सारी तैयारियां भी हम ही को करनी थी , सो समय से पहले नहीं ,
ठीक समय पर हम पहुंचें एयरपोर्ट पर उनको लेने लेने . अठासी वर्षीय सोशल एक्टिविस्ट
व् नामचीन लेखिका रमणिका गुप्ता जी पिछले दिनों की बीमारी से कुछ कमजोर हो चली थीं
. व्हील चेयर से खड़ी हो कार में बैठने में दिक्कत हो रही थी . राजस्थान लेखिका
साहित्य संस्थान की अध्यक्ष वीणा चौहान जी और रेशमा (एक्टिविस्ट की सहायिका) ने
उन्हें बाहर से मदद की और मैंने अपना हाथ बढाया . उनका सीट बेल्ट लगाया .
और अचानक ही उनको अपने बगल वाली सीट पर पा अपने आप पर ‘ड्राईवर’ होने
पर भाग्यशाली महसूस हुआ. एकदम वन टू वन बात करने का सुनहरा मौका भी !
“वेलकम माम ! एक राजधानी से दूसरी राजधानी गुलाबी नगरी में आपका
स्वागत है.” फिर तो अगले दिन शाम छह बजे तक उनका साथ रहा .
पंजाब की जन्मी रमणिका गुप्ता जी का कर्मक्षेत्र रहा हजारिबाग़
,झारखण्ड. वे एक बार एम् एल ए (बिहार) भी रह चुकी हैं . चौदह वर्ष की उम्र में बुआ
के देहावसान पर पहली बार एक कविता लिखी थी , विषय था ‘जीवन’. 1969 में पहली बार
पुस्तक, काव्य संग्रह प्रकाशित हुई. उसके बाद तो अठारह काव्य संग्रह निकले . अब तक
वे 92 किताबें लिख चुकी हैं , एक आत्मकथा भी . अपनी उम्र से चार अधिक !
पूरे सफ़ेद बॉब कट बाल , ढीला डेनिम शर्ट पैंट पर मुलायम सफ़ेद स्कार्फ में
वे बिना किसी लाग लपेट के प्रभावशाली व्यक्तित्व लग रहीं थीं . एक दुसरे पर रखे
उनके हाथ लगातार थपकी देते हिल रहे थे. क्या उनके मन में कोई गीत चल रहा है ? नहीं
नहीं , वे किसी चिंतन में होंगी ...या फिर वृद्धावस्था ?
“पिछले हफ्ता मैं देहरादून के एक साहित्यिक कार्यक्रम में थी , फिर
मुझे झारखण्ड भी जाना था ...बहुत थकान थी . कल हॉस्पिटल ही में थी .”
“ओह्ह !” हमारे मुँह से बेसाख्ता निकल गया . फिर भी हमारे संस्थान के
वार्षिकोत्सव में आप आए इस बात का बहुत बहुत आभार व्यक्त किया वीना माम ने .
आप पंजाब की हैं ...ये सामाजिक कार्य वह भी बिहार में , कब कैसे शुरू
हुआ सब ?
“मैं कॉलेज में भी खद्दर पहनती थी . बापू के सभाओं में जाती थी . 1948
में जाति-तोड़ शादी की. घर पर खूब मार पड़ती , मुझे भी गुप्ता जी को भी , सो वहीँ से
बाबा को फ़ोन किया , “बाबा ! मेरी शादी है , आ जाओ !” सब जने आ गए मगर गुप्ता जी
किसी काम से बाहर गए हुए थे . ‘दूल्हा’ गुप्ता जी को लिवाने रेलवे स्टेशन जाना था
मगर जाये कौन ? कोई पहचानता तो था नहीं , सिवाए मेरे . सो मैं ही गई तांगा करके .
रास्ते ही में वे आते हुए दिखे सो मैं ले आई.”
“उस ज़माने में इतना बड़ा निर्णय ! आप तो देश के आजाद होते ही आज़ाद हो
गईं !यहाँ तो सत्तर साल बाद भी स्त्रियों की आज़ादी पर प्रश्न उठते हैं !”
