Tuesday, December 26, 2023

अपनी जमीं, एक लघुकथा

 एयरफोर्स कैंटीन से महीने का राशन ले कर लौट रहा था महेंद्र । देव की थड़ी पर अनुज मिल गया। उसके लैंब्रेटा के बगल ही में अपनी येज़्दी खड़ी कर वह भी एक उल्टे पड़े कनस्तर को खींच कर बैठ गया। अनुज कुछ उखड़ा उखड़ा लग रहा था। 

" वही ! मां की चिट्ठी आई है। पिताजी बीमार चल रहे हैं ।"

"ओह्ह !" थोड़ी चुप्पी बाद महेंद्र ने तसल्ली देने की कोशिश की, "तू निश्चिंत हो कर जा, हम यहां देख लेंगे बच्चों को।"

"चले तो जाएं, मगर इन दिनों बंद है मुनाबाव की ट्रेन !"

"में तो भूल ही गया था ।" चाय के गिलास से सुड़की मार वह बोला, "वे लोग आ क्यों नहीं जाते यहां ? तेरे भारत आने के बाद तो दूसरा युद्ध भी हो गया हमारा पाकिस्तान से ! क्या धरा है उस दुश्मन देश में ।" महेंद्र रौ में कह तो गया । लेकिन वह जानता है यह सब इतना सरल नहीं है। एक बड़े भूखंड को किन्हीं राजनेताओं ने दो देशों में बांट दिया तो इसमें दो दिलजान पड़ोसी कैसे दुश्मन हो गए ?

"यार पीढ़ियों से रहते आए हैं हम लोग वहां । अपनी जन्मभूमि को छोड़ यहां मैं कैसे रह रहा हूं वह मैं ही जानता हूं ।" अनुज ने खाली गिलास सामने रखे टायर पर लकड़ी का फट्टा रख बनी मेज़ पर रख दी। 

"अब उन्हें वह मोह त्यागना ही होगा दोस्त !"

"हम्म्म …"

"कल को शिखा का ब्याह करेगा तो नहीं आवेंगी, बता ?"

"वह तो बहुत दूर की बात है।" उसने एक उसांस छोड़ी। बात बदलते हुए उसने कहा, "तू बता, सब बढ़िया ?"

"कहां यार ! उदयपुर वाले घर के पड़ोस में चोरी क्या हुई एकदम डर बैठ गया।"

"आंटी अंकल कहां हैं? "

"वहीं हैं और क्या ! न नरेंद्र भैया के पास अहमदाबाद जाने को तैयार और न यहां जयपुर ही आते हैं।"

"अब सारे रिश्तेदार, जान पहचान वालों के बीच उनका मन लगा रहता है। जिस घर में दशकों रहे उससे मोह भी तो नहीं छूटता ना !"

महेंद्र बोले जा रहा था और अनुज भौंचक उसे देखे जा रहा था। 


#लघुकथा 

#Mukhar 

10/9/23

Tuesday, February 15, 2022

"जड़ कौन ?"

कितनी अजीब बात है ना !
मैं जिस मिट्टी में पैदा हुआ हूं ,
उसी में पैदा हुए मेरे पिता,
और उनके भी पिता ...
इस मिट्टी को गूंधने ,
अलग अलग दिशाओं से,
अलग अलग घरों से,
आती रही हैं स्त्रियां ,
मिल जाती हैं इसी में !
खो कर अपना अस्तित्व,
देती रही हैं आकार हमें, 
सींचती रहीं हैं ,
लहू, पसीने, गुणसूत्रों से !
इसी मिट्टी में उग कर स्त्रियां,
जाती रही छोड़ कर सब कुछ,
अलग अलग दिशाओं में,
अलग अलग घरों को ! 
युगों युगों से 
घूम रही है स्त्री,
घूम रही है पृथ्वी ,
और मैं ? 
अपनी वंशावली लिए ,
खड़ा हूं वहीं,
युगों युगों से !
कितनी अजीब बात है ना !


- कविता  मुखर 
12/10/2020

Thursday, January 13, 2022

"ड्राइवर"


" ड्राइवर "  लघुकथा 


नीलू की आज पुरानी सखी सोनी सपरिवार मिलने आई थी। चाय नाश्ते पर हल्की फुल्की बातें चल रही थी।

"टिंकू नहीं दिख रहा ?" सोनी ने मठरी खाते हुए पूछा ।

"बेटू की ऑनलाइन क्लास चल रही है। खत्म होने को है !"

तभी भीतर कमरे में से बेटू की आवाज़ आई, "शिशुपाल !" ऑनलाइन क्लास में शिक्षिका महाभारत का कोई प्रसंग प्रश्नोत्तरी से समेट रही थी।


"तू बता ! बड़े समय बाद निकाली फुरसत घर आने की , हैं ? " नीलू ने  मीठा उलाहना दिया ।


"क्या करूं यार ये मुई नौकरी न जीने देती है ना मरने । अच्छा है जो तू इन पचड़ों से दूर है।" कहते हुए सोनी ने तिरछी निगाहें अपने पति पर डाली। 

कुछ ताड़ते हुए नीलू ने बात संभाली, "तेरी दो टकिए की नौकरी में ..." और बैठक ठहाकों से गूंज गया । 

"चलो चलो ! रिवर फ्रंट चलते हैं घूमने ! " सोनी चहकी। 

"बस ड्राइवर बनाए ले चलती हो हमें हर कहीं !" उसके अर्धाँग ने जुबां खोली।

"अरे भई ऐसी भी क्या बात है ! मैं तो ड्राइविंग बहुत एंजॉय करती हूं !" नीलू ने फिर बात संभाली।

सोनी ने नम आंखों से सहेली को बताया कि उसकी जिंदगी ही ड्राइवरी करते गुजर रही है। स्कूल से लौट घर में कदम रखने से पहले ही अस्पताल, बाज़ार, मन्दिर जाने की तैयारी रहती है किसी न किसी की। 

नीलू चाय और नाश्ते की ट्रे उठा रसोई की ओर मुड़ी। सोनी साथ साथ हो ली। उसने नीलू से मन की बात सांझा की , "संयुक्त परिवार में रह कर परिवार की देखभाल और नौकरी की दोहरी जिम्मेदारी तो खुशी खुशी कोई निभा भी ले। लेकिन ये ताने, उफ्फ ! मेरी सैलरी भी पारिवारिक जरूरतों में कहां खप जाती है पता ही नहीं चलता।" 

अब तक बेटा लैपटॉप बंद कर बाहर कमरे में आ गया था।

  नीलू खाने की तैयारी कर ही रही थी कि सोनी ने टोक दिया। 

"सुन ना ! खाना बाहर ही खा आयेंगे ! वहीं चौपाटी पर !"  

