Friday, February 17, 2017

करिश्माई सफ़र

मुझे हाइवे का सफ़र करिश्माई लगता है... हमेशा कुछ ना कुछ करने में व्यस्त रहने वाली मैं दिन ढले खुद को वहीं का वहीं पाती हूँ... आज इतनी देर से इतना स्थिर बैठी हूँ एक सीट पर... मग़र फिर भी सौ km/hr की गति बता रहा है मीटर...
हमेशा से जड़ पेड़ पहाड़ भी उसी गति से दौड़ रहे हैं... पास वाले पीछे, दूर वाले आगे... दूर तक क्षितिज तक खाली खाली.. वीरानी... कि अचानक कोई /कुछ प्रकट होता है जिसका रूप द्रुत गति से विकराल होता उतने ही गति से गायब भी हो जाता है... गाने मेरे चार दरवाजे वाले घुमंतू कमरे में बज रहे है और बाहर सारी धरती पेड़ों की बूटी वाले हरे आंचल लहराती नाच रही है... बसंत आने के पहले के पीले मुहाँसे धरा के गालों पर कहीं कहीं दिख पड़ते हैं... कि देखो देखो वहाँ धरा अंजूरी भर पानी लिए बतखों को क्रीड़ा करा रही... वहीं खेत के पीठ टिकाए वो ईंटो की भट्टी नाम का विकास चिमनी का सिगार मुँह में दबाए फिजाओं में धुआँ उगल रहा है... ज्यों प्रकृति का निकम्मा शौहर!... सड़क के दायीं ओर डिवाइडर पर बोगलवेलिया के सातरंगी रिबन फरफ़रा रहे है... शहर से बाहर बहुत दूर निकल आने पर पक्षी भी रूप रंग बदल लेते हैं, फितरत बदल लेते हैं... किलोल करते हैं, आकाश नापते हैं...
कभी-कभी मुख्य सड़क से नज़र उतर कर कुछ दूरी पर अट्टहास करते राक्षसों पर पड़ती है जो मौत का व्यापार करते दिखते हैं जहाँ शराबी खोखली हँसी हँसते हैँ...
अभी मैं जरा आँखें मूँद लूँ कि चारों ओर से मुझे घिरी एक दिलकश आवाज मेरे दिल में तरन्नुम घोल रहा है... 🎶अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह.. 🎶
मैं मुखर