“मैंने जब से होश संभाला तब से खुद को आज़ाद पाया ! मैंने हमेशा से
तोड़ने पर विश्वास किया है – वर्जनाओं को !”
बहुत कीमत चुकानी पड़ी मगर फिर मिला भी बहुत . रोटी- कपड़ा- छत से कम
कभी मिला नहीं , अधिक की चाह नहीं रही . हमेशा गांवों में, आदिवासियों में ,
मजदूरों संग घुलमिल कर रही, जी तोड़ काम किया . छोटी सी झोपड़ी में चू रहे छप्पर के
नीचे छाता लगा कर भी समय निकाला है तो ऐसे कमरे में भी रही जहाँ किसी संदूक पर सर
टिका , किसी खाट पर बदन को सहारा देते हुए पाँव टीने (कनस्तर) पर रख नींद निकाली .
“1967 से 1993 तक कभी घर पर खाना नहीं बना !”
“क्यों ?”
“बनाना ही नहीं पड़ा ! इतना काम होता था लोगों के बीच , मजदूरों के बीच
कि हमेशा किसी न किसी मजदूर के घर से हमारा खाना आ जाता था .”
रमणिका गुप्ता (जन्म- 22 अप्रैल 1930 सुनाम, पंजाब) हिन्दी की आधुनिक महिला साहित्यकारों में से एक हैं। साहित्य , सियासत और समाज सेवा, इन तीनों ही क्षेत्रों में
उन्होंने समान रूप से सक्रिय रहकर प्रसिद्धि प्राप्त की है। उनका कर्मक्षेत्र
बिहार और
झारखण्ड रहा
है। रमणिका जी की लेखनी में आदिवासी और दलित महिलाओं, बच्चों
की चिंता उभर कर सामने आती है।
हम गेस्ट
हाउस पहुँच गए थे, सोचा वे थोड़ा आराम करना चाहेंगी . मगर उन्होंने तो रेशमा को कह
कर हमारे लिए फटाफट पत्रिका “युद्धरत आम आदमी” की प्रतियाँ निकलवाईं और बताना शुरू
किया . सन 1985 से इस पत्रिका का संपादन मासिक हो रहा था , पिछले कुछ समय से बीमार
रहने की वजह से अब इसे त्रैमासिक कर दिया है .
मैंने
हाथ आए ताजा अंक के पन्ने पलटे तो सम्पादकीय के एक पंक्ति पर नजर अटक गई –
“बुद्ध
ने ईश्वर को नकारा था चूँकि ईश्वर धर्म का
ऐसा औजार है, जिसके सहारे वह आमजन को भय दिखा या दया बता कर मुर्ख बनाता रहा है
...” मन में मैंने सोचा कि बेहद महत्वपूर्ण पत्रिका हाथ लगी है !
रात्रिभोज
के लिए हम वीना माम के घर चले . वहाँ वीना माम ने उन्हें संस्थान की लेखिकाओं की
तथा खुद की पुस्तकें भेंट की . तब तक मैं निम्बू पानी बना लाई सबके लिए .
उन्होंने
कहा कि वे खुश हैं कि इतनी सारी महिलाएं लिख रहीं हैं . जब महिलाएं लिखती हैं तो
समाज बदलता है , सकारात्मक होता है . भारतवर्ष में 165 आदिवासी भाषाओँ में से 92
भाषाओँ ही को लिपिबद्ध कर सके हैं . हम उन आदिवासियों को कहते हैं लिखो . लिखते
हैं कई . अपनी अपनी भाषा में . उन्हें फिर अनुवाद किया जा रहा है. इस तरह
आदिवासियों का अपना साहित्य भी निगाह में आ रहा है . आदिवासी स्त्रियाँ कहती हैं
कि वे तो पढ़ी लिखी नहीं हैं , क्या लिखें ? मैं कहती हूँ वही लिखो जो तुम पर बीती
है . अपना संघर्ष लिखो . स्त्रियों से ज्यादा भुग्तभोगी कौन ? साहित्य समाज का
दर्पण है , उसे बनावटी नहीं होना चाहिए. रमणिका फाउंडेशन इस क्षेत्र में अग्रणी
कार्य कर रहा है . स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य में बहुत काम हो रहा है .