"चौपाटी ! मैं तो कब से सोच रही थी !" नीलू उत्साहित हो गई। "बेटू ! कपड़े मत बदलना ! मुंह धो कर कंघी कर लो और जूते पहन लो। अपन चौपाटी चल रहे हैं!" नीलू ने जल्दी जल्दी पर्स और दुपट्टा उठाया।

चलने की तैयारी में दोनों आदमी भी उठ खड़े हुए। सोनी के पति ने फिर एक खोखला सा चुटकुला सुनाने के अंदाज़ में जुबां खोली, "हमको एटीएम बना ले चलोगी !" दोनों मर्द फिर हंस दिए । सोनी तिलमिला गई।

नीलू और सोनी की निगाहें टकराईं ! 

सोनी से रहा नहीं गया, "आप बेटू के साथ बच्चियों की तरह बस मेला एंजॉय करना ! ड्राइविंग भी हम कर लेंगे और एटीएम भी मैं अपना ही निकालूंगी !" उसने आखिर मन की भड़ास निकाल ही दी।

ठीक इसी समय तैयार हो बेटू अपनी उंगली छत की ओर उठाए बैठक में प्रवेश किया,  "और कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चलाया!"

आज कार की फ्रंट दोनों सीट पर स्त्रियां बैठी थीं। दोनों के पतियों को बेटू संग पीछे बैठना पड़ा । 

