी की
मीठी सी धुन। 
फ़ैल गया था उजास।
दूर दूर, आस पास। 
जहाँ तक जाती थी
नज़र ,
नजर आते थे कितने
ही इन्द्रधनुष !
और तभी !
फ़िर तभी सूरज डूब
गया !
इस बार अँधेरा 
बहुत बहुत गहरा। 
दिखते हैं गीत न
हवा !
न महकते हैं चाँद
तारे !
सजते नहीं हैं
ख़्वाब भी अब। 
सूनी सूनी  हैं महफिलें ,
चुप चुप हैं
तन्हाईयाँ सब।
समय के भी ज्यों ,
कांटे निकल आये
हैं।  
आंसुओं की  नदी के 
पेटे निकल आये
हैं। 
मुस्कुराहटें भी 
अजनबी अजनबी !
             
-------------- मुखर !

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