वहाँ साहित्य सृजन की परंपरा मूलतः मौखिक रही . आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह
में विश्वास रखता है . अधिकांश आदिवासी समुदाओं में काफी बाद तक भी निजी और निजता
की धारणाएं घर नहीं कर पाई.
मुझे याद
आया व्हाट्सअप का एक वीडियो सन्देश जिसमें आदिवासी बच्चों में दौड़ कराई गई तो एक
बच्चा शुरुआत ही में गिर कर चोटिल हो गया . देखते ही देखते सब धावक रुक गए और फिर
सभी बच्चे हाथ पकड़ एक साथ आगे बढ़े व दौड़ पूरी की .
रमणिका
जी ने बताया कि आज भी कई समुदाय हैं जहाँ जानवर नहीं पालते हैं तथा खेती व् जंगलों
ही पर निर्भर रहते हुए भी वे कभी आवश्यकता से अधिक तोड़- काट कर संग्रह नहीं करते .
जंगल, जल , जमीन का दोहन नहीं करते . आदिवासियों में श्रम को लेकर आनंद का भाव
रहता है . जब भी कोई मेहनत का काम होता है ख़ुशी के अतिरेक में मुख से निकलता है ,
“हैया हो !” समूह में जो जवान हैं, बलशाली हैं वे सिर्फ़ अपनी ही जमीन पर मेहनत
करके नहीं रुक जाते . और जो वृद्ध हैं , निशक्त हैं उन्हें अपने जीवन यापन के लिए
अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती . अतः संतोष और आनंद से भरपूर जीवन. उनकी संस्कृतियों
में धर्म नहीं है , भाग्य नहीं है , भगवान् नहीं है , पुनर्जन्म जैसा कुछ नहीं है
. वे अस्तित्ववादी हैं . वहां निजी संपत्ति की कोई अवधारणा नहीं है .
मैं भी
अपनी पुस्तक , “तिनके उम्मीदों के’ उन्हें देकर रसोई में चली गई , रोटी सेंकने .
उन्होंने बाद में मुझे कहा कि अपनी कुछ कहानियाँ उनकी पत्रिकाओं में जरुर भेजूं ,
खासकर “आइडेंटिटी क्राइसिस” कहानी तो सबसे पहले. उन्हें मेरी इस कहानी में खून के
रिश्तों से परे पराई औरतों से बना पारिवारिक बनावट अच्छी लगी .
“आपने
महाश्वेता देवी जी के साथ भी काम किया होगा ?”
हम कई
सेमिनार आदि में मिले . सन 2002 को रमणिका फाउंडेशन की तरफ से अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासी साहित्य सम्मलेन में नौ राज्यों के
साहित्यकार आए थे, महाश्वेता देवी भी आई थीं . रामदयाल मुंडा जी, विश्वनाथ प्रताप
सिंह जी आदि के साथ भी काम किया .
उन्होंने
थोड़ी थोड़ी सभी सब्जियाँ , दाल , फल मिक्स सलाद , पापड़ , रायता , कस्टर्ड आदि खाया
. रात के खाने में वे रोटी व् चावल नहीं खातीं . सब्जयों में उन्हें राजस्थानी
स्वाद बहुत भाया. गूँदे की सब्जी और जोधपुर की खास गुलाब जामुन की सब्जी . एक
पुलिस अधिकारी को उनके जयपुर आने की ख़बर लग गई थी सो वे अपने घर से कैरी की लूंजी
लाये थे उनके लिए . वीना माम जिस प्रकार से उनके पास बैठ प्रेम से एक एक चीज उनको
खिला रहीं थी , बहुत प्यारा दृश्य था वह.