**

कविता "मुखर", जयपुर

13/1/22 को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित 


Tuesday, August 13, 2019

* खुशफहमी * - कहानी

“देखो ! उगता सूरज ! कितने दिनों बाद देख रहे हैं !”
“दिनों बाद ? महीनोंss बाद !”
“हम्म्म !...मैंने इस पर एक कविता लिखी है. -
"हमारे शहर में सूरज नहीं उगता है ,
भरी दुपहरी या ,
धुप्प अँधेरा रहता है .
हमारे शहर में सूरज नहीं उगता है !” 
पंक्तियाँ सुना कर हंसिनी उसके चेहरे की तरफ देखती है . एक संतोष और मान देती मुस्कराहट देखकर ख़ुशी महसूस करती है . अब वो मुस्कुराहट इसलिए थी कि हंसिनी ने दो ही पंक्तियाँ सुनाई थी या इसलिए कि पंक्तियाँ वाकई प्रभावी थी या फिर उसका ही मूड इस सुनहरी सुबह में अच्छा था ...हंसिनी इन सब पेचीदगियों में नहीं पड़ना चाहती. वह अपनी इन छोटी-छोटी खुशियों को कभी भी दाँव पर नहीं लगाती.
“देखो ! वो बस ! ठीक है ना ?”
“वो ? फड़फड़ ? रस्ते भर उसकी खिड़कियाँ फड़फड़ बजती रहेंगी...सीट सख्त होगी...तेज हवा के थपेड़े चेहरे पर चोट करते रहेंगे ...कोई आरामदायक बस हो कि बैठते ही, सर टिकते ही आँखें लग जाएँ. एक तो आज अन्य दिनों की बनिस्पत जल्दी उठ गई , ऊपर से ठन्डे-ठन्डे पानी से नहा ली हूँ...दिमाग एकदम ठंडा हो रहा है ...मीठी-मीठी नींद के घेर आ रहे हैं.” 
शहर के पश्चिमी छोर पर यह दो-सौ-फीट बाई-पास चौराहा है . हाँ, यही नाम है इस चौराहे का जहाँ दिल्ली की ओर से आती एलेवेटेड रोड बिना जमीं पर टिके चौराहे के ऊपर से ही एक सौ साठ डिग्री पर अजमेर को मुड़ जाती है। सुबह के कोई सात बजे यहाँ शहर के अन्य भाग से अधिक गहमा-गहमी रहती है. मानसरोवर, मालवीयनगर व शहर के आधे हिस्से को जोडती इस राष्ट्रीय मार्ग का ही प्रयोग करते हैं शहरी. जाने ऐसा क्यों होता है कि हर सुबह पूरे शहर को नौकरी या अन्य काम पर या फिर स्कूल कॉलेज के लिए शहर के दूसरे ही हिस्से में जाना होता है और फिर शाम को एक बार फिर पूरा शहर उलट-पुलट होता है अपने-अपने घर लौटते हुए. वो तो आज शिक्षण संस्थानों व् दफ्तरों में नवरात्रों के अष्टमी की छुट्टी है. तो आज लोग अपने-अपने दबड़ों में लम्बी नींद निकाल रहे हैं, सड़कें उबासियाँ ले रहीं हैं और यह चौराहा अलसाया सा आँखें झपका रहा है. 
अगली बस के इंतजार में दोनों रेलिंग का सहारा लिए खड़े हैं. हंसिनी की नजर उसके चेहरे पर एक बार फिर जा अटकती है... उसकी निगाह कहीं दूर पूर्व की दिशा में सिन्धी बस कैंप से आती किसी बस को ढूँढ़ रही है ...चेहरे पर ताजगी है..दमक रहा है ...उसकी आँखें बड़ी नहीं हैं मगर उगते सूरज के प्रतिबिम्ब लिए सुनहरी संभानाओं सी चमक रहीं हैं. 
“लो आ गई बस !” उसने कहा तो हंसिनी की तन्द्रा टूटी . वह सोचती है कि वह वर्तमान का अतिक्रमण कर कहाँ से कहाँ खो जाती है और वह दूरदृष्टि लिए हुए भी कितना प्रेजेंट में रहता है !...उसे बाय कर हंसिनी बस में चढ़ जाती है. संस्कारों के किसी सिग्नल के सहारे वह बस की सभी खाली सीटों को नज़रंदाज करते हुए पिछले हिस्से में किसी महिला ही के बगल में खाली सीट पा बैठ जाती है . वह महिला खिड़की से बाहर किसी से बात कर रही है. हंसिनी यह नहीं मानना चाहती कि वह महिला अपने पति ही से बातें कर रही है.
“थे चिंता मत करजो !... नाश्तो कर लीजो !... अच्छा चालूँ ! ध्यान राखजो थे !”
कितने गुलाबी अहसास हैं न इस वाक्य में , "ध्यान रखना अपना !” जैसे कि जिसको कहा जा रहा है वह इसीलिए अपना ध्यान रखेगा क्योंकि किसी ने कहा था उसे ऐसा करने को ! और होता भी ठीक ऐसा ही है। हंसिनी कल्पना कर रही है कि वह बाइक वाला पुरुष किक मारते ही अपने खुद के ‘किक’ के लिए एक बीड़ी सुलगा लेता है . और कश मारने से पहले ही कुछ याद करके मुस्कुराते हुए बीड़ी नीचे गिरा कर जूतियों से कुचल कर गाड़ी आगे बढा देता है. हंसिनी भलीभांति जानती है कि वक़्त और उम्र के साथ ह्रदय से जुबां तक की धमनियां और रक्त वाहिनियों के आसपास की दीवारें और मज्जा लचीलापन खो देती हैं ...उनमें बहता प्रेमरस कनपटियों तक नहीं पहुँचता है ...लालिमा अब नहीं छाती कपोलों पर...बोलते लब कांपते नहीं हैं ...आँखें पनीली नहीं होती...”ध्यान रखना अपना” मात्र एक औपचारिक हो जाता है ...मशीनी सा कानों पर पड़ता है...सुनने वाले के कान भी अब सवेंदनशील नहीं रह गए. बेहद मतलबी हो गए हैं . वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं...”ध्यान रखना अपना” वहीँ कान के परदे के बाहर ही बिखर जाता है ...अपना असर खो देता है. 
 मगर किसी और द्वारा किसी और के लिए कहे शब्दों की मिठास में हंसिनी डूब जाना चाहती है. वह अपनी सीट पर सेटल होने की कवायद में पाती है कि वह सीट तो पीछे हो ही नहीं रही . दूसरी तरफ की खिड़की पर बैठे आदमी से पूछती है – “वो सीट बेक हो रही है क्या?”
वह आदमी आँखें उठाकर खुबसूरत प्रश्नकर्ता की ओर देखता है और पल भर में ही बिना कुछ कहे हाथ का काम छोड़ चेयर के पुश बटन दबा कर चेयर पीछे करता है. सही पा कर हंसिनी उधर शिफ्ट होने के लिए खड़ी होती है कि वह आदमी चेयर को अपने हाथों से झाड़ता है. उसका ऐसा करना हंसिनी को अच्छा लगता है. वह सीट पर एडजस्ट होती है , अपना बैग ठीक करती है. उसकी कोहनी उस आदमी के कोहनी से एक दो बार हलके से छू जाते हैं. “ये शहर की लड़कियां भी !” वह सोचता होगा , ऐसा हंसिनी कल्पना करती है . बस चल पड़ी है. हवा के झोंके भले लगते हैं . वह आँखें बंद कर लेती है. फिर तो पूरा दिन हेक्टिक रहने वाला है. वह अपने पर्स में हाथ डाल माइग्रेन की टेबलेट चेक करती है. बस गति पकड़ चुकी है. हवा के झोंके अब थप्पड़ जैसे पड़ रहे हैं. 
“ये विंडो बंद कर दीजिये न प्लीज !” उस लड़के ने झट से खिड़की बंद कर दी . हवा अब भी परेशान कर रही है. हंसिनी आँखें मूंदे-मूंदे ही बार-बार अपने हाथों से चेहरे पर उड़ते बाल कानों के पीछे खोंस रही है. कोई हलचल हुई। कनखियों से देखा, वह लड़का उठ कर सामने वाले सीट की भी खिड़की बंद कर रहा है . हंसिनी को अब आराम आया. सीट पूरी पीछे कर के आँखों पर अँधेरा करने के लिए गोगल्स लगा कर नींद के घेरों में उतर जाने की प्रक्रिया में है वह। कल शाम जो एक उदासी से भरा गीत उसके मन में चल रहा था ‘सारे सपने कहीं खो गए...’ कहीं खो गया है . मन के रेडिओ पर फ़िलहाल ‘शाम गुलाबी, सहर गुलाबी, पहर गुलाबी, गुलाबी यह शहर है...धिन-चक धीन-चक धीन-चक...” वह बंद आँखों से अपने चेहरे पर एक मुस्कान महसूस कर रही है.
कंडक्टर पीछे की सीट की ओर गया है. 
 “अजमेर , एक” – एक आवाज .
“एक सौ दस रुपये,” – कंडक्टर का जवाब .
“अजमेर तक के कितने, भैया ?” रेट सुन कन्फर्म करती किसी और की आवाज.“ये वरिष्ठ नागरिक हैं न ! आपका प्रश्न सुनते ही समझ गया था.” कंडक्टर अनुभव के दंभ में बोला. 
... वरिष्ठ नागरिक ? – हंसिनी ने झट आँखें खोल दीं . “आपने मुझसे भी तो एक सौ दस ही लिए !” वह कंडक्टर से कह तो बैठी मगर उत्तर आने से पहले ही कुछ सोच कर , “अच्छा-अच्छा , ठीक है ठीक है !” कह कर वह फिर से सीट पर टिक कर गोगल्स चढ़ा आँखें मूंद लेती है. 
वह यह सोच कर खुश रहना चाहती है कि महिलाओं की टिकट रियायती दरों पर है !
- - - 
 मुखर , 24/10/2018

Friday, August 9, 2019

“दरकते मूल्य” (कहानी )


“हर बात पर संदेह करती हो ! हर एक पर शक करती हो ! इतना अविश्वास क्यों ? आखिर फिर जियोगी कैसे ?”
दिलीप सही कह रहा है . यह बात मीनू मन ही मन भलीभांति जानती थी . आखिर चार पांच बरस हो गए थे दोनों की दोस्ती के . दोनों एक-दुसरे के रग-रग से वाकिफ़ थे. मगर मीनू करे भी तो क्या . बचपन ही से हर पड़ोसी , हर अंकल , हर भैया , हर पुरुष पर शक़ करने का जैसे पाठ ही सिखाया गया है . 
“तुम भोली हो ! तुम्हें नहीं पता दुनिया कितनी धूर्त है , बेवकूफ़ बना लेते हैं तुम जैसों को . तुमने देखा ही क्या है अब तक ?” ऐसी ही बातें सुन-सुन कर उसने कभी किसी अंकल , टीचर को गुरु नहीं बनाया . कभी खुद पर भी पूरा भरोसा नहीं कर पाई . हमेशा बस एक ही बात जहन में उठती , “नहीं , मैं बेवकूफ़ नहीं बनूँगी !” इसीलिए कभी कोई बॉय फ्रेंड भी नहीं बना उसका. आज सत्ताईस की उम्र में भी ‘बेवकूफ़ न बन रही हो’ का डर उसे दिलीप पर भी जब-तब संदेह करने पर मजबूर कर देता . 
यह तो किस्मत की ही बात थी और दिलीप की समझदारी भी कि उसने दोनों घरवालों को विश्वास में लिया था और आख़िरकार मीनू –दिलीप सात फेरों के बंधन में बंध सके. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर दिलीप ने उसे लोगों पर ट्रस्ट करना सिखाया . जीवन अब अधिक सरल और खुशनुमा हो गया था . दुकानदार पर, दूधवाले पर, बाई पर , पड़ोसी पर , कुली पर , दोस्तों , जान पहचान वालों पर एक हद तक विश्वास करने लगी थी मीनू . और कभी दिक्कत भी नहीं आई . कभी कोई छोटी-मोटी परेशानी आई भी तो अपने पर बन आए आत्मविश्वास के कारण परिस्थितियों को संभल लेती थी . नतीजतन कई खूबसूरत रिश्तों से ज़िन्दगी संवर गई थी , महकने लगी थी . और समय ने पंख पसार लिए . 
वह समय भी आया जब बड़ी बेटी को पूना के इंस्टिट्यूट में पढ़ने जाना था . चार लड़कियों ने मिल कर एक फ्लैट किराये पर ले लिया था . खुद दिलीप और मीनू सारी व्यवस्था ठीक कर आए थे .पहले-पहल तो करीब रोजाना ही बातचीत हो जाती थी . फिर वह पढ़ाई , प्रोजेक्ट्स में ऐसी व्यस्त हुई कि दो-चार दिन हो जाते थे फोन किये . वैसे भी चिंता-फिकर की तो कोई बात थी ही नहीं . 
परसों शाम की बात है . ‘बार- बी – क्यु – नेशन’ में सुनील और दिव्या के शादी के सालगिरह की पार्टी चल रही थी. मीनू बुफे से सलाद लेने उठी ही थी कि सोहना का फोन आया . इधर उधर की दो चार बात कर उसने कहा , “मम्मा ! एक बात बतानी है आपको !” टोन में गंभीरता भांपते हुए मीनू प्लेट रख कर बालकनी में आ गई फोन सुनने . “हाँ ! अब बोल , अंदर लाऊड म्यूजिक है .”
“मम्मी !...”
“हाँ बेटा ss ?”
“चलो , घर पहुँच कर फोन कर लेना .”
“अरी बोल तो ! तुझे मालूम है, अब मेरा मन नहीं लगेगा .”
“ आज न ...आज जब मैं दिन को क्लास से लौटी ..”
“?”
“अपार्टमेंट के मेन गेट ही पर मेहरा अंकल मिल गए .”
“वही न जो थर्ड फ्लोर पर रहते हैं ? जब हम आए थे वे बंगलौर गए हुए थे अपने बेटे के पास ?”
“हाँ वही ! बातों बातों में उन्होंने मुझसे पूछा कि फ्लैट में मेरे साथ कौन-कौन है . मैंने बता दिया कि अभी तो मैं अकेली हूँ, शाम को पूनम आ जाएगी . बातें करते-करते हम लिफ्ट में गए . लिफ्ट में उन्होंने मेरे फेस पर टच किया और पूछा कि इतने एक्ने क्यों हो रहे हैं. मुझे तो कुछ समझ ही में नहीं आया कि क्या करूँ . मैंने नोटिस किया कि उन्होंने अपना फ्लोर भी मिस कर दिया और मेरे कंधे पर स्ट्रैप को छू कर पूछे कि यह क्या है . मैं तो जैसे ही मेरे फ्लोर पर लिफ्ट खुली फटाक से भाग कर फ्लैट में घुस गई और अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया . मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था . मम्मी , पता नहीं क्यों मेरा दिमाग एकदम से सुन्न हो गया था . रिएक्ट ही नहीं कर पाई . मुझे तो लग रहा था कि हमारे अपार्टमेंट के अंकल हैं . सोचा भी नहीं था ...”
सोहना बोली जा रही थी और मीनू का चेहरा अवाक खुला रह गया था .
“मम्मा ! बोलो न आप कुछ !..”
“बेटा तू घबरा मत ! हम कल ही पहुँच रहे हैं वहां . उस बुढ्ढे को तो हम बताएँगे. तू दरवाजा अच्छे से बंद रखना. और सुबह रोजाना के जैसे कॉलेज जाना. किसी से कुछ कहने या डरने की कोई जरुरत नहीं है .मगर आज के बाद किसी पर भी विश्वास नहीं करना . यह दुनिया विश्वास करने लायक ही नहीं है दरअसल . उस साले बुढ्ढे के बच्चे भी तुझसे बड़े हैं . फिर भी लाज शर्म नहीं !...”
फोन रखने के बाद, पार्टी से लौटते हुए रास्ते भर , अगले दिन कैब से पूना के लिए रवाना हो रस्ते भर मीनू के जबान पर बार-बार एक ही वाक्य लौट-लौट कर आ रहा था , “कोई भी तो भरोसे के लायक नहीं इस दुनिया में !”
दिलीप क्या कहता ? समझ रहा था कि विश्वास ज़माने में ज़िन्दगी लगी और टूटने में पल भर !
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(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की स्मारिका 'हमारा दृष्टिकोण' में प्रकाशित)