रात के
साढ़े दस हो रहे थे , मैंने सामान समेटा और उनसे विदा ली . अगले दिन सुबह जल्दी
जाकर कार्यक्रम की तैयारी करनी थी . मैंने सोचा था कि वे मुझे साड़ी में देख कर
चौंक जाएँगी . चौंकी तो मैं उनको देख कर . वे मेघालय की, सुआपंखी रंग के, लूंगी
ड्रेस में थीं तथा नागालैंड का दुपट्टा
कंधे पर डाला हुआ था . इसे कहते हैं प्रभावशाली व्यक्तित्व ! उर्वर्शी ने तिलक
आरती कर उनका स्वागत किया. आज राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान का अठ्ठाइस्वां
वार्षिक समारोह के अवसर पर सम्मान समारोह तथा “काव्य –कुञ्ज’ का लोकार्पण था . समाज
सेवा तथा साहित्य सेवा के क्षेत्र में विलक्षण योगदानकर्ताओं को सम्मानित किया गया
. तथा तिरासी लेखिकाओं की कविताओं का एक साँझा संग्रह ‘काव्य कुञ्ज’ का लोकार्पण
हुआ. आज के कार्यक्रम की सितारा वरिष्ठ कवयित्री , उपन्यासकार , समाजसेवी ,
स्त्रीवादी रमणिका गुप्ता जी थीं . उनके पोडियम पर पहुँचते ही सभी मोबाइल फोन के
कैमरे सक्रीय हो गए. उन्होंने सभा में संस्थान
अध्यक्ष वीना जी को स्त्रियों में ‘बहनापा’ बढ़ने के लिए साधुवाद दिया .
उनका कहना था कि हर स्त्री को अब खुद से प्रेम करना सीखना होगा . रिश्तों के परे
जाकर एक स्त्री को एक स्त्री बन कर ही देखना होगा . एक सास अपनी बहू की सास बाद
में है पहले वे दोनों स्त्री है यह जानना होगा, समझना होगा. उन्होंने यह भी कहा कि
आज मातृदिवस है , यह औरत के कोख़ को पूजती है...औरत की कीमत क्या बस कोखभर है ? नदी
और नारी को देवी बनाकर इस संस्कृति ने हमेशा ही शोषण किया है . एक औरत माँ , बहन,
बेटी आदि रिश्तों के अलावा भी कुछ है, बिना भी कुछ है और वो जो है एक इन्सान , एक
जीव के रूप में सम्माननीय है . उन्होंने बताया कि स्विट्ज़रलैंड में स्त्रियाँ अपने
घरेलु कार्य के एवज में पति के वेतन में से अपना हिस्सा लेती हैं . स्त्री का
घरेलु कार्य अनार्थिक नहीं है ! आप दिनभर सब काम करके भी किसी के पूछने पर कहती
हैं कि मैं कुछ नहीं करती ! पहचानिए खुद को , प्रेम कीजिये खुद से!
दो
सत्रों के कार्यक्रम पश्चात् खाना खा कर हम वापस गेस्ट हाउस लौटे , थोडा विश्राम
किया. मैं उनके लिए एक छोटा सा उपहार ले गई थी जो उन्होंने सहर्ष स्वीकारा. उन्हें
एअरपोर्ट पर विदा करते हुए पिछले चौबीस घंटों की अहमियत महसूस हुई और खुद के भाग्य
पर गर्व हुआ कि देश की नामचीन हस्ती तथा जमीं से जुड़े मुद्दों पर इतना काम करतीं
इतनी अनुभवी , वयोवृद्ध हस्ती का साथ मिला. उन्होंने जाते हुए वीना माम और मुझे
झारखण्ड में होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए निमंत्रित किया. बहुत सा
उत्साह , बहुत सी उर्जा , बहुत सी सकारात्मकता मेरी कार में भर गई थी ... या मेरे अन्दर ? शायद सब ही जगह !
- मुखर १४ मई २०१८