Wednesday, July 24, 2019

"दौलत" - कहानी


घर परिवार मोहल्ले में लड्डू बंटे . वह सोच रहा था कि कोई इतनी बड़ी भी नौकरी नहीं लगी है उसकी ! शायद सरकारी नौकरी मिल गई है इसीलिए बधाइयों का ताँता लगा है . तभी उसके कानों में पड़ा ,”ऊँचें पद को क्या चाटना है भाईसाहब ? मलाईदार है न ? बस !” पापा के दफ्तर से आये शुक्ला अंकल पापा को कह रहे थे. माँ को भी सभी पड़ोसिनें घेरे बधाइयाँ दे रहीं थीं – “अब बरसेगी लक्ष्मी घर में ! दिन फिर गए आपके तो !” उन सबकी हँसी में कुछ था कि वह खुद को सँभालने लगा .
बचपन से दादी नानी से सुनते आया कहानियों का असर था या दादा के संग बिताये समय का या फिर बुआ के द्वारा उपहार में प्राप्त चित्रकथा पत्रिकाओं से मिले मूल्य थे या फिर हो न हो मानव नैसर्गिक रूप से ही सच्चा और इमानदार होता हो कि सत्रह वर्षीय रमेश का लहू समाज, देश और व्यवस्था को सुधारने का जोश रखता था. हो सकता है यह उम्र ही उबालें खाती है . मगर रमेश ने जैसे ठान ही लिया और राह भी निकाल लिया कि पुलिस में भरती होऊंगा और कभी रिश्वत नहीं लूँगा . भले ही फिर दुश्वारियों में ज़िन्दगी गुजरे . एश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीने की लालसा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की जड़ है. उच्च विचार रखने वालों की मेहनत और लगन रंग लाती ही है . रमेश भी परीक्षाएं पास करता हुआ , फिजिकल , मेडिकल पास करता हुआ , साक्षात्कार को पार करता हुआ, ट्रेनिंग से गुजरता हुआ आख़िरकार पुलिस विभाग में नियुक्ति पा ही गया. और दो दिनों से घर में उत्सव का सा माहौल था. घर में आने वालों के बधाइयों के स्वरुप से रमेश डिगने वाला नहीं था. उसे अपने मन की सफ़ेद दीवार पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा जीवन लक्ष्य साँस साँस याद रहता.
नौकरी लगे कोई छह महीने हो गए थे . दफ्तर में उसके चारों ओर का वातावरण ईमानदारी के सुनहरे पर्दे में छुपा गन्दगी से बजबजा रहा था. वे सब स्मार्ट, सुंदर , प्रभावी चेहरे उसे विद्रूप होते लगे. रमेश अपने सिद्धांतों पर अचल था और इसीलिए सभी के मखौल का पात्र भी बन चुका था अब तक.
दूसरी तरफ पुलिस विभाग में नौकरी लगते ही उसके लिए जैसे अच्छे घरों से सुन्दर- सुशील कन्याओं के रिश्तों की बाढ़ ही आ गई. ख़ुशी ख़ुशी जीवन का यह संस्कार भी निपटा. विवाहोपरांत प्रेम अंकुर फूटता , पलता-बढ़ता कि उसके पहले ही उसे अपेक्षाओं की नज़र लग गई .
“बहुत भोले हैं !”
“अरी भोले क्या कहती हो, कहो कि बुद्धू हैं ! घर आती लक्ष्मी को कोई यूँ ठुकराता है भला ?”
“तुम सही कह रही हो सखी . ऐ मीरा , भई तुम तो बुरी फंसी !”
उधर पीहर वाले समझाते –
“सर पर जिम्मेदारियों का बोझ पड़ेगा तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जायेंगे . तू चिंता मत कर बिटिया , सअअब ठीक हो जायेगा.”
“तनिक सब्र कर !”
“अजी हमने फ़ूल सी बिटिया दी ही है इसीलिए कि महारानी की तरह राज करे ....आज के ज़माने में भी कोई इतना बुद्धू कैसे हो सकता है ? जाने कब व्यावहारिक होगा !”
समय की अपनी गति है . अब वो गर्म खून के जोश की उम्र ढल रही थी . कोई प्रेम का सोता भी नहीं था कि सींचता . थी तो बस बढ़तीं मांगें, जरूरतें , ताने ! गर्भवती पत्नी आने वाली जिम्मेदारियां गिनाती . अपेक्षाओं की तेज हवा में कन्नी खिंची ही जाती . आदर्शों, सिद्धांतों को ढील देने का चहुँ ओर शोर बढ़ता ही जाता .
पुत्रीरत्न के पदार्पण के पश्चात तो जैसे उसके सिद्धांतों को जुल्म और अन्याय ही घोषित कर दिया गया. रमेश को अवसाद घेरने को उमड़ रहा था. वह अब ड्यूटी के बाद भी दफ्तर नहीं तो फील्ड ही में बने रहता . घर आने को मन तो बहुत करता परन्तु हिम्मत नहीं बांध पाता. बाजारवाद के इस आधुनिक समाज ने लालसाओं को भी जरुरत की परिभाषा पहना दी थी. मगर रमेश जो अब चंचल भले न रह गया हो, धीर गंभीर पर्वत सा अपने सिद्धांतो से टस से मस न हुआ.
गाँधी पथ के प्राइम लोकेशन पर एक बड़े भूभाग पर दस बारह साल से कर रखे अतिक्रमण को हटाने का आदेश आ गया था . इत्तला स्वरुप अख़बार में भी मोटे अक्षरों में खबर छप चुकी थी. जगह जगह लगाये गए लाल निशान का इंस्पेक्शन करना था रमेश को. वैसे तो परिपाटी थी कि ऑफिस में बैठे बैठे ही फाइल आगे बढ़ा दी जाती . मगर रमेश फील्ड पर जा कर निरिक्षण करने लगा.
“सेनेटरी एंड टाइल्स” की यह इतनी बड़ी दुकान क्यों छोड़ दी बे ?” रमेश कोतवाल पर गुर्राया. कोतवाल घबरा गया. वह रमेश को जानता था . करे तो मरे, न करे तो मरे ! सांप छुछुंदर सी हालत में बात को लेकर बड़ी हुज्ज़त हुई. स्टोर के मालिक ने, मातहत सब इंस्पेक्टर ने , सबने रमेश को समझाने की तमाम कोशिशें की.
“जो नियम में है उसे तोडूंगा नहीं, जो नियम के बाहर हैं उन्हें छोडूंगा नहीं.” बात मुंह से क्या निकली थी कि प्रिंट मिडिया से होती हुई व्हाट्सअप तक मजाकिया ख़ुराक हो गई.
जिनमें दाम कम और बदनामी का डर अधिक हो ऐसी छोटी- मोटी बात तो मान भी लेते रमेश की . मगर यहाँ तो मोटा माल मिलना था. नतीजतन सारा उपक्रम तमाशा साबित हो गया. रसूखदारों ने जूती में खीर परोस दी थी और नियम- इज्ज़त सब ताक पर रख कर ऊपर से लेकर नीचे तक सबने प्रसाद ग्रहण कर लिया था . रमेश की फ़जीहत हुई तो समाज में भी सारे सिद्धांत और नियम धूल धूसरित हो गए थे.
न घड़ी की सुई रुकी थी न ही चाँद सूरज ने चक्कर लगाने छोड़े और न ही रमेश हालातों के आगे टूटा . हाँ , बदलाव कहीं आ रहे थे तो घर के अन्दर . जब रमेश ही ने चिकने घड़े के माफिक कोई असर नहीं लिया तो पीहर के लिए पराया धन हो चुकी उसकी ‘डोली में आई थी, अर्थी ही में जाउंगी’ परंपरा वाली पत्नी ही ने थकहार कर अपना राग बदला. घर में बाकी सब भी पैदाइश के संग ही मेहनत की रुखी- सुखी खाने के आदी हो गए थे . नैनों में सुनहरे सपने लिए आई वधु, चंचला तीखी पत्नी कालांतर में माँ क्या बनी मजबूर हो हालातों के आवश्यकतानुसार अपने ह्रदय में परिवर्तन कर ही लिया . बच्चों को एश-ओ- आराम नहीं तो कम से कम संस्कार ही मिलें. बच्चे मेधावी थे और उनकी मांगें सीमित. रमेश का दिल जो पत्नी की मांगों के आगे सदैव कठोर बना रहा होनहार बच्चों की जरूरतें पूरी करने को कसमसा जाता . उसूलों की राह में ऐसी ही बाधाएँ परीक्षा लेती हैं सोच, वह जी कुछ और कड़ा कर लेता .
मनन ग्यारहवीं कक्षा में आ गया था . वह पी.ई.टी. की तैयारी करना चाहता था . साथ के लड़के बंसल या एलेन में कोचिंग की बातें कर रहे थे. सालभर की एक लाख रुपये फ़ीस !! रमेश के सामने जैसे ज़िंदगी की सबसे बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई . संयोग से उन्हीं दिनों गोपालपुरा बाइपास पर सड़क चौड़ी होनी थी . अतिक्रमण हटाये जाने थे. मुआवजों का मामला अटक सकता था . बड़े बड़े बंगले , बड़े बड़े शोरूम पर खतरा मंडरा रहा था. चिन्हित करने का काम चल रहा था . रमेश को जमीनी निरिक्षण के लिए फील्ड में जाना था. वह पशोपेश में था . एक फर्नीचर के बड़े से शोरूम का मालिक ऑफिस के चक्कर लगा रहा था. रमेश निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अगले दिन वह कौन सा कदम उठाने वाला है. सिद्धांत या बच्चे का भविष्य ! घड़ी के पेंडुलम की तरह उसका मन डांवाडोल था . रमेश टी.वी. के सामने से उठ कर बालकनी में आ गया . अपार्टमेंट्स के बीच कटे फटे बंटे आसमान में चाँद बेहद तन्हा लगा . दूर हाईवे पर आती जाती गाड़ियों को देखता रमेश चिंतन में डूबा हुआ था कि उसे लगा मनन फोन पर बात करता हुआ शायद ‘पापा’ बोला . रमेश के कान स्वतः ही पर्दे लगे खिड़की के पार जा खड़े हो गए .
“अरे नहीं यार ! मुझे पैसे नहीं कमाने . मैं ऐसा वैसा इंजिनियर नहीं बनूँगा . क्या वही पढाई, नौकरी, शादी, फैमिली वाली बंधी बंधाई ढर्रे पर चलती जिंदगी ? मैं तो अपने पापा जैसे सिद्धांतों पर चलने वाली लाइफ चाहता हूँ. चुनौती भरी है मगर आसान राहों के राही हम नहीं ! हाहाहा !”  
इससे आगे सुनने की रमेश को कहाँ जरुरत थी . वह तो मनन के ठहाके में अपनी सारी चिंताओं को फुर्र हुए देख रहा था. वह अंदाज़ा लगाने लगा कि जीवन भर रिश्वत खा खाकर भी मैं इतना दौलतमंद तो कभी नहीं हो सकता था .
“मीरा ! ओ मीरा ! क्या बस टी वी देखती रहती हो ? यहाँ बाहर आओ जरा तो , देखो तो चाँद कितना सुहाना लग रहा है !”
“लगता है खीर असर दिखा रही है !” मीरा के चेहरे पर मुस्कान तनिक नटखट हो चली थी .

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Friday, April 19, 2019

“ आसमां से जमीं की मुलाकात ”




सारी तैयारियां भी हम ही को करनी थी , सो समय से पहले नहीं , ठीक समय पर हम पहुंचें एयरपोर्ट पर उनको लेने लेने . अठासी वर्षीय सोशल एक्टिविस्ट व् नामचीन लेखिका रमणिका गुप्ता जी पिछले दिनों की बीमारी से कुछ कमजोर हो चली थीं . व्हील चेयर से खड़ी हो कार में बैठने में दिक्कत हो रही थी . राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान की अध्यक्ष वीणा चौहान जी और रेशमा (एक्टिविस्ट की सहायिका) ने उन्हें बाहर से मदद की और मैंने अपना हाथ बढाया . उनका सीट बेल्ट लगाया .
और अचानक ही उनको अपने बगल वाली सीट पर पा अपने आप पर ‘ड्राईवर’ होने पर भाग्यशाली महसूस हुआ. एकदम वन टू वन बात करने का सुनहरा मौका भी !
“वेलकम माम ! एक राजधानी से दूसरी राजधानी गुलाबी नगरी में आपका स्वागत है.” फिर तो अगले दिन शाम छह बजे तक उनका साथ रहा .
पंजाब की जन्मी रमणिका गुप्ता जी का कर्मक्षेत्र रहा हजारिबाग़ ,झारखण्ड. वे एक बार एम् एल ए (बिहार) भी रह चुकी हैं . चौदह वर्ष की उम्र में बुआ के देहावसान पर पहली बार एक कविता लिखी थी , विषय था ‘जीवन’. 1969 में पहली बार पुस्तक, काव्य संग्रह प्रकाशित हुई. उसके बाद तो अठारह काव्य संग्रह निकले . अब तक वे 92 किताबें लिख चुकी हैं , एक आत्मकथा भी . अपनी उम्र से चार अधिक !
पूरे सफ़ेद बॉब कट बाल , ढीला डेनिम शर्ट पैंट पर मुलायम सफ़ेद स्कार्फ में वे बिना किसी लाग लपेट के प्रभावशाली व्यक्तित्व लग रहीं थीं . एक दुसरे पर रखे उनके हाथ लगातार थपकी देते हिल रहे थे. क्या उनके मन में कोई गीत चल रहा है ? नहीं नहीं , वे किसी चिंतन में होंगी ...या फिर वृद्धावस्था ?
“पिछले हफ्ता मैं देहरादून के एक साहित्यिक कार्यक्रम में थी , फिर मुझे झारखण्ड भी जाना था ...बहुत थकान थी . कल हॉस्पिटल ही में थी .”
“ओह्ह !” हमारे मुँह से बेसाख्ता निकल गया . फिर भी हमारे संस्थान के वार्षिकोत्सव में आप आए इस बात का बहुत बहुत आभार व्यक्त किया वीना माम ने .
आप पंजाब की हैं ...ये सामाजिक कार्य वह भी बिहार में , कब कैसे शुरू हुआ सब ?
“मैं कॉलेज में भी खद्दर पहनती थी . बापू के सभाओं में जाती थी . 1948 में जाति-तोड़ शादी की. घर पर खूब मार पड़ती , मुझे भी गुप्ता जी को भी , सो वहीँ से बाबा को फ़ोन किया , “बाबा ! मेरी शादी है , आ जाओ !” सब जने आ गए मगर गुप्ता जी किसी काम से बाहर गए हुए थे . ‘दूल्हा’ गुप्ता जी को लिवाने रेलवे स्टेशन जाना था मगर जाये कौन ? कोई पहचानता तो था नहीं , सिवाए मेरे . सो मैं ही गई तांगा करके . रास्ते ही में वे आते हुए दिखे सो मैं ले आई.”
“उस ज़माने में इतना बड़ा निर्णय ! आप तो देश के आजाद होते ही आज़ाद हो गईं !यहाँ तो सत्तर साल बाद भी स्त्रियों की आज़ादी पर प्रश्न उठते हैं !”
“मैंने जब से होश संभाला तब से खुद को आज़ाद पाया ! मैंने हमेशा से तोड़ने पर विश्वास किया है – वर्जनाओं को !”
बहुत कीमत चुकानी पड़ी मगर फिर मिला भी बहुत . रोटी- कपड़ा- छत से कम कभी मिला नहीं , अधिक की चाह नहीं रही . हमेशा गांवों में, आदिवासियों में , मजदूरों संग घुलमिल कर रही, जी तोड़ काम किया . छोटी सी झोपड़ी में चू रहे छप्पर के नीचे छाता लगा कर भी समय निकाला है तो ऐसे कमरे में भी रही जहाँ किसी संदूक पर सर टिका , किसी खाट पर बदन को सहारा देते हुए पाँव टीने (कनस्तर) पर रख नींद निकाली .
“1967 से 1993 तक कभी घर पर खाना नहीं बना !”
“क्यों ?”
“बनाना ही नहीं पड़ा ! इतना काम होता था लोगों के बीच , मजदूरों के बीच कि हमेशा किसी न किसी मजदूर के घर से हमारा खाना आ जाता था .”

रमणिका गुप्ता (जन्म- 22 अप्रैल 1930 सुनाम, पंजाब)  हिन्दी की आधुनिक महिला साहित्यकारों में से एक हैं। साहित्य , सियासत और समाज सेवा, इन तीनों ही क्षेत्रों में उन्होंने समान रूप से सक्रिय रहकर प्रसिद्धि प्राप्त की है। उनका कर्मक्षेत्र बिहार और झारखण्ड रहा है। रमणिका जी की लेखनी में आदिवासी और दलित महिलाओं, बच्चों की चिंता उभर कर सामने आती है।
हम गेस्ट हाउस पहुँच गए थे, सोचा वे थोड़ा आराम करना चाहेंगी . मगर उन्होंने तो रेशमा को कह कर हमारे लिए फटाफट पत्रिका “युद्धरत आम आदमी” की प्रतियाँ निकलवाईं और बताना शुरू किया . सन 1985 से इस पत्रिका का संपादन मासिक हो रहा था , पिछले कुछ समय से बीमार रहने की वजह से अब इसे त्रैमासिक कर दिया है .
मैंने हाथ आए ताजा अंक के पन्ने पलटे तो सम्पादकीय के एक पंक्ति पर नजर अटक गई –
“बुद्ध ने ईश्वर को नकारा था चूँकि ईश्वर धर्म  का ऐसा औजार है, जिसके सहारे वह आमजन को भय दिखा या दया बता कर मुर्ख बनाता रहा है ...” मन में मैंने सोचा कि बेहद महत्वपूर्ण पत्रिका हाथ लगी है !
रात्रिभोज के लिए हम वीना माम के घर चले . वहाँ वीना माम ने उन्हें संस्थान की लेखिकाओं की तथा खुद की पुस्तकें भेंट की . तब तक मैं निम्बू पानी बना लाई सबके लिए .
उन्होंने कहा कि वे खुश हैं कि इतनी सारी महिलाएं लिख रहीं हैं . जब महिलाएं लिखती हैं तो समाज बदलता है , सकारात्मक होता है . भारतवर्ष में 165 आदिवासी भाषाओँ में से 92 भाषाओँ ही को लिपिबद्ध कर सके हैं . हम उन आदिवासियों को कहते हैं लिखो . लिखते हैं कई . अपनी अपनी भाषा में . उन्हें फिर अनुवाद किया जा रहा है. इस तरह आदिवासियों का अपना साहित्य भी निगाह में आ रहा है . आदिवासी स्त्रियाँ कहती हैं कि वे तो पढ़ी लिखी नहीं हैं , क्या लिखें ? मैं कहती हूँ वही लिखो जो तुम पर बीती है . अपना संघर्ष लिखो . स्त्रियों से ज्यादा भुग्तभोगी कौन ? साहित्य समाज का दर्पण है , उसे बनावटी नहीं होना चाहिए. रमणिका फाउंडेशन इस क्षेत्र में अग्रणी कार्य कर रहा है . स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य में बहुत काम हो रहा है . वहाँ साहित्य सृजन की परंपरा मूलतः मौखिक रही . आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह में विश्वास रखता है . अधिकांश आदिवासी समुदाओं में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पाई.
मुझे याद आया व्हाट्सअप का एक वीडियो सन्देश जिसमें आदिवासी बच्चों में दौड़ कराई गई तो एक बच्चा शुरुआत ही में गिर कर चोटिल हो गया . देखते ही देखते सब धावक रुक गए और फिर सभी बच्चे हाथ पकड़ एक साथ आगे बढ़े व दौड़ पूरी की .
रमणिका जी ने बताया कि आज भी कई समुदाय हैं जहाँ जानवर नहीं पालते हैं तथा खेती व् जंगलों ही पर निर्भर रहते हुए भी वे कभी आवश्यकता से अधिक तोड़- काट कर संग्रह नहीं करते . जंगल, जल , जमीन का दोहन नहीं करते . आदिवासियों में श्रम को लेकर आनंद का भाव रहता है . जब भी कोई मेहनत का काम होता है ख़ुशी के अतिरेक में मुख से निकलता है , “हैया हो !” समूह में जो जवान हैं, बलशाली हैं वे सिर्फ़ अपनी ही जमीन पर मेहनत करके नहीं रुक जाते . और जो वृद्ध हैं , निशक्त हैं उन्हें अपने जीवन यापन के लिए अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती . अतः संतोष और आनंद से भरपूर जीवन. उनकी संस्कृतियों में धर्म नहीं है , भाग्य नहीं है , भगवान् नहीं है , पुनर्जन्म जैसा कुछ नहीं है . वे अस्तित्ववादी हैं . वहां निजी संपत्ति की कोई अवधारणा नहीं है .
मैं भी अपनी पुस्तक , “तिनके उम्मीदों के’ उन्हें देकर रसोई में चली गई , रोटी सेंकने . उन्होंने बाद में मुझे कहा कि अपनी कुछ कहानियाँ उनकी पत्रिकाओं में जरुर भेजूं , खासकर “आइडेंटिटी क्राइसिस” कहानी तो सबसे पहले. उन्हें मेरी इस कहानी में खून के रिश्तों से परे पराई औरतों से बना पारिवारिक बनावट अच्छी लगी .
“आपने महाश्वेता देवी जी के साथ भी काम किया होगा ?”
हम कई सेमिनार आदि में मिले . सन 2002 को रमणिका फाउंडेशन की तरफ से अखिल भारतीय स्तर पर  आदिवासी साहित्य सम्मलेन में नौ राज्यों के साहित्यकार आए थे, महाश्वेता देवी भी आई थीं . रामदयाल मुंडा जी, विश्वनाथ प्रताप सिंह जी आदि के साथ भी काम किया .
उन्होंने थोड़ी थोड़ी सभी सब्जियाँ , दाल , फल मिक्स सलाद , पापड़ , रायता , कस्टर्ड आदि खाया . रात के खाने में वे रोटी व् चावल नहीं खातीं . सब्जयों में उन्हें राजस्थानी स्वाद बहुत भाया. गूँदे की सब्जी और जोधपुर की खास गुलाब जामुन की सब्जी . एक पुलिस अधिकारी को उनके जयपुर आने की ख़बर लग गई थी सो वे अपने घर से कैरी की लूंजी लाये थे उनके लिए . वीना माम जिस प्रकार से उनके पास बैठ प्रेम से एक एक चीज उनको खिला रहीं थी , बहुत प्यारा दृश्य था वह.
रात के साढ़े दस हो रहे थे , मैंने सामान समेटा और उनसे विदा ली . अगले दिन सुबह जल्दी जाकर कार्यक्रम की तैयारी करनी थी . मैंने सोचा था कि वे मुझे साड़ी में देख कर चौंक जाएँगी . चौंकी तो मैं उनको देख कर . वे मेघालय की, सुआपंखी रंग के, लूंगी ड्रेस  में थीं तथा नागालैंड का दुपट्टा कंधे पर डाला हुआ था . इसे कहते हैं प्रभावशाली व्यक्तित्व ! उर्वर्शी ने तिलक आरती कर उनका स्वागत किया. आज राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान का अठ्ठाइस्वां वार्षिक समारोह के अवसर पर सम्मान समारोह तथा “काव्य –कुञ्ज’ का लोकार्पण था . समाज सेवा तथा साहित्य सेवा के क्षेत्र में विलक्षण योगदानकर्ताओं को सम्मानित किया गया . तथा तिरासी लेखिकाओं की कविताओं का एक साँझा संग्रह ‘काव्य कुञ्ज’ का लोकार्पण हुआ. आज के कार्यक्रम की सितारा वरिष्ठ कवयित्री , उपन्यासकार , समाजसेवी , स्त्रीवादी रमणिका गुप्ता जी थीं . उनके पोडियम पर पहुँचते ही सभी मोबाइल फोन के कैमरे सक्रीय हो गए. उन्होंने सभा में संस्थान  अध्यक्ष वीना जी को स्त्रियों में ‘बहनापा’ बढ़ने के लिए साधुवाद दिया . उनका कहना था कि हर स्त्री को अब खुद से प्रेम करना सीखना होगा . रिश्तों के परे जाकर एक स्त्री को एक स्त्री बन कर ही देखना होगा . एक सास अपनी बहू की सास बाद में है पहले वे दोनों स्त्री है यह जानना होगा, समझना होगा. उन्होंने यह भी कहा कि आज मातृदिवस है , यह औरत के कोख़ को पूजती है...औरत की कीमत क्या बस कोखभर है ? नदी और नारी को देवी बनाकर इस संस्कृति ने हमेशा ही शोषण किया है . एक औरत माँ , बहन, बेटी आदि रिश्तों के अलावा भी कुछ है, बिना भी कुछ है और वो जो है एक इन्सान , एक जीव के रूप में सम्माननीय है . उन्होंने बताया कि स्विट्ज़रलैंड में स्त्रियाँ अपने घरेलु कार्य के एवज में पति के वेतन में से अपना हिस्सा लेती हैं . स्त्री का घरेलु कार्य अनार्थिक नहीं है ! आप दिनभर सब काम करके भी किसी के पूछने पर कहती हैं कि मैं कुछ नहीं करती ! पहचानिए खुद को , प्रेम कीजिये खुद से!
दो सत्रों के कार्यक्रम पश्चात् खाना खा कर हम वापस गेस्ट हाउस लौटे , थोडा विश्राम किया. मैं उनके लिए एक छोटा सा उपहार ले गई थी जो उन्होंने सहर्ष स्वीकारा. उन्हें एअरपोर्ट पर विदा करते हुए पिछले चौबीस घंटों की अहमियत महसूस हुई और खुद के भाग्य पर गर्व हुआ कि देश की नामचीन हस्ती तथा जमीं से जुड़े मुद्दों पर इतना काम करतीं इतनी अनुभवी , वयोवृद्ध हस्ती का साथ मिला. उन्होंने जाते हुए वीना माम और मुझे झारखण्ड में होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए निमंत्रित किया. बहुत सा उत्साह , बहुत सी उर्जा , बहुत सी सकारात्मकता मेरी कार में भर गई थी ...  या मेरे अन्दर ? शायद सब ही जगह ! 
-    मुखर १४ मई २०१८